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आलेख/समीक्षादेशसामयिक

…क्योंकि बिहारी हो तो आखिर कुचले-भगाए जाओगे ही न !

गुजरात के वड़ोदरा और फिर पंजाब के अमृतसर की घटनाओं पर स्थानीय समाज के लोगों ने बिहार के प्रवासियों के साथ जो रवैया अपनाया, वह क्या पूरे देश-समाज के लिए स्वीकार करने योग्य हो सकता है? क्या उस देश के संविधान के प्रावधानों, तंत्र की व्यवस्था को तार-तार नहींकिया जा रहा, जिसका संविधान बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी समाज की पूरी दृढ़ता के साथ वकालत करता है और जहां संवैधानिक शब्दों की मजबूती कायम रखने के लिए बेहतर लोकतंत्र की संकल्पना-व्यवस्था का दावा हो? आज यह ज्वलंत हकीकत है कि स्थानीय लोगों का बिहार और अन्य राज्यों से काम करने पहुंचे लोगों के साथ दोयम दर्जें का बरताव आम बात हो चुकी है। आखिर क्यों ऐसे मसले पर गंभीरता से परिचर्चा करने और बेहतर राह निकालने की आवश्यकता महसूस नहींकी जाती? तब क्या आजादी के सत्तर साल बीते चुकने के बावजूद यही नियति-त्रासदी बनी रहेगी कि कुचले-भगाए जाओगे ही, क्योंकि आखिर हो तो बिहारी !

प्रवासी बिहारियों की परिस्थिति के दास वाली पीड़ा पर प्रस्तुत है दिल्ली में रहकर अध्यापन-कार्य कर रहे बिहार के सोन नद अंचल के छोटे शहर डेहरी-आन-सोन (रोहतास) के निवासी और डेहरी हाई स्कूल के हिन्दी-संस्कृत के विद्वान अध्यापक अवधकिशोर मिश्र के लेखक पुत्र कौशलेन्द्र प्रपन्न का सोनमाटीडाटकाम (sonemattee.com)  के लिए यह लेख।   -संपादक, सोनमाटी

 

तुम्हें इतनी-सी बात भी समझ में नहीं आती, न ही तुम्हारे मजदूर दिमाग में समाती है कि तुम भारत के नागरिक होने से पहले बिहारी हो। याने, तुम कभी भी, किसी भी राज्य से खदेड़े जा सकते हो, मारे जा सकते हो और दुरदुराए जा सकते हो। तुम्हें महाराष्ट्र से, असम से, पंजाब से, गुजरात से और कहा-कहां से नहीं भगाया गया? लेकिन, तुम हो कि थेथर की तरह राज्य-दर-राज्य भटकते रहते हो। कहीं रिक्शा खींचते हो, रेहड़ी-ठेला लगाते हो, कारखाने में खटते हो। उस पर तुर्रा यह यह भी रोजमर्रा की तरह सुनते हो कि ……बिहारी हमारे पेट पर लात मारने चले आते हैं। हमारे राज्य में नौकरी हथिया लेते हैं। ……को उनके राज्य खदेड़ो। तुम्हें इतनी-सी बात आखिर क्यों समझ में नहीं आती?

न दीया जलेंगे और न ही छठ होगा, बच्चों की आंखों में होगी बाप के घर न लौटने की टीस
अमृतसर (पंजाब) के रेल हादसा में मरने वालों में तुम्हारी ही संख्या ज्यादा है। दूसरे राज्यों में यूपी के लोगों का है। मालूम है, कि ट्रेन से कटने वालों में उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी मजदूर ज़्यादा थे, जो पास की फैक्ट्री में काम करतेथे। फैक्ट्रियों में रोजी कमाने वाले मजदूर रावण-दहन देखने आए थे और सदा-सदा के लिए सो गए। तुम अपने राज्य, गांव-देहात भी नहीं लौटे। जो खबर लौटी है तुम्हारे गांव, इस कारण शायद दिवाली में न दीया जलेंगे और न ही छठ होगा। सब के सब त्योहार सूने और बच्चों की आंखों में बाप के घर न लौटने की टीस हमेशा के लिए बनी रहेगी।

वह कौन लोग होते हैं, जो रातोंरात जारी करते हैं अघोषित फरमान

पंजाब में रेल हादसा में मरने वालों की संख्या पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्रवासी बिहारी और उत्तर प्रदेश के वे लोग थे जिनके पास खाने-कमाने का और कोई जरिया नहीं था। दूसरे राज्यों में लानत-मलानत सहकर अपने घर-परिवार को पालने वाले इन लोगों पर तोहमत भी लगाने से बाज नहीं आते कि इन्हीं की वजह से फलां राज्य में उन राज्यों के लोगों को नौकरियां नहीं मिल पा रही हैं। जबकि हमारा संविधान देश के समस्त नागरिक को किसी भी राज्य में, देश के किसी भी कोने में जीने-खाने-कमाने और रहने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। फिर वह कौन लोग हैं जो रातोंरात अघोषित फरमान जारी और लागू करते हैं कि उनका शहर, उनका राज्य खाली कर अपने अपने देस, गांव लौट जाओ? अफसोसनाक किप्रशासन और राज्यों की सरकार ऐसे मसले पर मौन साधे रहती है।

गृहराज्य में रोजगार मुहैया हो तो कौन गांव-घर छोड़कर जाएगा दूर परदेस?
गृह राज्य में यदि रोजगार के अवसर मुहैया करा दिए जाएं तो कौन ऐसा होगा जो अपना गांव-घर छोड़कर हजार, दो हजार किलोमीटर दूर परदेस में मजदूरी करेगा? अपने राज्यों से महज इसलिए लोग ख़ासकर मजदूरी करने वाले पलायन करते हैं कि उनके राज्य, गांव में उन्हें काम नहीं मिलता है। 360 डिग्री कोण पर उलटकर इसे इस तरह भी कहा-समझा जा सकता है कि किसी भी राज्य, देश से बौद्धिक मजदूर, कामगर लोग इसलिए पलायन करते है कि उनके लिए अपने राज्य में उनके लिए माकूल काम और श्रम की कीमत नहीं है। वरना, क्या वजह है कि भारत के विभिन्न राज्यों से लेकर दिल्ली के तमाम मंत्रालयों में पासपोर्ट और वीजा की लाइन लंबी होती है।

सोच न बदली, राज्य की बुनियादी बुनावट पुराने ढर्रे पर ही
दिमाग में बस एक ही बात होती है कि एक बार बाहर का रास्ता मिल जाए तो कुछ भी काम बाहर कर लेंग और मौका माकूल होने पर भी वापस नहीं आएंगे, वहीं के होकर रहेंगे। क्योंकि, एक बात का अहसास साफ तौर पर होता है कि लौटने पर लोग फिर तुम्हें तुम्हारे हिकारत की नजर से देखेंगे। बिहारी, तुम न बदले, तुम्हारी सोच न बदली और न रहन-सहन का सहूर बदला है। सिर्फ हज़ारों फ्लाईओवर बना लेने और चार-छह-आठ लेन की सड़क बना लेने से तमीज़ नहीं आती। राज्य की बुनियादी बुनावट, ढांचा तो पुराने ढर्रे पर ही उपलब्ध हैं, लेकिन दंभ भरने में तुम अब भी पीछे कहां हो?

गुजरात के वडोदरा में भी बिहारियों को राज्य छोड़कर अपने प्रांत लौटने पर किया गया मजबूर
हाल ही में गुजरात के वडोदरा में एक घटना के प्रतिक्रियास्वरूप बिहारियों को राज्य छोड़कर अपने प्रांत लौटने पर मजबूर किया गया। ट्रनों-बसों में भर-भर कर अपने राज्य में लौटे लोगों से मत पूछिए सवाल। पूछना ही है तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि जब कहीं भी बिना रोकटोक भ्रमण करने, रोजगार करने, घर बनाने, शादी करने आदि के मौलिक अधिकार हासिल है, तब कैसे कहीं रोजगार करने, रहने से वंचित किया जा सकता है? वह कौन लोग थे, जिन्होंने संविधान को भी अंगूठा दिखाया और लोकतंत्र के स्तम्भ ख़ामोश रहे। इतना ही नहीं, लूंगी पहन कर बैठे बिहारियों को भी निशाना बनाया गया।

क्या स्थानीय सिविल सोसायटी के समाज की आवाज़ उठाने, विमर्श करने की जवाबदेही नहीं बनती?
क्या यह स्वीकार हो सकता है? क्या उस देश के संविधान के प्रावधानों, तंत्र की व्यवस्था को तार-तार नहीं किया जा रहा, जिसका संविधान बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी समाज की वकालत करता है? संविधान के पूरी शाब्दिक दृढ़ता के साथ उसके पक्ष में होने और संविधान के शब्दों की मजबूतों को कायम रखने के लिए एक बेहतर लोकतंत्र की संकल्पना-व्यवस्था के बावजूद क्यों स्थानीय लोग बहुसांस्कृतिक थाती को तार-तार करते है? क्यों स्थानीय समाज तुरत-फरत वाली राय बनाने और अपने-अपने मनोविज्ञान के हिसाब से निर्णय लेने लगता है? क्या इस स्थिति-परिस्थिति पर व्यापक सामाजिक-राजनीतिक नजरिये से विचार करना जरूरी नहीं है? क्या स्थानीय सिविल सोसायटी के समाज की जवाबदेही नहीं बनती कि ऐसे बरताव के खि़लाफ आवाज़ उठाए, विमर्श की पहल करें? यह सौफदी से अधिक हकीकत है कि इस प्रकार की दोयम दर्जें का बरताव बिहार और अन्य राज्यों से काम करने पहुंचे के लोगों के साथ आम बात हो चुकी है। आखिर क्यों ऐसे मसले पर स्थिर चित्त-मन से, गंभीरता से परि-चर्चा करने और बेहतर समाधान करने की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती है?

(संपादन : कृष्ण किसलय)

लेखक : कौशलेन्द्र प्रपन्न
डी 11/25, सेकेंड फ्लोर, सेक्टर-8,
रोहिणी, दिल्ली-110085

फोन  9891807914

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