रिपोर्ट कार्ड : लुटेरों-चोरों-हत्यारों की भी है सियासी तैयारी
समाचार विश्लेषण/कृष्ण किसलय
छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने किसानों के मुद्दे पर भाजपा को घेरा था, जिसका लाभ उसे मिला। अब तीनों राज्यों के कांग्रेस नीत मुख्यमंत्रियों को बहुत कम समय में किया गया चुनावी वादा पूरा करना होगा, ताकि लगे कि कांग्रेस भी भाजपा के मुकाबले बेहतर तरीके से सरकार चला सकती है। कांग्रेस का वादा सत्ता में आने के दस दिनों में किसानों का कर्ज माफ करने का है। इसे पूरा करने में हर राज्य के खजाने पर कई हजार करोड़ रुपये का भारी बोझ पड़ेगा। इतनी बड़ी रकम जुटाना कांग्रेस सरकारों के लिए बेहद मुश्किल काम है। वादा पूरा करने की परीक्षा में पास होने पर ही कांग्रेस का प्रभाव चार माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव पर बढ़ सकता है।
पहली बार देश में गैर-कांग्रेसवाद की तरह गैर-भाजपावाद की अवधारणा
कांग्रेस और विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां दिल्ली में हुई एक बैठक में यह संकेत दे चुकी हैं कि वे 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा के खिलाफ मिलकर लड़ेंगी। इससे यह तो कहा ही जा सकता है कि पहली बार देश में गैर-कांग्रेसवाद की तरह गैर-भाजपावाद की अवधारणा आकार लेने लगी है। सियासत के इस करवट में दिलचस्प यह है कि जो क्षेत्रीय दल पहले गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति कर अस्तित्व में आए और सत्ता पर सफलता के साथ कब्जा जमाया, वही क्षेत्रीय दल अब गैर-भाजपावाद में मुख्य भूमिका निभाने के लिए आतुर दिख रहे हैं। जबकि राममनोहर लोहिया से जयप्रकाश नारायण के जमाने तक गैर-कांग्रेसवाद वैकल्पिक राजनीतिक कार्यक्रम की तरह ही देश की जनता के सामने पेश होता था।
केेंद्रीय सत्ता इतना ताकतवर न हो कि अस्तित्व पर खतरे की तलवार लटक जाए
गैर-भाजपावाद का झंडा थामकर गोलबंदी की कवायद कर रहे दलों के पास फिलहाल ऐसा कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है। कांग्रेस भले ही राफेल, बैंक कर्ज घोटाला, किसानों की दुर्दशा आदि मुद्दों को उछाल कर भाजपा की आलोचना करती रही है, लेकिन क्षेत्रीय दलों ने इस तरह की कोई जरूरत ही नहीं समझी। क्षेत्रीय दलों का मनोविज्ञान हमेशा से इस संशय से ग्रस्त रहता है कि कोई केेंद्रीय सत्ता इतना ताकतवर नहीं हो जाए ताकि उनके अस्तित्व पर खतरे की तलवार लटक जाए। यही वजह है कि क्षेत्रीय दल अपने-अपने हिसाब से पहले कांग्रेस का मुखालफत करते थे और अब भाजपा का विरोध करने पर आमादा हैं। अब तक किसी राज्य की सरकार ने प्रशासनिक सुधार, कानून-व्यवस्था की मजबूती का मानक स्थापित नहीं किया है, ताकि जनता उसे अच्छा मानकर एकस्वर के साथ उसके खड़ा रह सके।
संख्या-गणित के लिए ही जिताऊ उम्मीदवार पर, चाहे वह चोर-लुटेरा-हत्यारा ही क्यों न हो
वास्तव में राजनीतिक एकता गठबधन संख्या-गणित का आधार तैयार करने के उपक्रम हो गए हैं। संख्या को प्राप्त करने के लिए ही जिताऊ उम्मीदवार पर जोर होता है, चाहे वह चोर-लुटेरा-हत्यारा ही क्यों न हो? कांग्रेस के साथ गठबंधन भी इस पर निर्भर है कि मोदी नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से नाराज मतदाताओं का इस गठबंधन की तरफ आने के अलावा कोई चारा नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत और उसके बाद के राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी जीत से भाजपा के लिए मिथक बन गया कि नरेंद्र मोदी राजनीति के समर में अश्वमेध के अविजित घोड़ा हैं, जिसे थामना राहुल गांधी के बूते की बात नहींहै। मगर, पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया कि हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा-कांग्रेस के बीच टक्कर कांटे की रही है और माहौल भाजपा के खिलाफ हो रहा है। इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों की कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के प्रति स्वीकृति इस पर निर्भर करेगी कि कांग्रेस सरकारें जन-अपेक्षा पर कितना खरा उतरती हैं? इसलिए राज्यों के विधानसभा चुनावों के मत-परिणाम का संदेश यही माना जा सकता है कि राजनीतिक दल अपना वादा पूरा करें। दूसरा निष्कर्ष यह भी हो सकता है कि रामजन्मभूमि और हजार साल बाद हिन्दू राज जैसी भावनात्मक मुद्दों के लिए जनता के पास जगह नहीं है।
तीन राज्यों में कांग्रेस की वापसी का असर बिहार में भी
तीन राज्यों में कांग्रेस की वापसी और भाजपा नीत एनडीए के कमजोर पडऩे का असर बिहार में भी दिखाई देने लगा है। बिहार का क्षेत्रीय दल रालोसपा के एनडीए से अलग होने के बाद दूसरे क्षेत्रीय दल लोजपा के नेता चिराग पासवान ने हिस्से में टिकट संख्या कम होने पर असंतोष प्रकट किया। रालोसपा अधिक सीटें नहीं मिलने के कारण ही एनडीए से अलग हुई। 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा, लोजपा और रालोसपा ने मिलकर लड़ा था। लोजपा ने सात सीटों पर लड़कर छह और रालोसपा ने तीन सीटों पर लड़कर 2 सीट हासिल की थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद को चार, कांग्रेस को दो और दल को दो सीटें मिली थीं।
चोरों-लुटेरों-हत्यारों-माफियों के लिए धनबल ही है रास्ता
बहरहाल, गणतंत्र के सबसे बड़े महासमर (लोकसभा चुनाव) का माहौल दिन-तारीखों के 2019 के कैलेंडर में प्रवेश करने के साथ बिहार की सियासी फिजां पर स्याह-सफेद बादलों की तरह तारी हो चुका है। भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस-राजद नेतृत्व वाले महागठबंधन में विभिन्न कोणों से उम्मीदवारों के रिपोर्ट-कार्ड को लेकर जांच-परख का दौर और राजनीतिक बिसात पर अधिकाधिक संख्या बल के जरिये कब्जा जमाने का प्रयास जारी है। इस दौरान दागी माननीयों के मामले में देश में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान रखने वाले बिहार में लुटेरों-चोरों-हत्यारों-माफियाओं के तिकड़म भी सभी दलों में उम्मीदवार होने के लिए अपने-अपने अंदाज में शुरू हो चुके हैं। बिहार के एक माफिया नेता ने पड़ोसी राज्य झारखंड में एक पार्टी से एक सीट की टिकट के लिए 20-25 करोड़ रुपये में सौदा किया है। यह जानकारी यू-ट्यूब चैनल पर लाइवसिटीपोस्ट में वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर और वीरेन्द्र यादव की चर्चा के क्रम में सामने आई है। बिहार के सोन अंचल के डेहरी-आन-सोन में जमीन के कारोबार से जुड़े कारपोरेट कल्चर के व्यवसायी ने सोनमाटी से अनौपचारिक चर्चा में यह बताया कि एक सुपरिचित माफिया नेता तो विधानसभा या लोकसभा चुनाव लडऩे के बजाय मनी-मैनेजमेन्ट के जरिये सीधे राज्यसभा में जाने की जुगत में है। बीती सदी की तरह बूथ-लूट कारगर नहीं रह जाने के कारण चोरों-लुटेरों-हत्यारों-माफियों के लिए धनबल ही रास्ता है। वे सत्ता में जाते और अपने सिंडीकेट से सत्ता पर कब्जा जमाते ही इसलिए हैं कि विकास-कार्यों के ठेके में घुसकर मनमानी कमाई कर सकेें। और, इसमें कोई शक नहीं कि इस रास्ते के मंजिले-कामयाब में तब्दीली का सियासी सच पिछली सदी में स्थापित हो चुका है। प्रसिद्ध गजलकार और जनकवि अदम गोंडवी ने तो गुजरी सदी में ही लिखा था- जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में, परधान बनके आ गए अगली कतार में।
— कृष्ण किसलय
समूह संपादक
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