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सर्वेंट ऑफ गॉड यानी देवदासी

सर्वेंट ऑफ गॉड यानी देवदासी


धर्म के नाम पर औरतों के शोषण का सिलसिला हजारों वर्षों से जारी है। आज भी न जाने कितने बाबा, स्वामी और धर्मगुरु बड़े-बड़े स्कैंडल में फंसे हैं। मीडिया में रोज ही इनके काले कारनामे उजागर होते हैं। देखा जाए तो धर्म के नाम पर लोगों खासकर महिलाओं को अंधविश्वास के जाल में फंसाना आसान होता है। इसके पीछे मूल वजह अशिक्षा और गरीबी है। भारत में सबसे पहले देवदासी प्रथा के अंतर्गत धर्म के नाम पर औरतों के शोषण को संस्थागत रूप दिया गया था। इतिहास और मानव विज्ञान के अध्येताओं के अनुसार देवदासी प्रथा संभवत: छठी सदी में शुरू हुई थी। ऐसा माना जाता है कि अधिकांश पुराण भी इसी काल में लिखे गए।
देवदासी का मतलब है सर्वेंट ऑफ गॉडश् यानी देव की दासी या पत्नी। देवदासियां मंदिरों की देख-रेख, पूजा-पाठ के लिए सामग्री संयोजन, मंदिरों में नृत्य आदि के अलावा प्रमुख पुजारी, सहायक पुजारियों, प्रभावशाली अधिकारियों, सामंतों एवं कुलीन अभ्यागतों के साथ संबंध बनाती थीं। हालांकि उनका दर्जा वेश्या का नहीं था। कालिदास के मेघदूतम में मंदिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुंआरी कन्याओं का वर्णन मिलता है, जो संभवत: देवदासियां ही रही होंगी।
प्रसिद्ध इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के ग्रंथ भारतीय विवाह संस्था का इतिहास, देवराज चानना की पुस्तक स्लेवरी इन एंशियंट इंडिया, एसएन सिन्हा और एनके बसु की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ प्रॉस्टिट्यूशन इन इंडिया, एफ. मार्गलीन की पुस्तक वाइव्ज ऑफ द किंग गॉड, रिचुअल्स ऑफ देवदासी, मोतीचंद्रा की स्टडीज इन द कल्ट ऑफ मदर गॉडेस इन एंशियंट इंडिया और बीडी सात्सोकर की हिस्ट्री ऑफ देवदासी सिस्टम में इस कुप्रथा पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जेम्स जे. फ्रेजर के ग्रंथ द गोल्डन बो में भी इस प्रथा का विस्तृत ऐतिहासिक विश्लेषण मिलता है। प्रोफेसर यदुनाथ सरकार ने भी अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब के दूसरे भाग में देवदासी प्रथा पर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इनके अलावा कई इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, मानव वैज्ञानिकों और पत्रकारों ने इस विषय पर विस्तृत लेखन किया है।
प्रख्यात लेखक दुबॉइस ने अपनी पुस्तक हिंदू मैनर्स, कस्टम्स एंड सेरेमनीज में लिखा है कि प्रत्येक देवदासी को देवालय में नाचना-गाना पड़ता था। साथ हीए मंदिरों में आने वाले खास मेहमानों के साथ शयन करना पड़ता था। इसके बदले में उन्हें अनाज या धनराशि दी जाती थी। प्राय: देवदासियों की नियुक्ति मासिक अथवा वार्षिक वेतन पर की जाती थी।
देवदासियों को अतीत की बात मान लेना गलत होगा। दक्षिण भारतीय मंदिरों में किसी न किसी रूप में आज भी उनका अस्तित्व है। स्वतंत्रता के बाद पैंतीस वर्ष की अवधि में ही लगभग डेढ़ लाख कन्याएं देवी-देवताओं को समर्पित की गईं। यह कुप्रथा पूरी तरह समाप्त नहींहुई है। अभी भी यह कई रूपों में जारी है। कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। 1990 में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 45.9 फीसदी देवदासियां महानगरों में वेश्यावृत्ति में संलग्न मिलीं, बाकी ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरी और दिहाड़ी पर काम करती पाई गईं। अब मंदिरों में शरण नहीं मिलने के कारण लगभग 80 फीसदी देवदासियां महानगरों की जिस्म की मंडियों में पहुंच गईं। अधेड़ और बूढ़ी देवदासियां देवी येल्लमा के नाम पर भिक्षाटन कर पेट पालती हैं।
देवदासी प्रथा मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और ओडिशा में फली-फूली। कर्नाटक में तो इसके साथ नग्न पूजा का एक उत्सव भी जुड़ गया था। बेल्लारी और चंद्रगुत्ती में हजारों की संख्या में स्त्री और पुरुष पूर्णत: नग्न होकर नदी में स्नान करने के बाद अपनी मनौती पूरी कराने देवी-दर्शन को जाते थे। इसे कवर करने के लिए देशी और विदेशी मीडिया का जमावड़ा लगता था। इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए सामाजिक संगठनों ने आंदोलन शुरू किया और उन्हें पुजारियों व अंधविश्वासी लोगों का विरोध झेलना पड़ा। नग्न पूजा का अश्लील विधान हालांकि अभी भी जारी है। गोवा और राजस्थान में भी देवदासियां मिलती हैं।
मध्य युग में देवदासी प्रथा और भी परवान चढ़ी। सन् 1351 में भारत भ्रमण के लिए आए अरब के दो यात्रियों ने वेश्याओं को ही देवदासी कहा। उन्होंने लिखा है कि संतान की मनोकामना रखने वाली औरत को यदि सुंदर पुत्री हुई तो वह बोंड नाम से जानी जाने वाली मूर्ति को उसे समर्पित कर देती है। वह कन्या बड़ी होने के बाद किसी सार्वजनिक स्थान पर निवास करने लगती है और वहां से गुजरने वाले राहगीरों से चाहे वो किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय के हों, मोल-भाव कर उनके साथ संबंध बनाती हैं। यह राशि वह मंदिर के पुजारी को सौंपती है। (आसियेन रलासियो द लिंद : दलाशीन पृष्ठ 109)
इस्लाम के कुछ पंथों में भी आराधना स्थलों में कन्या अर्पित करने की प्रथा शुरू हुई। लखनऊ में ऐसी कन्याओं को अछूती कहा जाता है। इस बात का प्रमाण इस शहर की अछूती गली। बौद्ध संप्रदायों में भी देवदासी पाई गई हैं। छत्तीसगढ़ के बौद्ध विहारों में ऐसी भिक्षुणियों के होने के साक्ष्य मिलते हैं। ऐसा लगता है कि इनका इस्तेमाल भोग विलास और आमोद-प्रमोद के लिए किया जाता था।
धारवाड़ (कर्नाटक यूनिवर्सिटी) के इतिहास के प्रोफेसर डॉ. एसएस शेट्टर ने देवदासी प्रथा पर शोध किया है। उन्होंने कन्नड़ में इस विषय पर फिल्म बनाई है। प्रो. शेट्टर के अनुसार यह तय कर पाना कठिन है कि देवदासी प्रथा की शुरुआत कब हुई? विविध स्रोतों से जानकारी मिलती है कि यह प्रथा पिछले दो-ढाई हजार वर्षों से अलग-अलग रूपों में अस्तित्व में है। मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी का उल्लेख मिलता है। विद्वानों का मानना है कि देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में किया है।
आज भी देवदासी की कुप्रथा दक्षिण के राज्यों में बनी हुई है। दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगरों में देह व्यापार के दलदल में देवदासी कही जाने वाली स्त्रियों को धकेला जाता रहा है। देवदासी होकर भी इन महिलाओं को पहले भी सम्मान नहीं था, पर इन्हें संरक्षण हासिल था। आज तो देह व्यापार के दलदल में इनका जीवन पूरी तरह असुरक्षित है।
– वीणा भाटिया  9013510023

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