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काबुलीवाला के तर्ज पर बायस्कोपवाला

फिल्म रिव्यू
हालांकि इस फिल्म की कहानी नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी काबुलीवाला से मिलती-जुलती है, पर यह पटकथा से हिसाब से कहींसे भी काबुलीवाला नहीं है। इसे काबुलीवाला से प्रेरित बायस्कोपवाला कहा जा सकता है। फिल्म में सस्पेंस और थ्रिल है। कलाकरों का अभिनय एकदम सधा हुआ है। फिल्म में डैनी बच्चों के साथ खेलते नजर आते हैं। युद्ध और दहशत के माहौल में अपने बायोस्कोप को बचाये रखने की चुनौती भी उनके सामने है। डैनी ने अपने अभिनय की छाप नई छोड़ी है। डैनी के साथ मुख्य भूमिका में गीतांजलि थापा हैं, जो अंतरराष्ट्रीय सम्मान से भी नवाजी जा चुकी हैं। बायस्कोपवाला के लेखक-निर्देशक देव मेढेकर लंबे समय से विज्ञापन फिल्में बनाते रहे हैं। यह उनकी पहली फीचर फिल्म है। देब मेढेकर का कहना है कि उन्होंने आज के दौर का काबुलीवाला बनाने की कोशिश की है।

विश्व साहित्य की अनूठी अमर कहानी काबुलीवाला
नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने 1892 में छोटी कहानी लिखी थी काबुलीवाला। यह कहानी देश-दुनिया भर में बहुत पसंद की गई। पांच साल की नन्हीं बच्ची मिनी और एक अफगान यायावर व्यापारी की सहज मानवीय मित्रता की यह कहानी आज भी उतनी ही पसंद की जाती है, जितनी तब जब यह लिखी गई थी। एक जमाने में यह कहानी बच्चों के कोर्स में शामिल थी। मानवीय संवेदना से भरपूर विश्व साहित्य की इस अनूठी अमर कहानी को पढ़कर आंख भर आती है।
काबुलीवाला की कहानी में काबुलीवाला मेवे बेचने आता है और वह छोटी बच्ची मिनी को हमेशा मेवे दे जाता है। मिनी को देखकर उसे अपनी बच्ची याद आती है, जो उतनी ही बड़ी है। एक बार किसी से झगड़े में काबुलीवाला को जेल हो जाती है। वह जेल से छूटकर आता है तो सबसे पहले मिनी से मिलने जाता है। तब तक मिनी बहुत बड़ी हो चुकी होती है और उसकी शादी की तैयारियां चल रही होती हैं। बहुत आग्रह के बाद मिनी के घरवाले उसे मिनी से मिलवाते हैं। मिनी को दुल्हन के रूप में देखकर काबुलीवाला हैरान रह जाता है। तब उसे लगता है कि वक्त कितना बीत गया। उसे अपनी बच्ची की याद आ जाती है, जो भी विवाह के योग्य हो गई होगी। इसके बाद काबुलीवाला मिनी को उपहार देकर अपने देश लौटने का निर्णय लेता है। इस दौरान उसकी मनोदशा का जैसा चित्रण है, वह वाकई अनूठा है।
काबुलीवाला पर बनीं दो क्लासिक फिल्में
काबुलीवाला कहानी पर 1957 में पहली बार तपन सिन्हा ने बांगला में काबुलीवाला पर फिल्म बनाई। इस क्लासिक फिल्म को बॉक्सऑफिस पर खास सफलता नहीं मिली। 1961 में हिंदी में हेमेन गुप्ता ने इस पर फिल्म बनाई, जिसका निर्देशन विमल राय ने किया था और काबुलीवाला की भूमिका बलराज साहनी ने की थी। संगीत सलिल चौधरी ने दिया था। यह बहुत ही उच्च कोटि की फिल्म थी। इसका गीत (ऐ मेरे प्यारे वतन… तुझपे दिल कुर्बान) आज भी लोगों को बांध लेता है। काबुलीवाला पर बनी दोनों फिल्में विश्व सिनेमा की क्लासिक फिल्में हैं।
नई-पुरानी कहानी में अंतर, पर मूल संवेदना एक जैसी
अब रवींद्रनाथ टैगोर की 157वीं जयंती पर काबुलीवाला पर एक और फिल्म बन कर आई है, जिसका नाम रखा गया है- बायस्कोपवाला। रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी में अफगानिस्तान से आने वाला व्यापारी मेवे बेचता था, जबकि इस फिल्म में वह बच्चों को बायस्कोप दिखाता है। एक जमाना था, जब बच्चों के मनोरंजन का प्रमुख साधन बायस्कोप होता था। शहर हो या गांव, बायस्कोपवाला जब आता था, तब बच्चों की भीड़ लग जाती थी। बीते जमाने में बायस्कोप के जरिये फिल्म देखी जाती थी। आज बायस्कोप याद भर है। बहुतेरे बच्चे तो बायस्कोप का नाम भी नहीं जानते। फिल्म में बायस्कोपवाला का किरदार डैनी डैंग्जोप्पा ने निभाया है। अपनी खलनायकी के लिए बॉलीवुड में मशहूर डैनी इस फिल्म मेें एक नये रूप बायोस्कोपवाल में हैं। काबुलीवाला और फिल्म बायोस्कोपवाला की कहानी में बहुत अंतर है, पर मूल संवेदना एक जैसी है।

काबुलीवाला से प्रेरित है बायस्कोपवाला की कहानी
फिल्म में कहानी की नायिका के पिता अफगानिस्तान की यात्रा पर जाते हैं, जहां उनकी फ्लाइट क्रैश हो जाती है। बेटी पता लगाने अफगानिस्तान जाती है कि आखिर उसके पिता वहां किसलिए गये थे? उसे पता चलता है कि यात्रा के तार उसके बचपन से जुड़े हैं। फिल्म की कथा में फैशन स्टाइलिस्ट मिनी बासु (गीतांजलि थापा) अपने पापा मशहूर फैशन फोटोग्राफर रोबी बासु (आदिल हुसैन) के साथ कोलकाता में रहती है। रोबी की कोलकाता से काबुल जाने वाले के दौरान हवाई दुर्घटना में मौत हो जाती है। मिनी का नौकर भोला (ब्रजेंद्र काला) उसे घर आए मेहमान रहमत खान (डैनी डेंगजोप्पा) से मिलवाता है। मिनी को पता चलता है कि उसके पिता ने हत्या के मुकदमे में जेल में बंद रहमत को छुड़वाया था, जो उसके बचपन के दिनों में उसके घर आने वाला बायस्कोपवाला है। रहमत मिनी में अपनी पांच साल की बेटी की झलक देखता था, जिसे वह अफगानिस्तान में ही छोड़ आया था। मिनी कोलकाता में रहमत के जेल जाने की सच्चाई का पता लगाती है और उसके परिवार को तलाशने अफगानिस्तान भी जाती है। क्या रहमत निर्दोष था? उसे जेल क्यों जाना पड़ा था? इन बातों का फिल्म में जिस रूप में खुलासा होता है, उससे फिल्म रोचक बन कर दर्शकों को बांधे रखती है। हालांकि फिल्म की कहानी रवींद्रनाथ टैगोर की काबुलीवाला से मिलती-जुलती है, पर यह पटकथा से हिसाब से कहींसे भी काबुलीवाला नहीं, बायस्कोपवाला है। इसे काबुलीवाला से प्रेरित कहा जा सकता है। फिल्म में सस्पेंस और थ्रिल है।
निर्देशक की पहली फीचर फिल्म, डैनी का बेमिसाल अभिनय
फिल्म में कलाकरों का अभिनय एकदम सधा हुआ है। इस फिल्म में डैनी बच्चों के साथ खेलते नजर आते हैं, वहीं युद्ध और दहशत के माहौल में अपने बायोस्कोप को बचाये रखने की चुनौती भी उनके सामने है। डैनी ने अपने बेमिसाल अभिनय की छाप छोड़ी है। डैनी के अलावा आदिल हुसैन, बृजेंद्र काला, टिस्का चोपड़ा और गीतांजलि थापा ने सधा हुआ अभिनय किया है। डैनी के साथ मुख्य भूमिका में गीतांजलि थापा हैं, जो अंतरराष्ट्रीय सम्मान से भी नवाजी जा चुकी हैं। इकावली खन्ना की भूमिका भी उल्लेखनीय है। बायस्कोपवाला के लेखक-निर्देशक देव मेढेकर लंबे समय से विज्ञापन फिल्में बनाते रहे हैं। यह उनकी पहली फीचर फिल्म है। देब मेढेकर का कहना है कि उन्होंने आज के दौर का काबुलीवाला बनाने की कोशिश की है।

– फिल्म समीक्षा : वीणा भाटिया
ई-मेल : [email protected]       मोबाइल फोन : 9013510023

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