सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है   Click to listen highlighted text! सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है

क्यों जरूरी है किसी भी मातृभाषा, लोकभाषा का व्यवहार में बना रहना ?

हर भाषा अपने समाज, अपने समय के साथ गुजरे हुए समय की व्यवहार-परंपरा, संस्कृति का इतिहास-कोष, विरासत होती है। उसके ठेठ शब्द भूतकाल के समाज, परिस्थिति की पहचान के साथ किसी जीवाश्म की तरह उपयोगी धरोहर होती हैं। भाषा कोई जैविक प्रक्रिया नहींहै। यह सोशल सिस्टम से विकसित होती और अपना आकार ग्रहण करती है। विविधतापूर्ण समावेशी समाज की रचना के साथ ज्ञान और मानवाधिकार के अधिकार की रक्षा तो मातृभाषा में ही हो सकती है। वह भाषा मातृभाषा है, जिसे आदमी अपनी बाल-अवस्था में घर-परिवार-समाज में बोलता है। अफसोस यह कि घरों में यह चलन आम बना दी गई कि अपनी मातृभाषा (भोजपुरी, मगही आदि बोली) में बोलना तुच्छता है और अशुद्ध ही सही, टूटी-फूटी ही सही अंग्रेजी में बात करना गर्व की बात है। मगर दुनिया में अनेक तरह से किए गए कई शोधों से यह साबित हो चुका है कि अपनी भाषा, मातृभाषा में ही बच्चों का सही विकास होता है। बाजार की भाषा के साथ मातृभाषा बोलने वाले या कई भाषाओं को बोलने वाले अपनी प्रतिभा का अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं। दरअसल यह भ्रम फैलाया जाता रहा कि अंग्रेजी विकास की भाषा है। यह भ्रम इसलिए पाला गया कि ब्रिटिश भारत, गुलाम भारत में अंग्रेजी बाजार की भाषा, नौकरी पाने की भाषा और उपनिवेश के पोषण की भाषा बनी। अब तो भारत अंग्रेजी हुकूमत का उपनिवेश नहींरहा और इसकी अर्थव्यस्था विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था बन चुकी है।

क्या कहते हैं देश-प्रदेश के प्रख्यात भाषाविद?

भाषा धरोहर कैसे है और हर भाषा को जीवित बचाए रखने की जरूरत क्यों है? इस बात को तीन भाषाविदों के कथन से समझा जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाली पद्मश्री प्राप्त वरिष्ठ भाषाविद् डा. अन्विता अब्बी का कहना है कि बोलने वाले नहींरहने के कारण दुनिया में हर पखवारा एक भाषा लुप्त हो रही है। विश्व में छह हजार से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से 50 फीसदी से अधिक मौत के कगार पर हैं। वर्ष 2006 में नाओ (जूनियर) ने भारत के द्वीप ग्रेड अंडमान की आदिम जनजाति (अति प्रचीन) की जो पुरानी कहानी (लोककथा) उन्हें सुनाई, वह अफ्रीका के जंगल से मनुष्य के प्रथम विस्थापन-पलायन का अवशेष है। नाओ (जूनियर) की मौत वर्ष 2009 में हुई। अंडमान द्वीप पर वर्ष 2010 में अनुमानित 85 साल की उम्र में मरी बो (सीनियर) चिडिय़ों से बात करती और उनकी भाषा भी समझती थी। भाषा-सर्वेक्षण के देश के सबसे अग्रणी विद्वान गणेश एन. देवी बताते हैं कि किसी भाषा का मरना मनुष्य की मौत से भी गंभीर घटना है। क्योंकि कोई भाषा कुछ दशकों में नहीं, सभ्यता-संस्कृति की यात्रा और संघर्ष के सैकड़ों-हजारों सालों में बनती है, आकार ग्रहण करती हैं। बिहार में शांतिप्रसाद जैन महाविद्यालय में भाषा विज्ञान के प्रोफेसर और वरिष्ठ भाषाविद डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह बताते हैं कि भोजपुरी भाषा के कई शब्द ढाई हजार साल पुराने बुद्ध-मौर्य कालीन हैं। प्रो. सिंह का कहना है कि भाषा विज्ञान का मोटे तौर पर इंटरनेशनल पैरामीटर यह है कि हजार साल में किसी भी भाषा के 19 फीसदी शब्द लुप्त हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि पांच-सात हजार साल मेंंकिसी भी भाषा के मूल रूप का नया आकार ग्रहण करना तय है और कोई बोलने वाला नहींहोने पर उसका मर जाना भी। इसके साथ ही मैं एक सेल्समैन की चर्चा करना जरूरी समझता हूं। वह दक्षिण बिहार के एक सर्वश्रेष्ठ विद्यालय संतपाल सीनियर सेकेेंड्री स्कूल (सासाराम) में मुझे पिछले महीने मिला था। उसने बगैर परिचय अनौपचारिक बातचीत में इस विडम्बना का इजहार किया कि मैं बेचता हिंदी की किताब हूं, मगर बाजार के दबाव-प्रभाव में संपर्क बनाने के लिए मुझे अंग्रेजी में बोलना पड़ता है।

भोजपुरी आज दुनिया की तेजी से बढ़ती हुई भाषाओं में एक

जाहिर है, लोक-व्यवहार में नहींहोने से भाषा तेजी से लुप्त होती है। फिर भी भोजपुरी समाज के लिए यह खुशी की बात है कि भोजुपरी ने आज दुनिया में तेजी से आगे बढ़ती-विकसित होती हुई भाषा का स्थान बना लिया है। यह जानकारी एक दशक में संपन्न हुए भारतीय भाषालोक सर्वेक्षण के नतीजे के रूप में सामने आई है। जाहिर है कि भोजपुरी ने दुनिया के अनेक देश से, अनेक समाज से संघर्ष, मित्रता और समझौता के जरिये अपनी जरूरत के नये शब्द ग्रहण किए और अपनी शब्द संपदा का विस्तार किया। इसलिए बाजार की भाषा के साथ अपनी मातृभाषा को बोलना, बढ़ावा देना भी जरूरी है। यही कारण है कि एक दशक पहले संयुक्त राष्ट्र ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मातृभाषा दिवस मनाने की शुरुआत की। इस दिन वर्ष 1952 में बांग्लादेश (तब पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा) के तीन विश्विद्यालयों के अनेक छात्रों को अपनी मातृभाषा बांग्ला को राष्ट्रभाषा घोषित करने के आंदोलन में पुलिस की गोली का शिकार होकर प्राणों की आहूति देनी पड़ी थी।

(संलग्न : पांच साल पहले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सुभारतीपुरम, मेरठ से प्रकाशित बहुसंस्करणीय हिन्दी दैनिक प्रभात के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित मेरी रचना)

-कृष्ण किसलय, सचिव, सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार
सोनमाटी-प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यू एरिया, पो. डालमियानगर-821305 (जिला रोहतास) फोन 9708778136

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Click to listen highlighted text!