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पाठकीय प्रतिबद्धता पर निर्भर लेखक की रचना के अर्थ की डी-कोडिंग

भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक और नोबेल पुरस्कार विजेता  वीएस नायपॉल का 12 अगस्त को निधन हो गया। वह 85 वर्ष के थे। उनका पूरा नाम विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल था।नायपॉल का जन्म 17 अगस्त 1932 को त्रिनिडाड में हुआ हुआ था। बाद में वह इंग्लैंड में बसे और उन्होंने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। उनका पहला उपन्यास (द मिस्टिक मैसर)  1951 में प्रकाशित हुआ था। 1990 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नाइट की उपाधि से नवाजा। ए बेंड इन द रिवर और अ हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास उनकी चर्चित कृति  हैं। सबसे चर्चित उपन्यास (ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास) को लिखने में उन्हें तीन साल से ज्यादा का समय लगा। नायपॉल को 1971 में बुकर और 2001 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। नायपॉल ने 30 से अधिक किताबें लिखीं। सोनमाटीडाटकाम में प्रस्तुत है इनकी रचनधार्मिता और निधन के प्रसंगवश वरिष्ठ लेखक कौशलेन्द्र प्रपन्न की टिप्पणी।   -संपादक

 

 

पाठकीय प्रतिबद्धता पर निर्भर है लेखक की रचना के अर्थ की डी-कोडिंग

– कौशलेंद्र प्रपन्न

भाषा-शिक्षा पैडागोजी विशेषज्ञ साहित्यकार किसी क्षेत्र, राज्य, देश का नहीं होता, बल्कि अपने लेखन से वह सार्वदेशिक होता है। उसका लेखन-चिंतन वयैक्तिक न होकर सबका होता है। साहित्यकार सार्वकालिक और सार्वदेशिक प्राणी होता है। उसे किसी ख़ास सीमा, सरहदों में बांधकर न तो समझा जा सकता है और न ही सीमा में घेरकर रखा ही जा सकता है। वीएस नायपॉल ऐसे ही लेखक-साहित्यकार रहे, जिन्होंने ताउम्र इसी दर्शन का जीया और लिखा। हाल ही में ंउनका निधन हो गया। उम्र थी पचासी वर्ष। वीएस नायपॉल का जाना निश्चित ही सार्वदेशिक साहित्य समाज की क्षति मानी जाएगी। उस लेखक का जाना, जिसकी दृष्टि वैश्विक रही, जिसने एक देशी समाजको देखने की बजाए समग्रता में समाज के विकास, पूर्वग्रहों आदि को पकडऩे की कोशिश की।

लेखक को प्रशंसा भी सुननी पड़ती है और सहनी पड़ती हैं आलोचना भी

हर लेखक को अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं पर प्रशंसा भी सुननी पड़ती है और आलोचना भी सहनी पड़ती हैं। लेखक महज प्रशंसा पाने के लिए ही नहीं लिखता, बल्कि उसे तात्कालिक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक परिस्थितियां भी लिखने पर मजबूर करती हैं। यही कारण है कि लेखक एक कठोर इतिहासकार की भी भूमिका निभाता है। वीएस नायपॉल, सलमान रूश्दी, तसलीमा नसरीन, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, हरिशंकर परसाई आदि लेखकों-साहित्यकारों की बहुत लंबी कतार है, जिन्होंने इस बात की पूरजोर वकालत की है कि साहित्यकार को हर हाल में कैसे अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह करना चाहिए? साहित्यकार समाज को रोशनी प्रदान करने के लिए भी लिखता है। चूंकि समाज एकरेखीय नहीं सोचता, समाज विविध धर्मों, विचारधाराओं, मान्यताओं वाला व बहुभाषी होता है, इसलिए साहित्यकारों को समय-समय पर विरोधी वैचारिक समूहों का विरोध भी झेलना पड़ता है।

विरोधों के बावजूद  लिखना नहीं छोड़ता रचनाधर्मी लेखक
पिछले कुछ सालों में कलमुरगी, दुर्गा लंकेश, पनसारे आदि की हत्या की गई। कहना चाहिए कि इन लेखकों-साहित्यकारों को अपनी लेखनी की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। तसलीमा, सलमान रूश्दी या वीएस नायपॉल को महज इसलिए समाज के एक वर्ग ने नकारा कि उनका लेखन एक ख़ास वर्ग की मान्यताओं को चुनौती देने वाली थी। इतिहास बताता है कि लेखकों-साहित्यकारों को समाज में अपमान या पाबंदी के दौर से भी गुजरना पड़ा है। अपने समय में प्रेमचंद को भी अपनी रचना सोजेवतन के लिए मूल्य चुकानी पड़ी थी। इसके बाद उर्दू में लिखने वाले प्रेमचंद ने हिन्दी में लिखना शुरू किया। प्रेमचंद की रचनाओं को पढऩे से पता चलता है कि प्रेमचंद ने लिखना छोडऩे की बजाए और मजबूती से रचना करते नजऱ आते हैं। इसी तरह तमाम विरोधों के बावजूद तसलीमा नसरीन, सलमान रूश्दी आदि ने लिखना नहीं छोड़ा।

अपनी रचनाओं से समाज  को संवेदनशील बनाता है लेखक 
लेखक का समाज पाठकों से बनता है। लिखी रचनाओं का पाठ यदि समग्रता में होता है तो लेखक अपनी रचनाधर्मिता में सफल माना जाता है। यदि लेखक अपनी रचना से समाज को दृष्टि प्रदान करता है तो लेखक के शब्द सार्थक माने जाते हैं और साहित्य भी सकारात्मक मानी जाती है। यदि साहित्यकार का साहित्य जीवन जीने की कला सीखा सके तो साहित्यकार अपने आपको सफल और सार्थक मानता है। लेखक अपनी रचनाओं की बदौलत समाज और पाठक वर्ग को संवेदनशील बनाता है, क्योंकि वह संवेदनशीलता विचारों के प्रति, समाज के प्रति और मानवीय मूल्यों के प्रति होती है। लेखक के शब्दों को पाठक किस रूप में पाठ करता है? उनके किस अर्थ-स्तर को समझता है? यह पूरी तरह से पाठकीय प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है। यदि पाठक किसी ख़ास वैचारिक पूर्वग्रहों से पढ़ता और अर्थ को डी-कोड करता है तो इसमें लेखक की गलती नहीं मानी जा सकती। यही वजह है कि सूरदास, तुलसीदास, कबीर जैसे अपने समय के महान रचनाकारों की रचनाओं का भी समाज में विरोध हुआ है।

 

(डेहरी-आन-सोन के निवासी कौशलेन्द्र प्रपन्न दिल्ली में रहकर दो दशकों से शिक्षा, भाषा और बच्चों पर विभिन्न शिक्षा-शिक्षक संस्थानों मे बतौर भाषा पैडागोजी विशेषज्ञ प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, शोधपत्रों में लेख प्रकाशित और आकाशवाणी, दिल्ली से फीचर-साक्षात्कार प्रसारित। भाषा, कहने के कौशल और बच्चों से संबंधित दो पुस्तके प्रकाशित और दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन। मोबाइल फोन 9891807914)

3 thoughts on “पाठकीय प्रतिबद्धता पर निर्भर लेखक की रचना के अर्थ की डी-कोडिंग

  • August 13, 2018 at 12:17 pm
    Permalink

    Sir, your language is very simple and you can write complex issues also in a easily understandable way. So all the age group can gain knowledge from it. Regards, manjusha

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    • August 16, 2018 at 6:56 am
      Permalink

      Thanks a lot Manjusha ji for your appreciations and kind words i tried to write in a simple way. Thank you very much again.

      Reply
  • August 16, 2018 at 6:59 am
    Permalink

    Thanks a lot Manjusha ji for your inspirational kind words. I tried to write in a simple way. Thanks a lot again.

    Reply

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