सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है   Click to listen highlighted text! सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है

बिहार : गठबंधन के राजनीतिक परिदृश्य में निर्णायक कौन?

–समाचार विश्लेषण/कृष्ण किसलय–

लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दृष्टिकोण से 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश के बाद 40 सीटों वाले बिहार का ज्यादा रणनीतिक महत्व है। बिहार में अपने दम-खम पर सरकार बनाने-चलाने में क्षेत्रीय पार्टियों के नाकाम होने पर गठबंधन की राजनीति शुरू हुई। बिहार के सियासी मिजाज को मौटे तौर पर इस तथ्य से समझने की जरूरत है कि यहां 1944 से 1990 तक राज्य सरकार की सत्ता कांग्रेस के पास थी। हालांकि इस बीच चार छोटी अवधि के लिए गैर कांग्रेसी सरकारें भी रहीं। श्रीकृष्ण सिंह 1961 तक लगातार मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद 29 सालों में कांग्रेस के 23 मुख्यमंत्री बने और पांच बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। 1990 के बाद कांग्रेस हाशिये पर चली गई और सत्ता लालू प्रसाद के पास आ गई। अब 2005 से सत्ता नीतीश कुमार के पास है। गठबंधन की राजनीति से ही कांग्रेस में 2015 से फिर जान आई है।

लालू प्रसाद बने धूरी, नीतीश कुमार का बढ़ा कद
बिहार में प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के बाद एक हद तक कर्पूरी ठाकुर का कद ही राष्ट्रीय स्तर का था। बिहार की राजनीतिक पहचान में तब जबर्दस्त उछाल आई, जब 1990 में लालकृष्ण आडवाणी के रथ को समस्तीपुर में रोक कर और उन्हें गिरफ्तार कर लालू प्रसाद धर्मनिरपेक्षता के हीरो बन गए। नब्बे के दशक के बाद बिहार में उर्वर रही वामपंथी जमीन कमजोर हो गई, क्योंकि वामपंथी दलों का जनाधार मंडलवाद के कारण टूट गया। 1991 में बिहार में भाकपा के 8 सांसद हुआ करते थे। मतदाता जातीय आधार पर लालू प्रसाद और अन्य नेताओं से जुड़ गए। जनता दल में लालू प्रसाद का कद बढ़ा तो शरद यादव, जार्ज फर्नांडीस, नीतीश कुमार जैसे प्रमुख नेता घुटन महसूस करने लगे। नीतीश कुमार और जार्ज फर्नांडीस ने 1994 में लालू प्रसाद से किनारा कर समता पार्टी बना ली। शरद यादव 1997 में चारा घोटाला में लालू प्रसाद का नाम आने पर अलग हो गए। लालू प्रसाद ने नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल बनाकर अपनी राह के अवरोध दूर किए। बिहार में राजग सरकार बनने पर नीतीश कुमार का कद बड़ी तेजी से बढ़ा और बिहार को राष्ट्रीय स्तर पर तरजीह मिली।

…और लालू प्रसाद ने माई समीकरण से मार लिया मैदान
कांग्रेस मुस्लिम, दलितों और जार्ज, नीतीश पिछड़ी जातियों के सहारे थे तो भाजपा को राम लहर पर भरोसा था, मगर लालू प्रसाद ने माई समीकरण (यादव, मुस्लिम) से चुनाव का मैदान मार लिया। 2003 में समता पार्टी का विलय जदयू में हुआ तो नीतीश कुमार प्रखर नेता के रूप में उभरे। भाजपा-जदयू ने मिलकर चुनाव लड़ा तो वोट प्रतिशत बढ़ गया। 2014 में भाजपा से अलग होने पर जदयू को करारा झटका लगा। इस बार लोकसभा चुनाव में दोनों दल साथ हैं। 1989 की राम लहर में भाजपा बिहार में तीन ही सीट जीत सकी थी। 1999 में भाजपा-जदयू ने साथ मिलकर 40 में 29 सीटें जीती थीं, जिनमें भाजपा को 12 और जदयू को 17 सीटें मिली थीं। 2002 में गोधरा कांड के बाद रामविलास पासवान ने राजग से नाता तोड़ लिया था। 2004 में राजद-कांग्रेस और लोजपा की तिकड़ी ने भाजपा-जदयू को हाशिये पर धकेल दिया था और भाजपा को पांच, जदयू को छह सीटें ही मिल सकी थीं। तब राजद (लालू) की 22, लोजपा (पासवान) की चार और कांग्रेस की तीन सीटों पर जीत हासिल हुई थी। 2009 में भाजपा को 12 और जदयू को 20 सीटों पर जीत मिली। 2009 में कांग्रेस-राजद को बंटकर लडऩे का खामियाजा भुगतना पड़ा। 2014 की मोदी लहर में भाजपा को 22, जदयू को 2, राजद को 4, कांग्रेस को 2, लोजपा को 6 और अन्य दलों को 4 सीटें हासिल हुईं।
जातीय अंतरधारा ही अंतत: होती है निर्णायक
बिहार में ऊपरी तौर पर बात भले ही सुशासन और विकास की होती हो, मगर भीतरी तौर पर फैसला समाज में बहने वाली जातीय अंतरधारा ही करती है। जाति संख्या बल के गणित में सबसे मजबूत स्थिति में मुसलमान (15.12 फीसदी) और सबसे कमजोर पासी (0.94 फीसदी) हैं। इसके बाद यादव (14.61), रविदास (5.66), पासवान (5.51), राजपूत (5.47), कोईरी (5.25), ब्राह्म्ïाण (5.20), भूमिहार (4.47), कुर्मी (4.16), मुसहर (2.88), तेली (2.62), मल्लाह (2.04), धानुक (1.67), चंद्रवंशी (1.36), बढ़ई-लोहार (1.26), नाई (1.26), नोनिया (1.24), कुम्हार (1.17), कायस्थ (1.07), तांती-बुनकर (1.03) और धोबी-रज्जक (0.99) हंै। 40 लोकसभा सीटों में छह अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। करीब 20 सीटों पर यादव, मुसलमान, राजपूत, भूमिहार की राजनीति होती है। 16वीं लोकसभा की 21 सीटों पर अभी इन्हीं चार जातियों का कब्जा है। तीन-चार सीटों पर अति पिछड़ी जाति, तीन-चार सीटों पर ब्राह्मण जाति की राजनीति होती है। अनेक सीटों पर कोईरी, कुर्मी के साथ बनिया और कायस्थ की भी राजनीति होती है
इस बार बदल गया है चुनाव का मुद्दा
बिहार में इस बार चुनाव प्रचार का मुद्दा बदल गया है। समाजवादी विचारधारा की आखिरी पार्टी जदयू अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखते हुए ही प्रचार करने का प्रयास कर रही है, भले ही उसकी सरकार साझेदारी में है। भाजपा इस बार कांग्रेस के विरुद्ध अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का राग सीधे नहींअलाप रही है, क्योंकि वह जानती है कि राज्य सरकार की अधिसंख्य योजनाएं किसी खास वर्ग के लिए नहीं, समाज के सभी वर्ग के लिएहै। भाजपा-जदयू के राजनीतिक मंच से डबल इंजन, सवर्ण आरक्षण, शराब बंदी, सात निश्चय, कन्या उत्थान की चर्चा हो रही है तो कांग्रेस, राजद, हम गठबंधन के दूसरे मंच से सांप्रदायिकता, पलटू सियासत पर भाषणबाजी जारी है। वाम दलों के तीसरे मंच का मुद्दा इन दोनों गठबंधनों से अलग तरह का है।
(तस्वीर संयोजन : निशान्त राज)

– कृष्ण किसलय
समूह संपादक : सोनमाटी मीडिया ग्रुप

संपर्क : सोनमाटी-प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यू एरिया,
पो. डालमियानगर-821305, डेहरी-आन-सोन, जिला रोहतास, बिहार
फोन 9708778136

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Click to listen highlighted text!