सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है   Click to listen highlighted text! सोनमाटी के न्यूज पोर्टल पर आपका स्वागत है
आलेख/समीक्षादेशविचारशिक्षा

सवाल : हमसे स्कूल दूर या हम ही स्कूल से बाहर?


दिल्ली से सोनमाटी मीडिया समूह के प्रिंट एडीशन सोनमाटी और ग्लोबल न्यूज-व्यूज पोर्टल सोनमाटीडाटकाम के लिए बाल शिक्षण प्रविधि विशेषज्ञ और शिक्षा विषयों के लेखक कौशलेन्द्र प्रपन्न का लेख

 

हमसे स्कूल दूर है या हम स्कूल से बाहर हो गए हैं? कैसा सवाल है? बच्चे इस सवाल में अपनी जिं़दगी का बड़ा हिस्सा शिक्षा की मुख्यधारा से बाहर काट देेते हैं। वास्तव में शिक्षा को इनसे बेदख़ल कर दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र ने बाल शिक्षा अधिकार अधिवेशन 1989 में दुनिया के तमाम बच्चों को अधिकार देने की वैश्विक घोषणापत्र जारी किया था, जिनमें विकास, सहभागिता, सुरक्षा, जीवन जीने का अधिकार शामिल हैं। इसके बावजूद दिव्यांग या विशेष बच्चों को सामान्य बच्चों के तर्ज ही पर देखने-समझने की ही कोशिश होती रही है। वैश्विक शिक्षा अभियान (ग्लोबल कैंपेन फार एजुकेशन) में भी संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि दिव्यांग बच्चों-वयस्कों के लिए विकास, शिक्षा समावेशी हो। मगर इस घोषणा और दृष्टि के बावजूद कहा जा सकता है कि वैसे बच्चे सामान्य स्कूली शिक्षा की परिधि से बाहर हो गए हैं। फिल्म ‘तारे जमीन परÓ में एक बच्चे के बहाने उन तमाम बच्चों की परेशानी को उजागर किया गया है। सामान्य स्कूलों को इन बच्चों के पहुंच के अनुरूप संसाधन मुहैया कराना नागर समाज की जिम्मेदारी है। लाइब्रेरी, शौचालय का नल, वॉश-बेशीन, टोटी, सीढी आदि ऐसी होनी चाहिए कि बच्चे अपनी आयु, वर्ग के अनुसार इस्तेमाल कर सकेें। अफसोस स्कूल, प्रशासन, शिक्षा विभाग इन सुविधाओं को मुहैया कराने में अभी काफी पीछे हैं। लाइब्रेरी, खेल मैदान आदि के मामले में तो दिव्यांग बच्चे तरसते नजर आते हैं।
किताबें दिव्यांगों के ्अनुकूल और समावेशी नहीं
समावेशी शिक्षा को सामान्य शब्दों कहना हो तो यह होगा कि वह शिक्षा, जो हर बच्चे मे प्रकृति प्रदत्त गुणों को बढ़ाने का काम करे। किसी भी बच्चे को शिक्षा की सामान्य धारा से अलग नहीं किया जाना चाहिए। विद्यालय समाज का छोटा स्वरूप है। स्कूल के प्रागंण में हम जो कुछ सीखते हैं, कालांतर में उसी आधार पर हम समाज को लौटाते हैं। जैसे कि मेट्रो की सुविधा समावेशी है। द्वार से कोच तक पहुंचने की प्रक्रिया दिव्यांगों के लिए अनुकूल है। इसमें दिव्यांग सवारी को अन्य की मदद की आवश्यकता नहीं होती। अन्य स्थानों पर ऐसी सुविधा मुहैया नहीं है। फिल्म, मनोरंजन आदि के अन्य संसाधन भी दिव्यांगों की पहुंच से दूर है। जबकि सूरदास दिव्यांगों के लिए, वैश्विक शिक्षा अभियान (ग्लोबल कैंपेन फार एजुकेशन) में यूएन ने कहा है कि दिव्यांग बच्चों-वयस्कों के लिए विकास, शिक्षा समावेशी हो। स्कूल में चलने वाली पाठ्यपुस्तकें भी समावेशी नहीं हैं। यदि दृष्टिबाधित बच्चा रिमझिम हिन्दी की किताब या आस-पास समाज विज्ञान की किताब पढऩा चाहता है, सवाल-जवाब में हिस्सा लेना चाहता है तो पाठ्य पुस्तक की प्रश्नोत्तरी समावेशी नहीं है। पाठ्य पुस्तक में शामिल कविता, कहानी, यात्रा वृत्तांत को दिव्यांग बच्चे सुनकर या देखकर ही पढ़ सकते हैं। लेकिन किताबों को यूजरफ्रेेंडली यानी समावेशी बनाने पर ख़ास ध्यान नहीं है। इस तरह दिव्यांग बच्चे शिक्षा की पाठ्य पुस्तकों, गतिविधियों से बहिष्कृत हो जाते हैं।
दिव्यांगता की पहचान करने वाली तालीम का भी है अभाव
पाठ्यपुस्तकों को समावेशी बनाने के लिए दिव्यांग बच्चों को ध्यान में रखते हुए शिक्षण-प्रक्रिया और प्रविधियों की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए। ताकि सामान्य शिक्षक भी सामान्य और साधारण दिव्यांगता की पहचान कर सकें। इसके लिए यह जरूरी है कि शिक्षक शिक्षण प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में बच्चों के व्यवहार और दिव्यांगता की पहचान की तालीम दी जानी चाहिए। कई बार शिक्षकों की ख़ुद की तैयारी और दक्षता नहीं होने की वजह से बच्चे मुख्य धारा से कट जाते हैं। यह समझ शिक्षकों को प्रशिक्षण के दौरान ही विकसित करनी चाहिए। कि सामान्य दिव्यांगता व विशेष बच्चों की पहचान कैसे की जाए? यदि कक्षा में ऐसे बच्चे हैं तो उनके लिए किस प्रकार और कैसे पठन सामग्री का निर्माण करेंगे? यह सवाल और इसका हर संभव उत्तर स्कूल स्तर पर ही शिक्षकों को मिलना चाहिए ताकि दिव्यांग बच्चों को भी वह दक्ष बना सकेें। तभी दिव्यांग और बच्चे विशेष को स्कूली शिक्षा से बाहर होने से बचाया जा सकता है।
तालीमी किताबों में नहीं है कोई रोडमैप
अभिभावकों और नागर समाज को दिव्यांग बच्चों के मामले में कैसे बरताव करना है और किस प्रकार की संवेदना रखनी चाहिए, इसकी तालीमी रोडमैप किसी पुस्तक में नहीं मिली सकती। इसलिए एक सामाजिक प्राणी होने के नाते, नागरिक होने के नाते और समक्षम होने के नाते दिव्यांगों के साथ सजग, संवेदनशील व्यहार रखने की अपेक्षा है। संवेदनशील होने और सहानुभूति रखने दोनों में फर्क है, दोनों की सोच की धरातल अलग-अलग है। सहानुभूति कई बार दिव्यांग बच्चों के अंदर बेचैनी एवं खीझ भी पैदा कर सकती है। संवेदना रखना यानी दया भाव नहीं, करुणा का भाव रखना ही श्रेयस्कर है। हर वक़्त उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करना उन्हें उनके पैरों पर खड़ा होने में रोड़ा ही पैदा करता है।

लेखक :

कौशलेन्द्र प्रपन्न

9891807914

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Click to listen highlighted text!