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समाज ने क्या दिया : 20वींसदी के आठवें-नौवें दशक में आंचलिक रंगमंच का चर्चित नाटक

समर्पण :

‘समाज ने क्या दियाÓ के प्रथम संस्करण (1977) को इसके लेखक (कृष्ण किसलय) ने सोनमाटी-प्रेस (प्रिंटिंग मशीन) के संस्थापक (स्व. बिन्देश्वरी प्रसाद सिन्हा) को समर्पित किया था। सोनमाटी-प्रेस के संस्थापक मेरे दादाजी के 21वें पुण्यवर्ष पर बतौर आंचलिक हिंदी रंगमंच की साहित्यिक थाती ‘समाज ने क्या दियाÓ  43 साल बाद आंशिक रूप में प्रस्तुत है।

-निशांत राज, प्रबंध संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह
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आज भी तल्खी के साथ खड़ा है, चार दशक पहले ‘कुमुदÓ ने किया था जो सवाल

चार दशक पूर्व एक घटना का 17 साल के किशोर मन-मस्तिष्क पर ऐसा असर हुआ कि मैंने पूरा नाटक ही लिख डाला, जिसके कथ्य की गूंगी आत्मा को 1975 में जयजवान संघ के कलाकारों ने रंगमंच पर प्रभावपूर्ण आकार दिया। रंगमंच पर कई प्रस्तुतियां चर्चित हुईं तो 1977 में इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करना पड़ा। पुस्तक की चर्चा प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी हुई। 1984 में प्रकाशित नाटक के दूसरे संस्करण का वितरण उज्जवल प्रकाशन, इलाहाबाद ने किया था। इस नाटक ने उस दौर में आंचलिक समाज के मानस को झकझोरने का काम किया था। इसका मंचन कई स्थानों पर बिहार के दक्षिणी छोर (रोहतास) से उत्तरी छोर (सिवान) तक हुआ। प्रकाशक (नयी आवाज प्रकाशन, डालमियानगर) को राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के गांव जिरादेई के राजेन्द्र उच्च विद्यालय से नाटक की प्रति वी.पी. से भेजने के लिए आया पत्र इस बात का दस्तावेज है, जिसमें लिखा था- ‘स्कूल का दल इस नाटक का मंचन करना चाहता है, पर पुस्तक बाजार में नहींहैÓ। पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में मैंने लिखा था- ‘एक सच्ची घटना कल्पना के ताने-बाने से ‘समाज ने क्या दियाÓ में बदल गई, जिसका कथ्य समाज को चुनौती देता, धिक्कारता है। यह आपके निकट की, परिवार-समाज की कहानी है। नाटक की पात्र कुमुद के हृदय का हाहाकार, करुण क्रंदन समाज के मर्म को छलनी करे, तभी मेरा लिखना सार्थक होगाÓ।
चार दशक पहले रंगमंच से नाटक की पात्र कुमुद ने मर्मभेदी पीड़ा का नाटकीय प्रक्षेपण कर समाज (दर्शकों) से सीधा संवाद करते हुए पूछा था-‘इस समाज ने मुझे क्या दिया, क्या दिया…, समाज ने क्या दियाÓ? चार दशकों के गुजरे समय के पन्नों को पलट कर देखने पर पाता हूं कि वह सवाल, वह समस्या आज भी बा-तल्ख खड़ी है। ‘समाज ने क्या दियाÓ में मध्यवर्गीय परिवार के जीवन की जो विडम्बना, जो ज्वलंत समस्या, अपने समय का जो सामाजिक सच लेखकीय संवेदना के साथ प्रतिबिंबित हुई है, वह युगसत्य आज भी लगभग यथावत है। इसलिए ‘समाज ने क्या दियाÓ की कथा-वस्तु की प्रासंगिकता अभी बरकरार है। भले ही रंगमंच के शिल्पांकन-संयोजन, संवाद प्रकृति, प्रस्तुति शैली, सामाजिक परिवेश में दशकों बाद क्वांटम जम्प हो चुका हो। दहेज विरोधी कानून चार दशक पहले भी था। आज भी है। मध्यवर्गीय परिवार के लिए दहेज अभिशाप तब भी था। आज भी है। ऐश्वर्य -प्रदर्शन पर अंकुश के लिए अतिथि नियंत्रण का कानून चार दशक पहले भी था। आज भी है। अंतर यह हुआ है कि पहले मध्यवर्गीय परिवार की लड़की मुखर नहींथी, समझौतापरक, नियतिवादी थी। शिक्षा का प्रसार बढ़ा तो लड़कियां मुखर हुईं। आज आर्थिक अक्षम परिवार की लड़की दहेज की वजह से बेमेल, अनचाहा विवाह-बंधन स्वीकार करने और रूढिय़ों का पत्थर अपने सीने पर रखने को तैयार नहींहै। वह विद्रोह करेगी या फिर परिवार-समाज के दबाव से अलग हो अपनी किस्मत की लकीर खुद खींचेगी। बेशक,’समाज ने क्या दियाÓ की पुरानी पृष्ठभूमि पर आज नाटक लिखना पड़े तो शीर्षक होगा-‘और उस सवाल से आगे…Ó।
– कृष्ण किसलय (लेखक : समाज ने क्या दिया)

 


उस समय के बिहार के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने की थी इस नाट्यपुस्तक की चर्चा

Daily INDIAN NATION (Patna) : BOOKS column (01.01.1978)
This play-let deals with the burning problem of dowry and succesfully depicts the havoc wrought by this evil. Theme is quite absorbing and narration captivating……
-By Pripurnanand Pandey, chief sub-editor

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दैनिक ‘प्रदीपÓ (पटना) : ‘पुस्तक परिचयÓ स्तंभ (18.12.1977)
यह रंगमंचीय नाटक अनमेल विवाह को आधार बनाकर लिखा गया है।……लेखक ने इस समस्या को चित्रित करने में सफलता पाई है।
(समीक्षक : रवीन्द्र कुमार, साहित्य सम्पादक)

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दैनिक ‘आर्यावर्तÓ (पटना) : ‘पुस्तक परिचयÓ स्तंभ (07.04.1985)
काला धन किस प्रकार इंसान को हैवान बना डालता है और उस हैवानियत की बलिवेदी पर न जाने कितने ही निरीह जनों को किस प्रकार मसल दिया जाता है, इस नाटक में इसी विषय को उजागर करने की चेष्टा लेखक ने की है। साथ ही, दहेज की कुरीति के कारण लोगों को जिस प्रकार की यातनाएं भोगनी पड़ती हैं, उन्हें भी लेखक ने अपनी कथा-वस्तु में समेटने की चेष्टा की है। आजकल के दैनन्दिन सामाजिक जीवन में ऐसी घटनाएं ्आए दिन घटती है। लेखक ने जिन समस्याओं को छूआ है, लेखक का प्रयास सराहनीय है। (समीक्षक)\

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साप्ताहिक ‘जनविक्रांतÓ (सासाराम)
‘रोहतास की साहित्य-प्रगतिÓ (जनवरी 1978)
कृष्ण किसलय ने चर्चित नाटक ‘समाज ने क्या दियाÓ में समस्याओं के जरिये समाज को झकझोरने का प्रयास किया है।….

(समीक्षक : डा. नंदकिशोर तिवारी, महासचिव, रोहतास जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन)

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मासिक ‘कृत संकल्पÓ (पटना)
…धनी-गरीब की असमान परिधियों में पल रहे लोगों की विवश दास्तान, दहेज और विवाह की समस्या, पश्चिमी सभ्यता में उड़ान भर रही नई पीढ़ी…इन्हीं समयगत सच्चाइयों को कृष्ण किसलय ने चित्रित किया है। …नाटक के लिए आवश्यक तत्व ‘सस्पेन्सÓ को कायम रखने में भी नाटककार ने सफलता पाई है।
(समीक्षक : वाल्टरभेंगरा तरुण, सम्पादक

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त्रैमासिक ‘सततÓ (हाजीपुर, वैशाली)
…नाटक समाज ने क्या दियाÓ का कथानक आधुनिक सामाजिक समयाओं पर आधारित है।…
(समीक्षक : हरे कृष्ण, सम्पादक, सतत)

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त्रैमासिक ‘नयी आवाजÓ (डालमियानगर)
दहेज की कुप्रथा पर आधारित ‘समाज ने क्या दियाÓ नाट्य जगत में स्वागतयोग्य उपलब्धि है। कथावस्तु पर मजबूत पकड़ और प्रभावकारी संवाद के साथ नाटकीय प्रस्तुति लेखन के सामथ्र्य और रंगमंच के व्यावहारिक अनुभव का परिचायक है।
-ओम-भ्रमर (नाटक लेखकद्वय), डेहरी-आन-सोन

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समाज ने क्या दिया : 43 साल बाद अपरिवर्तित मूल आंशिक प्रस्तुति

‘समाज ने क्या दियाÓ का पहली बार मंचन 1975 में अपने प्रथम स्वरूप में जयजवान संघ के रंगकर्मियों ने किया था। नाटक ने अंतरजिला लघु नाट्य प्रतियोगिता में भी पहला स्थान पाया था। नाटक-मंचन के संयोजक-सूत्रधार डा. एसपी राय, बलराम श्रीवास्तव थे और निर्देशन ललन भारती, कृष्ण किसलय ने संयुक्त रूप से किया था। रूप-सज्जा ललन भारती की थी। गजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव मंच संचालक थे। रंगमंच पर नाटक को साकार करने वाले रंगकर्मी थे- कृष्णकिसलय (प्रथम पुरस्कार), ओमप्रकाश सिन्हा (द्वितीय पुरस्कार), कृष्णनंदन उपाध्याय (तृतीय पुरस्कार), ललन भारती, रामदयाल प्रसाद, रामचंद्र सिंह, परशुराम श्रीवास्तव, हरिशंकर सहाय, भ्रमर भाई और विनय कुमार सिन्हा। साज-आवाज के साथ पाश्र्वगायन हरि शंकर सहाय और परशुराम श्रीवास्तव का था। दूसरी बार 1976 में जयजवान संघ के ही रंगकर्मियों ने मंचन किया था। 1977 में इसके प्रथम संस्करण (3 अंक, 12 दृश्य) और 1984 में द्वितीय संस्करण (4 अंक, 15 दृश्य) का प्रकाशन नयी आवाज प्रकाशन, डालमियानगर ने किया था। द्वितीय संस्करण का वितरण उज्जवल प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा किया गया था। -प्रबंध संपादक, सोनमाटी


 

अंक-एक

(कारखाना कर्मचारी दीनानाथ का घर। दीवार पर देवी-देवता की तस्वीर वाला कैलेन्डर टंगा है। एक टेबुल जग-गिलास रखा हुआ है। दीनानाथ की बीमार बीवी खाट पर खांस रही है। दीनानाथ का प्रवेश।)

दीनानाथ की बीवी : (आकर सिरहाने बैठ गए दीनानाथ से पूछती है) क्या हुआ? कुमुद की शादी की बात पटी? लड़के वाले ने क्या कहा?
दीनानाथ : नहीं, कुमुद की मां… लड़कों वालों के बोल तो बड़े-बड़े हो गए हैं। अब लड़के की ऊंची-ऊंची कीमत आंकी जा रही है।
बीवी : ओह…! अब क्या होगा?
दीनानाथ : कई लड़के वालों के पास मैंने रोया-गिड़गिड़ाया, गरीबी की दुहाई दी। …पर, किसी ने नहींसुनी। जिनके पास कुछ नहीं, वे भी दस-बीस हजार रुपये मांगते हैं। बेटा पर किए गए खर्च का एक-एक पैसा लड़के वाले को चाहिए। वे लड़के के नाम पर अनाप-शनाप फरमाइशें करते हैं। लड़के को पढ़ाने-लिखाने में खर्च की पाई-पाई वसूलना चाहते हैं। लगता है, उन्हें इस बात का अहसास ही नहींहै कि उनकी भी लड़की है, उन्हें भी लड़का ढूंढना है।
बीवी : (खांसते हुए) कैसे होगी कुमुद की शादी? शादी समय पर नहींहुई तो उसके कदम बहक सकते हैं। समाज ताने लगा रहा है कि जवान बेटी घर में रखे हुए है।
दीनानाथ : कुमुद की मां, आज धरती से इन्सानियत उठ चुकी है। पैसा के आगे आदमीयित की कोई कीमत नहींरह गई है। यह समाज तो हमारे हालात पर सहानुभूति रखने के बजाय हमारी गरीबी पर ताने कसता रहता है। पैसा के आगे मानवता की कोई मोल नहीं। कोई मोल नहीं…।
बीवी : (कैलेण्डर की तरफ देखकर) हे भगवान… .हम गरीबों का क्या होगा? गरीबों का अब तू भी सहारा नहीं रहा। बेटी देने से पहले तू मौत क्यों नहींदे देता?
दीनानाथ : …पैसे भी कहां से जमा हों? तनख्वाह के पैसों में ठीक से भरपेट खाने-पहनने-रहने को ही नहींहो पाता। पीएफ के पैसे बड़ी बेटी की शादी में ही खर्च हो गए। खेत, गहना-जेवर होता तो बेचकर कुछ इंतजाम भी होता। रिटायरमेंट के समय में जीवनभर की कमाई में से बचे-खुचे कुछ हजार रुपये मिलेंगे भी, तो तुम्हारा इलाज कराऊं या….। (रुककर) जानकी लाल के बारे में तुम्हारी क्या राय है?
बीवी : दिमाग तो नहींफिर गया है आपका? सोचा है, जानकी लाल और कुमुद की उम्र में कितना फर्क है?
दीनानाथ : काफी खाता-पीता परिवार तो है।
बीवी : जानकी लाल की पहली पत्नी के बच्चे भी हैं। कुमुद वैसे परिवार के साथ कैसे रहेगी? कैसे जी सकेगी?
दीनानाथ : बेटी को अधिक दिनों तक कुंआरा तो रखा नहींजा सकता। सामाजिक मर्यादा में बने रहने के लिए उसकी शादी तो करनी ही है? अब उसे जहर दे दें, या फिर मार डालें……। बोलो न, मैं आखिर क्या करूं?
बीवी : आप…आप… यह क्या कह रहे हैं?
दीनानाथ : मैं नहीं, गरीब की लाचारी कह रही है, कुमुद की मां। (कुछ देर मौन रहने के बाद) जानकी लाल के बारे में अगुआ बनकर जो सुखदेव प्रसाद आए थे, वह तो बता रहे थे कि जानकी लाल की उम्र बमुश्किल चालीस होगी…।
बीवी : इस वक्त के शादी-विवाह के अगुआ पक्के पेटू और धूर्त हो गए हैं। उन्हें खा-पीकर किसी की शादी करा देने से मतलब है। (खांसती है) अपनी संतान की दुर्गति देखने से पहले मुझे मौत मिल जाती! आह…पानी…!
दीनानाथ : (अपनी बीवी को पानी पिलाता है) चार साल से परेशान हूं, कुमुद की शादी के लिए। कहां-कहां नहींगया? जानकारी मिलने पर हर जगह पर दौड़ लगाई। और, हर बार, हर जगह मेरे लिए तो सूखा रेगिस्तान ही मिला। फटकारें मिलती हैं। बेटा वाला अपने यहां बैठने की शरण नहींदेता। बेटी को इसलिए पढ़ाता रहा कि योग्य लड़का मिल सके। लेकिन पैसा को पूजने वाले इस समाज में पैसे के बिना कुछ संभव नहीं। (कुछ देर खामोश रहने के बाद दीनानाथ अपनी बीवी से बेटा के बारे में पूछता है) कमलेश कहां गया है?
मां : कहींकाम की तलाश में निकला होगा। (फिर मंच पर थोड़ी देर खामोशी)
दीनानाथ : कौन ख्याल रखता है गरीबों का? किसे सहानुभूति है हम गरीबों से? (कैलेण्डर की ओर बढ़ता है) भगवान तुम तो सहारा थे हम गरीबों का… तुम अन्धे और बहरे क्यों बन गए? विधाता… (हाथ फैलाकार) जब से दुनिया बनी है, हम तुम्हारी अराधना-पूजा करते रहे हैं। तब भी तुमने हम गरीबों को भूख, दुख, लाचारी के सिवा दिया ही क्या है? मैं जीवन भर अपना हर कपड़ा सी-टांक कर पहनता रहा हूं…। रुखा-सूखा खाता रहा और कारखाना में खून-पसीना एक करता रहा। फिर भी मुझे मिला क्या? भगवान, दीन-दुखियों के नाथ, तुम इतने निर्दयी हो गए हो कि गरीबों की गोद के बच्चों को भूख से तड़पते-मरते देखते रहते हो। भगवान, तेरी शक्ति झूठी है, तू झूठा है…!
(दीनानाथ का बेटा कमलेश मंच पर प्रवेश करता है)
दीनानाथ : क्या बेटा, कही बात बनी?
कमलेश : नहीं, बाबूजी। किताबों में पढ़ता था, जिन्दगी जीने के लिए होती है। लेकिन हकीकत में जिन्दगी तो एडिय़ा रगड़-रगड़ कर मर जाने के लिए है। पढ़ता था, गरीब होने से क्या होता है, आदमी में हिम्मत, लगन होनी चाहिए। लेकिन हौसला, हिम्मत अब कहां से लाऊं? कई साल हो गए बीएएस किए हुए, कितना प्रयास कर चुका, मेरे लायक कोई नौकरी नहींमिल रही। कई बार तो इन्टरव्यू देने जाने के लिए पैसे नहींहोते। पढऩे-लिखने के बावजूद शायद मेरी किस्मत में भी आपकी ही तरह मजदूर की जिंदगी लिखी है। दरअसल गरीब होना ही गुनाह है बाबूजी, जिसकी सजा है उम्र भर सिसकन, तड़पन। (कुछ पल खामोश रहने के बाद) बाबूजी, कुमुद की शादी की बात कहींपटी?
दीनानाथ : नहीं, बेटा। (फिर कुछ देर चुप्पी) जानकी लाल के बारे में तुम्हारी राय क्या है?
कमलेश : कौन जानकी लाल? कुमुद की शादी का प्रस्ताव लेकर जिसके बारे में सुखदेव प्रसाद आए थे, वही?
दीनानाथ : हां। सुखदेव प्रसाद तो यह कह रहे थे कि परिवार ठीक-ठाक है। काफी खाता-पीता है। दहेज वगैरह कुछ नहींदेना है।
कमलेश : आप पागल तो नहींहो गए हैं? सोचिए, कहां कुमुद की उम्र और कहां विधुर जानकी लाल की उम्र? कहां कई बच्चों के पिता जानकी लाल और कहां जीवन का खुशनुमा सपना संजोकर रखने वाली हमारी कुमुद! नहीं-नहीं, कुमुद की शादी वहां नहींहोगी।
दीनानाथ : लाचारी है, बेटा। कुमुद के भाग्य में जो लिखा होगा, उसे यह निर्धन बाप कैसे टाल सकता है? समय पर शादी नहींहोने से हमने कितनी ही लड़कियों को सामाजिक सीमा लांघते देखा है। कमलेश, क्या तुम भी अपनी बहन को…..?
कमलेश : ऐसा न कहिए, बाबूजी, ऐसा न कहिए।
दीनानाथ : तब बोलो, बेटा… हम क्या कर सकते हैं? इन शब्दों को बोलते हुए कैसा वज्राघात बरसों की लालसा संजोए मेेरे इस हृदय में हो रहा है, वह मैं ही जानता हूं। बेटा, संसार में दो ही हारते हैं, कर्ज खाने वाला और कुंवारी बेटी का गरीब पिता।
(मंच पर कुमुद का प्रवेश। रुआंसा दीनानाथ वहां से निकल जाता है। कमलेश बहन से पानी मांगता है)
कमलेश : एक गिलास पानी देना, कुमुद।
कुमुद :अच्छा भइया (पानी लाने जाती है)
कमलेश : ( वह मंच के कोने में जाता है और अपने-आप से संवाद करता है) मुझे इस जन्म में नौकरी नहीं मिलेगी। बीमार मां, जवान बहन, बूढ़े हो गए बाबूजी की नौकरी अब खत्म ही होने वाली है। जिंदगी की नाव कैसे पार लगेगी?
(वह टेबुल के सामने पड़ी कुर्सी पर निढाल मुद्रा में बैठता है। वहां उसे किताबों के बीच एक लिफाफा दिखता है, जिसे देख अपने-आप से सवाल करता है) यह क्या है? (लिफाफे के भीतर चिट्ठी होती है, जिसे वह पढ़ता है) प्रिय राजेश……हमारा प्रेम इतना गहरा हो चला है कि तुम्हारे बिना न मैं नजर आती हूं और मेरे बिना न तुम। तुमने सवाल किया है- क्या शादी का बंधन ही साथ जीने का, प्रेम का बंधन है? क्या बगैर विवाह प्यार का संबंध जीवन से नहींहै? मेरा जवाब है- बेशक प्रेम दो हृदयों का बंधन है। और, शादी कानून का बंधन है। मगर हृदय के इस बंधन को मजबूत बनाने के लिए कानून की सहमति जरूरी है। चाहे वह समाज के कानून का हो, चाहे सरकार के कानून का। तुम्हारी कुमुद। (चिट्ठी पढ़कर कमलेश तिलमिलाता है। कुमुद पानी लेकर प्रवेश करती है)
कमलेश : यह क्या है, कुमुद? (चिट्ठी दिखाते हुए क्रोध से पूछता है। कुमुद बोलना चाहती है, पर उसके हाथ से पानी का गिलास छूट जाता है) एक भाई बर्दाश्त नहींकर सकता कि बहन परिवार-समाज की मर्यादा को लांघ कर इज्जत डुबाने की चेष्टा करे।
कुमुद : मुझे गलत मत समझिए, भइया। राजेश से मेरा संबंध सिर्फ भावनाओं तक ही सीमित है।
कमलेश : राजेश तुम्हें धोखा दे रहा है, कुमुद। इस मतलबी समाज में कंगाल से लखपति की शादी करने की बात पर भरोसा नहींकिया जा सकता।
कुमुद : नहीं, भइया।
कमलेश : यह उम्र की आवाज है। इस उम्र में प्रेम करने वाले यही सोचते-कहते हैं। कुमुद, भावनाओं के अधिक लगाव से, अधिक स्नेह से हृदय इतना ज्यादा चिकना भी हो जाता है कि आदमी संबंध की राह में फिसल सकता है।
कुमुद : आपको अपनी इस बहन पर भरोसा करना चाहिए, भइया।
कमलेश : (आवेश पर नियंत्रण करते हुए) अपनी समझदार बहन पर भला भाई को भरोसा कैसे नहींहोगा! फिर भी कुमुद, जालसाज जमाने में आदर्श और सिद्धांत को गिरते-टूटते देर नहींलगती। अच्छा यही है कि तुम राजेश से मिलना-जुलना खत्म कर दो। मैं तुम्हें भाई होने के नाते सावधान कर रहा हूं।
कुमुद : मैं राजेश से अचानक मुंह कैसे छुपा लूं,भइया?
कमलेश : इस उम्र की मुहब्बत एक आवेग है, जोश है, उन्माद मात्र है। आवेग खत्म होने के बाद अंधेरे के सिवा कुछ हाथ नहींलगता। क्या रेड़ का पेड़ कभी भी ताड़ का मुकाबला कर सकता है? तुम्हें ठंडे मन से, पूरी गंभीरता से सोचना चाहिए कि तुम क्या हो और राजेश क्या है?
कुमुद : ऐसा नहींकहिए, भइया। सलीम भी एक बादशाह का बेटा था और अनारकली गांव की गरीब लड़की। फिर भी दोनों मुहब्बत के तराजू के पलड़े में बराबर रहे। जमाना चाहे जो कहता रहा हो, पर सच यही है कि बादशाह की बेशुमार दौलत को, उसकी बेपनाह ताकत को उनकी मुहब्बत के सामने झुकना पड़ा था, भइया…।
कमलेश : लेकिन, सलीम को बादशाह से लडऩा पड़ा था। हो सकता है, राजेश तुम्हारे लिए अपने पिता से लड़े ही नहीं।या फिर, लड़े भी तो हार जाए। कभी भी कोई भाई यह नहींचाह सकता कि उसकी बहन की जिन्दगी बर्बाद हो। संबंध में चाहे धोखा मिले या नहींलांघी जा सकने वाली कोई दीवार खड़ी हो जाए, दोनों हालत में प्रेम करने वाले ही घोर कष्ट के भागी बनते हैं। इसलिए तुम ऊंचे ख्वाब की, आसमान में छलांग लगाने की जिद छोड़ दो, कुमुद।
कुमुद : भइया….।
कमलेश : मैं ठीक कह रहा हूं, कुमुद। मैं तुम्हारा भाई हूं, दुश्मन नहीं। (कुमुद निरुत्तर हो जाती है)
(पर्दा गिरता है। दृश्य परिवर्तन।)

 

अंक-दो
(सेठ धनपत लाल का बंगला। धनपत लाल ड्राइंग रूम में अखबार पढ़ रहा है। धनपत लाल के मित्र की बेेटी रजनी का प्रवेश।)

रजनी : गुड मार्निंग, अंकल।
धनपत लाल : गुड मार्निंग, बेटी। किधर चली हो?
रजनी : हां, अंकल। सोचा, चाची जी से मिल आऊं, कई दिनों से आ नहींसकी थी। राजेश कहां है, चाचा जी? उससे कालेज में भी मुलाकात नहींहो सकी।
धनपत लाल : उसे मत पूछो। इन दिनों किताबी कीड़ा बना बैठा है। आजकल कालेज के अलावा घूमना-फिरना, घर से निकलना बंद कर रखा है।
रजनी : ठीक तो है, कोई तो पढऩे में जीनियस निकले।
धनपत लाल : रजनी, तुम्हारे रिजल्ट का क्या हुआ?
रजनी : जी, हिन्दी में क्रास लग गई।
धनपत लाल : ओह भाई, हिन्दी तो आफत है। भला यह भी कोई भाषा है, जिसकी देश के ऊंचे कारोबार में कोई कीमत नहीं, हाई सोसायटी में कोई पूछ नहीं। फिर भी इन दिनों देखने-सुनने को मिल रहा है कि कई लोग हिन्दी को देश ही नहीं, विश्वस्तर की भाषा बनाने के अभियान में जी-जान से जुटे हुए हैं।
(मंच पर राजेश प्रवेश करता है)
राजेश : इसलिए कि संसार की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी का स्थान चौथा है। इसलिए कि हिन्दी भाषा की लिपि कई भाषाओं की सहायक लिपि हो सकती है। और, इसलिए भी कि हिंदी एक कर्णप्रिय भाषा है।
धनपत लाल : अंग्रेजी सीखने में जितनी आसान है, हिन्दी तो उतनी ही कठिन है।
राजेश : यह विश्वास मन में बैठा लेना अज्ञानता है। ऐसा कहने वाले, हिन्दी नहीं बोल अंग्रेजी बोलने वाले अपने को विदेशी संस्कृति का पिछलग्गू ही साबित कर रहे हैं। यह सोचने की बात है कि क्या हम अंग्रेजी बोलकर और हिन्दी की उपेक्षा कर देश की एकता को मजबूत बना सकते हैं? क्या हम अपनी समृद्ध भारतीय संस्कृति की परंपरा को विदेशी भाषा के जरिये आगे बढ़ा सकते हैं?
रजनी : राजेश, तुम किस आधार पर कहते हो कि हिन्दी आसान और अच्छी है?
राजेश : तुम किस आधार पर कहती हो कि अंग्रेजी आसान है? मनोविज्ञान के लिए अंग्रेजी शब्द है साइकोलाजी, जो अंग्रेजी के पी अक्षर से शुरू होती है और उसे पढ़ा जाता है साइ। इसी तरह अंग्रेजी के अनेक शब्द बोले अलग तरह से और लिखे अलग तरह से जातेहैं। जबकि हिन्दी के शब्द जैसे बोले जाते हैं, वैसे ही लिखे भी जाते हैं। बहुत लोग हैं ऐसे, जिन्हें अंग्रेजी ठीक तरीके से आती नहीं, मगर वह अंग्रेजी ही बोलकर आधुनिक और हाई सोसायटी वाले होने का दबदबा बनाना चाहते हैं। जबकि अपना परिवेश, अपनी भावना को अपनी मातृभाषा में ही बेहतर तरीके से अभिव्यक्त किया जा सकता है। हां, दूसरी भाषा को जानना-सीखना अच्छी बात है और दुनिया के ज्ञान के विस्तार का तरीका भी यही है।
धनपत लाल : ओफ्फो! तुम दोनों कहां उलझ गए? सच यही है कि अंग्रेजी दुनिया में विभिन्न सभ्यताओं से संपर्क की और कारोबार की व्यावहारिक भाषा है। अंग्रेजी में हर साल चार हजार किताबें हिन्दुस्तान में ही छपती हैं। (रजनी से) जाओ बेटी, अपनी चाची से मिल लो, वह तुम्हें कई दिनों से याद कर रही हैं। (रजनी के मंच की दूसरी ओर अर्थात घर के भीतर प्रवेश कर जाने के बाद) राजेश, तुम भी फालतू में उसे चिढ़ाते रहते हो। क्या तुम दोनों जिंदगी भर यूं ही झगड़ते रहोगे? शादी के बाद तुम दोनों की कैसे पटेगी?
राजेश : पिताजी, मेरी शादी मेरी जिंदगी के सवाल से जुड़ा हुआ है। इस पर आपको अच्छी तरह विचार करना चाहिए। इस मामले में मेरी भी इच्छा का ख्याल होना चाहिए। मुझ पर किसी की आकांक्षा बलात नहींलादी जानी चाहिए। मैं अपने जीवन साथी के रूप में किसी और का चुनाव करना चाहता हूं, पिताजी।
धनपत लाल : क्या बकवास करते हो? रजनी से तुम्हारी शादी की बात तुम्हारे परिवार और उसके परिवार के बीच बहुत पहले तय की जा चुकी है। हमने रजनी के परिवार को यह वचन दे रखा है कि वही हमारे घर की बहू बनेगी।
राजेश : लेकिन पिता जी, मैंने भी कुमुद को उससे शादी करने का वचन दिया है।
धनपत लाल : क्या बकवास है? कैसा वचन? कौन कुमुद? वही लड़की, सिमटी-सिकुड़ी सी, जो कुछ दिन पहले कालेज में रजनी के साथ मिली थी?
राजेश : हां, पिता जी। वह नेक और शालीन लड़की है।
धनपत लाल : असंभव, एकदम असंभव। तुम्हारी शादी कुमुद से नहीं, रजनी से होगी। मैं बर्दाश्त नहींकर सकता कि मेरी बनी-बनाई खानदानी इज्जत तुम मिट्टी में मिला दो।
राजेश : पिताजी, इज्जत छोटी और बड़ी नहींहोती। कुमुद का परिवार गरीब है तो क्या, उसकी इज्जत नहीं है?
धनपत लाल : मजदूर की इज्जत मजदूरों की ही दुनिया में शोभा देती है, मालिक के घर नहीं। रजनी के पिता खानदानी है। उनसे लाखों की संपत्ति हमें मिल सकती है। और, कुमुद के घर से तुम्हें क्या मिलेगा? दुख, भूख, गरीबी की नारकीय जीवन के अलावा वहां से तुम्हें कुछ भी हासिल नहींहोने वाला, राजेश।
राजेश : लाखों की संपत्ति जीवन भर नहींठहर सकती। पर, एक समझदार, जिम्मेदार, शालीन बहू वह सुख दे सकती है, जिसके लिए पिता की उम्मीदें उसके पुत्र से जुड़ी होती हैं, जिसके आधार की नींव पर ही एक पिता अपने परिवार के भवन को टिकाए रखने की कामना रखता है।
धनपत लाल : तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। तुम अपने परिवार के खानदानी रुतबे को गर्क में मिला देना चाहते हो।
राजेश : जरा ठंडे दिमाग से सोचिए पिताजी, मुझे भी अपनी जिंदगी के बारे में फैसला लेने का हक है।
धनपत लाल : तो ठीक है, कान खोलकर यह भी सुन लो। तुम्हें अपने मन की ही करनी है तो मेरी कमाई की फूटी कौड़ी भी तुम्हें नहींमिलेगा।
राजेश : आपको बेटा से नहीं, पैसा से प्यार है, पिताजी।
धनपत लाल : मूर्ख! पैसा बुुद्धि की उपज है और प्रेम हृदय की। बुद्धि से ही दुनिया चलती है, दिल से नहीं। दिमाग से सोचो। सोचो कि तुम क्या करना चाहते हो?
राजेश : हृदय के बिना बुुुद्धिमान आदमी मशीन होता है। और, वह राक्षस भी हो सकता है।
धनपत लाल : अगर पैसा नहीं होता तो तुम नाली साफ करने वाले होते। पेट पालने के चक्कर में दर-दर घूम रहे होते। ठंडे दिमाग से विचार करो। शांत मन से सोचो। यह सब तुम नहीं, कोई और बोल रहा है। वह बोल रहा है, जिसका नशा तुम्हारे ऊपर चढ़ा हुआ है। वह रोग बोल रहा है, जिसने मजनूं को पागल बना दिया था, फरहाद को पहाड़ खोदने पर मजबूर किया था। फिर भी शीरी-फरहाद, लैला-मजनूं एक नहींहो सके। आखिर क्यों? क्योंकि समाज बहुत बड़ी चीज है, इसका अनुशासन है। समाज के ढांचे से अलग व्यक्ति का कुछ भी अस्तित्व नहीं है।
राजेश : इस समाज का ढांचा तैयार किया किसने? किसने किलाबंद बनाया इसे? आदमी और आदमी के बीच सीमा-रेखा खींची किसने? अमीर-गरीब, ऊंच-नीच बनाया किसने? आप जैसे ही लोगों ने।
धनपत लाल : आदमी सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग उसकी कोई हैसियत नहीं। इसीलिए समाज के कुछ वसूल होते हैं, जिन्हें आदमी को मानना पड़ता है, उस पर चलना पड़ता है। (कुछ देर खामोश रहने के बाद) आवेश में न आओ, बेटा। मैंने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ी हसरत से बड़ा किया है। क्या इस नाते भी तुम पर मेरा इतना अधिकार नहींकि तुम्हारी बेहतरी के लिए, तुम्हारे सुखी जीवन के लिए फैसला ले सकूं। मैं आज तक तुम्हारी बात मानता रहा हूं। आज बाप कुछ मांगना चाहता है तो क्या बेटा दुत्कार देगा?
(राजेश निरुत्तर हो जाता है। वह बेचैन मंच पर टहलने लगता है। पर्दे के पीछे से कुमुद का चेहरा उभरता है। उसके लिखे शब्द उसे याद आते हैं) प्रिय राजेश…, पिताजी ने तुम्हें जन्म दिया है। जिन हाथों से तुम्हें पाला-पोसा है, उसी हाथों से कुछ मांगना चाहें तो क्या तुम दुत्कार दोगे? जो हृदय तुम्हारी बीमारी और विपत्तियों में तुम्हें अपने से चिपकाए रखा, क्या उसकी प्रिय इच्छा को ठुकरा दोगे, उसका गला घोंट दोगे? (राजेश के चेहरे पर पसीना चुहचुहा आता है)
धनपत लाल : बोलो बेटा, बोलो…एक बाप एक बेटे से उसकी खुशी के लिए ही वचन चाहता है तो क्या बेटा बाप को दुत्कार देगा?
राजेश : मैं कुमुद के बिना पंगु नजर आता हूं, पिताजी। प्रेम से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं, कोई और कलाकार नहीं, जो जीवन-वीणा में मीठे झंकार का संचार सके।
धनपत लाल : अभी तुम्हारी उम्र भावनाओं और आवेगों के तूफान की है। हम भी उम्र की इस झंझावत से गुजर चुके हैं। हमेशा यह याद रखो कि गलत कलाकार से मीठा नहीं, कर्कश संगीत पैदा होता है। याद रखो कि गुलदस्ते में महक ताजा फूल ही ला सकता है, मुरझाया फूल नहीं।
(राजेश के दोस्त संजय का प्रवेश। धनपत लाल सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगता है)
संजय : हां, राजेश। चाचाजी ठीक कह रहे हैं। मुरझाया हुआ फूल जिंदगी के गुलदस्ते में खुशबू नहीं भर सकता। खुदा ऊपर है, कुमुद गरीबी में मुरझा गई फूल है। मित्र, वह तुम्हारे जीवन में महक नहींबिखेर सकती।
राजेश : यह तुम कह रहे हो, संजय?
संजय : हां मित्र, खुदा ऊपर है, हम अपने मां-बाप से बगावत नहींकर सकते।
राजेश : अपने पूर्वजों द्वारा खोदे गए कुएं का खारा पानी पीना ही क्या जिंदगी का सच होता है? समाज का बेरहम कायदा होता है?
संजय : हां, मित्र, जिंदगी का माप-दंड अपने परिवार, अपने परिवेश और अपने समाज पर निर्भर होता है। हमें इस रवायत पर ही भरोसा करना होगा और बनाई गई लीक पर ही चलना होगा। कुमुद से शादी करने के बाद रिश्तेदार और समाज के लोग जब तुम पर पत्थर उछालेंगे तो तुम्हारे आदर्श का महल टूट-टूट कर बिखर जाएगा। जब-जब तुम्हारी उपेक्षा होगी, तुम्हें दुत्कार मिलेगा, तब-तब तुम्हारी आत्मा चिल्ला-चिल्ला कर कहेगी, एक गरीब के चलते अमीरों के समाज में नाक कट रही है। तब तुम… खुदा ऊपर है, कुमुद को दूध की मक्खी की तरह जीवन से अलग कर देना पसंद करोगे। अच्छा हो मित्र, कम-से-कम कुमुद के जीवन से यह जुआ मत खेलो।

राजेश : ऐसे समाज, ऐसे परिवेश, ऐसे विचार की जेल में तो आदमी पालूत जानवर की तरह होता है। ऐसे सामाजिक ढांचे की नींव में पड़े पत्थर खुशहाल, बेहतर जीवन की बुनियाद नहींहैं।
धनपत लाल : बेहतरी की बुनियाद नहींहोते तो नींव के वे पत्थर कभी के खत्म हो गए होते और समाज फिर से जंगल में तब्दील हो गया होता। हम बुजुर्ग, तुमसे से अधिक अनुभवी हैं, अच्छी तरह जानते हैं कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है? इज्जत और शान-गौरव ही आदमी की बड़ी पूंजी हैं। खानदानी इज्जत को मिट्टी में मिलाने का तुम्हें कोई हक नहींहै। मैं तुम्हें ऐसा करने की इजाजत कभी नहींदूंगा। राजेश, तुम भूल जाओ, पीछे की अपनी जिंदगी को। जो कह रहा हूं, वह तुम्हारे ही भले के लिए है।
(धनपत लाल प्रस्थान कर जाता है)
संजय : मित्र, खुदा ऊपर है, हर समय जिंदगी में मनचाही नहींमिलती। हमें अपने समाज में रहना है, अपने परिवार के साथ ही रहना है। इसके खिलाफ विद्रोह करोगे तो यह जीना हराम कर देगा।
राजेश : संजय, मैं कुमुद से क्या कहूंगा? उसे क्या जवाब दूंगा? उसका सामना कैसे करूंगा? उसे कैसे अपना मुंह दिखाऊंगा? मैं क्या करूं? अब जिंदगी में मुझे चैन कैसे मिलेगी?
संजय : राजेश, अभी कुछ नहींबिगड़ा है। वही करना होगा, जो तुम्हारे पिता कह रहे हैं। कुमुद नहीं, तुम्हें रजनी से ही शादी करनी होगी। वर्ना, खुदा ऊपर है, तुम कहीं के नहींरहोगे।
राजेश : ओह… पानी… मुझे पानी दो, संजय।
(पर्दा गिरता है। दृश्य परिवर्तन।)

 

अंक-तीन
(कुमुद की शादी उम्रदराज जानकी लाल हो जाती है, जो शराबी भी है। वह जानकी लाल के घर में है। मंच पर एक ओर टेबुल पर शराब की बोतल, गिलास रखी हुई है। मंच की दूसरी ओर कुमुद देवता की मूर्ति के सामने बैठी सिसक रही है।)

कुमुद : भगवान, बोल भगवान, जवाब दे। मेरे साथ बेइन्साफी क्यों हुई? क्या यही इन्साफ है कि एक जवान लड़की बाप की उम्र के मर्द के साथ जिंदगी गुजारने के लिए लाचार हो? क्या यह उचित है? यही समाज का न्याय है कि परिस्थिति की विवशता में मेरी जैसी लड़कियां जहर खाने और आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाएं?
(नशे में धुत् जानकी लाल का लडख़ड़ाते हुए प्रवेश)
जानकी लाल : तुम्हारा भगवान वह मूर्ति नहीं, मैं हूं। एक स्त्री के लिए पति के सिवा कोई दूसरा भगवान नहीं होता। पत्नी का सुहाग उसका जीवन होता है। क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारा सुहाग उजड़ जाए?
कुमुद : (झटके से उठती और कातर स्वर में कहती है) नहीं…ऐसा मत कहो।
जानकी लाल : बहुत खूब… समाज के कायदे के मुताबिक तुम्हें अब पति-व्रता धर्म तो निभाना ही पड़ेगा।
कुमुद : (बिफरते हुए) इस समाज में पत्नी-व्रता धर्म है भी या नहीं? पति को तो कुछ भी करने की आजादी हो, मगर पत्नी चुपचाप सब सहे? आखिरी नारी पर ही यह अत्याचार क्यों?
जानकी लाल : क्योंकि, जैसा समाज होता है, वैसा ही करना पड़ता है। और, जैसा समाज होता है, वैसा ही धर्म भी होता है।
कुमुद : इस उम्र में मुझसे शादी कर तुमने धर्म का कौन-सा काम किया है?
जानकी लाल : बेटी का ब्याह किसी भी बाप के लिए बड़ी बोझ होती है। मैंने इस बोझ को उठाने का काम किया है, तो क्या यह काम कम है?
कुमुद : बेटी की उम्र वाली लड़की के साथ?
जानकी लाल : फालतू बातें बंद करो। यह सब अपने मां-बाप से पूछो, अपने समाज से पूछो। मुझसे पूछने नहीं, मेरी मानने आई हो।
कुमुद : पत्नी होने के नाते मुझे भी तुमसे पूछने और जानने का अधिकार है। मैं पूछना चाहती हंू, क्या तुम्हारी ढलती उम्र एक नौजवान लड़की को वह सब सुख दे सकती है, जिसके लिए वह अपने नारीत्व को शादी होने तक बड़ी हिफाजत से संभाल कर रखती है?
जानकी लाल : कोई सुख मिले या नहीं, फिर भी तुम्हें एक पति मिला है, जो तुम्हारी जीविका चलाएगा। और, जिससे तुम्हें इस समाज में मान भी मिलेगा।
कुमुद : क्या स्त्री जाति इतनी अस्मिताहीन हो चुकी है कि उसकी इच्छा, आकांक्षा का मूल्य सिर्फ भोजन और कपड़ा है। जब मेरा नारीत्व तुम्हारी सूखी हड्डियों से तृप्त नहींहोगा, बोलो, तब मैं क्या करूंगी?
जानकी लाल : (हंसता है) परोक्ष या अपरोक्ष रूप से गणिका-वृत्ति। इसका जिम्मेदार मैं नहीं, यह समाज है। मैंने तो इस समाज द्वारा बनाए गए कायदे की आड़ लेकर लाभ लेने का काम किया है। अब तुम अपने ही उम्र के लड़के की न चाहते हुए मां कहलाओगी और यह विडम्बना तुम्हें जीवन भर झेलनी होगी? मेरी हर इच्छा, सुविधा का तुम्हें पूरा-पूरा ख्याल रखना होगा। यह तो समाज का काम था कि वह पारदर्शी, समदर्शी नियम बनाए। मेरे जैसे लोग तो मौके का फायदा उठाएंगे ही। (शराब पीता है)
कुमुद : मैं क्यों ध्यान रखूंगी तुम्हारी हर सुख-सुविधा का, तुम्हारी इच्छाओं का? जब तुम्हारा प्रवेश ही मेरे जीवन में मेरी इच्छा के विपरीत हुआ है? अब तो तुम्हारी उपेक्षा ही तुम्हारे किए का दंड होगा।
जानकी लाल : (ठठाकर हंसते हुए) यह जो तुम्हारे गले में लटका कच्चे धागे का मंगलसूत्र है न, यह इस समाज और इसके धर्म की पक्की हथकड़ी है। अब तुम इसकी कैद में हो, इसकी लक्ष्मणरेखा के भीतर हो। समाज इसे ही पवित्र बंधन मानता है। अब पत्नी-व्रता धर्म के विधान को तुम्हें हर हाल में धारण करना होगा, स्वीकार करना होगा, पालन करना होगा और उसके अनुरूप जीवन जीना होगा।
कुमुद : कैसा है पवित्र कहलाने वला और पवित्र माना जाने वाला यह धर्म? इसका विधान बनाने वालों को, तुम जैसे को अधिकार देने वालों को, लाज क्यों नहींआई? मैं पूछती हूं, धर्म अपने ही जीवन को अपनी इच्छा से जीने के लिए होता है या घुट-घुट कर मरने के लिए? जब आदमी का अपना जीवन ही नहीं, उसकी अपनी आजादी ही नहीं, तब धर्म कैसा, समाज कैसा, उसके कायदे कैसे?
जानकी लाल : धर्म सिर्फ निभाने के लिए होता है। सच यही है कि धर्म का फंदा अब तुम्हारे गले से निकलने वाला नहीं। (हंसता है) कुमुद, जब तक जिन्दा रहूंगा, तब तक यह फंदा, यह मंगलसूत्र मेरी अठखेलियों के लिए रक्षा-कवच बना रहेगा। जो कुछ भी पाने के लिए अपने पिता के घर से यहां आई हो, उसे पाने के लिए तुम्हें मेरी शर्तों को मानना होगा। आओ…मेरे करीब आओ…मेरी प्यारी कुमुद… मेरी खाली पड़े प्याले में, हसीन साकी बनकर शराब ढालो…। (कुमुद सिसकते हुए शराब ढालकर जानकी लाल को थमाती है) यह बात हुई। (जानकी लाल गिलास खाली करने के बाद कुमुद का पकड़ लेता है। कुमुद छुड़ाना चाहती है) सचमुच, तुम्हार जोड़ नहीं। मैंने सुना है, ईश्वर ने तुम्हें कोयल-सा कंठ दिया है। गाओ, गाओ, राग रानी। इस काली रात में ऐसा नगमा छेड़ो कि आसमान के सोये हुए सितारे जाग उठें। चांद, तारे मदहोश होकर झूम उठें। (जानकी लाल कुमुद की कलाई को झटका देता है। कुमुद नीचे गिरती है)
कुमुद : (सिसकियों के साथ अपना चेहरा धीरे-धीरे ऊपर उठाते हुए गाना शुरू करती है) अश्कों में यूं बह रहे मेरे अरमानों के गुलशन, जलकर खाक हो गए मेरे दिल के ऊंचे ताजमहल…।
जानकी लाल : (ठठाकर हंसता है और खांसने लगता है) आह, आह…सीने में दर्द का दौरा आज फिर उखड़ आया है…आंखों के सामने अंधेरा क्यों छा रहा है? आह-आह… लगता है… मेेरे जीवन का अंतिम क्षण आ गया। वो… वो देखो, देखो…आसमान में कोई खड़ा है… आह…मैं, मैं साफ देख रहा हूं, देखो, वहां देखो, मेरी आंखों के सामने कालपाश लिए कालदूत खड़ा है। (खांसता है) आह… आज यह दौरा तो मेरी जान लेकर ही रहेगा।
कुमुद : ऐसा मत कहो, भगवान के लिए ऐसा मत कहो। (जानकी लाल के मुंह पर हथेली रखती है) नहीं, नहीं, तुम्हें कुछ नहींहुआ है।
जानकी लाल : आह… बिछावन पर ले चलो… मुझे सहारा दो… जीवन की दीपशिखा बुझने से पहले भभक रही थी। आ गई… मेरी मौत मेरे करीब आ गई…यह देखो, मेरे गले में फांसी का फंदा।
(जानकी लाल गिरता है। कुमुद जानकी लाल को झिंझोड़ती है। वह मर चुका होता है। कुमुद लाश पर सिर पटकती है)
कुमुद : नहीं, नहीं, नहीं… मैं विधवा नहींहो सकती। भगवान, तुमने तो पति के घर से भी मेरा नाता तुड़वा दिया। मुझ दुखियारिन का अब कौन सहारा होगा? मैं सुहागिन होने का मर्म जानने से पहले ही विधवा हो गई, विधवा हो गई, विधवा हो गई। (लाश पर सिर पटकती है। धीरे-धीरे सिर उठाती है। लाल सूर्ख आंखें, खुले ओठ, कलाइयां सामने ताने हुए विक्षिप्त मुद्रा में खड़ी होती और दर्शकों की ओर आगे बढ़ती है) ये, ये…चुडिय़ां पहले भी नहींशोभती थी (कलाई पर कलाई टकराकर चुडिय़ां फोड़ती हैं) यह सिन्दूर, यह बनाव, यह श्रृंगार अब किसके लिए? क्या-क्या…. क्या अब मैं जीवन में कभी सज-धज नहीं सकती? आशाओं के फल लगने से पहले ही मेरे अरमानों के फूल क्यों झड़ गए। क्यों, क्यों, आखिर क्यों? कौन जिम्मेदार है मेरे अंजाम का? यह, यह…समाज, हां, यही समाज, समाज ने मुझे क्या दिया, इस समाज ने मुझे क्या दिया, क्या दिया……???
(मूर्छित हो गिरती है। पर्दा गिरता है, नाटक समाप्त।)

(तस्वीर : समाज ने क्या दिया का कवर और 1977 में प्रकाशित इसके लेखक किसलय की तस्वीर)

(यह अंश पुस्तक के प्रथम संस्करण से, प्रकाशनाधिकार सुषमा सिन्हा)

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