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नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री का पूजन होता है। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। शैल का अर्थ है पत्थर या पहाड़। मिट्टी(पत्थर), जल, वायु, अग्नि व आकाश इन पंच तत्वों पर ही निर्भर रहने वाले जीव शैल पुत्री का प्रथम रूप हैं। भगवती का वाहन वृषभ (बैल) है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का फूल है। साथ ही इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक माना जाता है।
नवरात्रि के दूसरे दिन यानि दूसरा स्वरूप मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। मां दुर्गा का यह स्वरूप ज्योर्तिमय है। देवी ब्रह्मचारिणी साक्षात ब्रह्म का स्वरूप है अर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप है। ब्रह्म का मतलब तपस्या होता है, तो वहीं चारिणी का मतलब आचरण करने वाली। इस तरह ब्रह्माचारिणी का अर्थ है- तप का आचरण करने वाली देवी। ब्रह्मा की इच्छाशक्ति और तपस्विनी का आचरण करने वाली मां । इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है।मां ब्रह्माचारिणी के दाहिने हाथ में मंत्र जपने की माला और बाएं में कमंडल है। जड़(अपरा) में ज्ञान(परा) का प्रस्फुरण के पश्चात चेतना का वृहत संचार भगवती का दूसरा रूप है। यह जड़ चेतन का जटिल संयोग है। सैंकड़ों वर्षों तक पीपल और बरगद जैसे अनेक बड़े वृक्ष ब्रह्मचर्य धारण करने के स्वरूप में ही स्थित होते है।
नवरात्र के तीसरे दिन दुर्गाजी के तीसरे रूप चंद्रघंटा देवी के वंदन, पूजन और स्तवन करने का विधान है। इन देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का अर्ध चंदंमा विराजमान है इसीलिये इनका नाम चंद्रघंटा पड़ा। इस देवी के दस हाथ हैं और ये खड्ग आदि विभिन्न अस्त्र और शस्त्र से सुसज्जित हैं। सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घण्टे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। भगवती का तीसरा रूप ही है जो जीव में आवाज (वाणी) तथा दृश्य ग्रहण व प्रकट करने की क्षमता है। जिसकी अंतिम परिणिति मनुष्य में बैखरी (वाणी) है।
नवरात्रि के चौथे दिन देवी दुर्गा के कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है, जिनकी साधना करने पर साधक के जीवन से जुड़े सभी कष्ट दूर और कामनाएं पूरी होती हैं। अपनी मन्द, हल्की हँसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्माण्डा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में स्थित है। सूर्य लोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। देवी की आठ भुजाएँ होने के कारण अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्माण्ड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्माण्डा। कूष्माण्डा- अर्थात अण्डे को धारण करने वाली; स्त्री और पुरुष की गर्भधारण, गर्भाधान शक्ति है। मनुष्य योनि में स्त्री और पुरुष के मध्य इक्षण के समय मंद हंसी(कूष्माण्डा देवी का स्व भाव) के परिणाम स्वरूप जो आकर्षण और प्रेम का भाव उठता है वो भगवती की ही शक्ति है। इनके प्रभाव को समस्त प्राणीमात्र में देखा जा सकता है।
माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनकी चार भुजाएँ हैं। दायीं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। माँ के बाँयी तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है।
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होते हैं। कालरात्रि अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इस देवी के तीन नेत्र हैं, जो ब्रह्माण्ड के समान गोल हैं। इनकी साँसों से अग्नि निकलती रहती है। यह गर्दभ की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। देवी कालरात्रि जिससे सब जड़ चेतन मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अपरा और परा विभक्त हो जातें है। मन की मृत्यु के समय सब प्राणियों को इस स्वरूप का अनुभव होता है। भगवती के इन सात स्वरूपों के दर्शन सबको प्रत्यक्ष सुलभ होते हैं परन्तु आठवां ओर नौवां स्वरूप परा प्रकृति होने के कारण सुलभ नहीं है।