=० स्मृतियों का झरोखा ०=
दिल्ली से सोनमाटीडाकाम के लिए
शिक्षण-लेखन का कार्य करने वाले कौशलेन्द्र प्रपन्न ने इस संस्मरणात्मक लेख में अपने शहर
डेहरी-आन-सोन (बिहार) में किशोर उम्र तक गुजरे वक्त की अपनी यादें ताजी की हैं।
मेरे जेहन में ऊंची-ऊंची चिमनियों से लगातार निकलता धुआं और मिनी सागर जैसा दिखने वाला सोन नद की पानी के रेले से प्रकंपित चौड़ी छाती आज भी जीवंत है। बचपन में अपने घर की छत से डालमियानगर की तीन चिमनियों को एक साथ गलबहियां करते देखा करता था। देखा करता था कि कैसे ये तीनों चिमनियां अपने बुलंद इरादों के साथ भारत और एशिया के औद्योगिक इतिहास के मानचित्र पर गर्व के साथ तनकर ऊंची खड़ी थीं।
इन्हीं चिमनियों से डेहरी-आन-सोन की 20वीं सदी मेें देश भर में पहचान थी। जबकि सोन नद पर एनिकट में बनी सोननहर प्रणाली के कारण 19वीं सदी में देहरीघाट की पहचान चिमनियों के चमन डालमियानगर के कारण ही डेहरी-आन-सोन में तब्दील हो गई। तब डालमियानगर के बारे में सामान्य ज्ञान की किताबों में भी जानकारियां होती थीं। कोलकाता से दिल्ली या दिल्ली से कोलकाता जाने पर रेलगाड़ी के डेहरी-आन-सोन रेलस्टेशन पर पहुंचने के क्रम में डालमियानगर की ये ऊंची चिमनियां दूर से ही सबसे पहले स्वागत करती थीं।
न चिमनियों का चमन बचा और अब न रही सोन की वह चौड़ी छाती
सच पूछिए तो शायद डालमियानगर से ही डेहरी-आन-सोन की पहचान जुड़ी थी, जैसे गर्भनाल से बच्चा जुड़ा होता है। डालमियानगर में स्कूल परिसर, क्लब, बेहतरीन पार्क, सड़कें ऐसी थीं कि देखकर मरीज मन भी चंगा हो उठे। करीने से बने क्वाटरों-बंगलों को देखकर महसूस करता था कि इनमें राजा-रानी रहा करती होंगी। रोशनी से जगमग रातें बताती थीं कि डालमियानगर जगा हुआ है, हम बेशक सो रहे हों। पूरी रात डालमियानगर जगा रहता था। शिफ्ट में काम करने वाले अफसरों-मजदूरों की कारखानों के मेनगेट से आवा-जाही होती थी। डालमियानगर बसहा बैल छाप कागज, हनुमान वनस्पति, अशोका सीमेंट, एस्बेसट्स और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में तल्लीन रहता था। कभी सपने में अहसास न था कि इतना व्यापक और मजबूत औद्योगिक साम्राज्य भी देखते-देखते काल के गाल में समा जाएगा। अफसोस, न तो अब चिमनियों का चमन है और न ही लगातार घटते जा रहे पानी के अभाव में सोन नद की वह चौड़ी छाती।
डालमियानगर को न जाने किस डायन की नजर लगी
मैं चौथी-पांचवीं कक्षा में रहा होऊंगा, वर्ष 1983-84 रहा होगा, जब डालमियानगर में हड़ताल और कुछ प्लांटों के बंद होने की ख़बरें सुनाई देने लगी। वक़्त की मार देखिए कि कारखाना प्रबंधन का लोच-रहित लचर प्रबंधन, सरकार की बेरूखी, श्रमिक संगठनों की तल्खी से धीरे-धीरे डालमियानगर की चमक-रौनक धीमी पड़ती गई। अरबों की जायदाद, मानव श्रम को न जाने किस डायन की नजऱ लगी कि डालमियानगर एक बार अस्पताल की बिस्तर पर गया तो ठीक होने की बजाए उसकी हालत दिन-प्रति-दिन खऱाब होती चली गई और फिर मृत्यु की खाई में जाने से लाख कोशिशों के बावजूद बचा पाना असंभव हो गया।
याद है हाईस्कूल के सामने के भव्य भवन के भूतबंगला होने का किस्सा
डेहरी-ऑन-सोन से रिश्ता बचपन से रहा है, बतौर वहीं की पैदाईश। सोन से असीम जुड़ाव महसूस करता हूं। याद है कि पिताजी के कंधे पर सवार होकर और कई बार उनका हाथ पकड़ कर सोन में सालों भर जाया और नहाया करता था। मेरी दादी का दाह-संस्कार उसी सोन के किनारे हुआ था। सोन पर बने गेमन पुल के पास पहुंचते ही चिल्ला उठता था- दादी तो सुनती नहीं है, सो गई…। मेरे ख्यालों में बचपन के गुजरे दिनों की रेलवे स्टेशन और सोन नदी की यादें आज भी सबसे ताजी- टटकी है। जय हिन्द सिनेमा घर में एक-दो ही फिल्में देखीं होंगी। दसवीं करने के बाद डेहरी-आन-सोन छोड़ देना पड़ा। हालांकि विस्थापन इतिहास में मानवीय विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। डेहरी हाई स्कूल और स्कूल के ठीक सामने एक पुराना, ढहने की कगार पर खड़ा एक भव्य महल, जो भूत बंगला और इसी तरह के नाम से लोकमानस में प्रचलित हो चुका था। उसके बारे में बड़ों और सहपाठियों से कपोलकल्पित कहानियां सुनी थी कि यहां किले में बैठा राजा अंदर-ही-अंदर सुरंग से सासाराम निकल जाता था। कितना सच और कितना झूठ, यह उस उम्र में मायने नहीं रखता था।
और नहर में जंग खाए स्टीमर के पुरा अवशेष पर सहपाठियों के साथ खेलना
डेहरी हाई स्कूल जाने के रास्ते में डेहरी पड़ाव मैदान गोद में मंच लिए लेटा मिला करता था। इसी मैदान में मेले, सर्कस आदि लगा करते थे। खिचड़ी पर इसी ख्ुाले मैदान में दस-पंद्रह दिन के लिए मजमा-मेला लगा करता था और बड़े नेताओं की आमसभा भी। पड़ाव मैदान की सड़क से गुजरते हुए मुख्य सोन नहर पार कर स्कूल जाना और आते समय नहर किनारे खोदी गई मिट्टी के डेढ़ सदी पुराने टीलों से फिसलना आज भी स्मृति में दर्ज हैं। सोन नदी और सोन-नहर के बीच मे हमारा हाई स्कूल काफी नामी पुराना स्कूल था, जिसमें प्रारम्भिक तालीम हासिल करने वाले आज देश-दुनिया के विभिन्न शहरों में बसे हुए हैं। पड़ोस में झारखंड़ी मंदिर और मिट्टी के टीलों के बीच एक तालाब और प्लेटफार्म जैसा दिखने वाला स्थान होता था, जहां जंग खाते एक-दो स्टीमरों और लोहे के चादरों से बनी संरचना के पुरा अवशेष थे, जिन पर सहपाठियों के साथ घुमना-खेलना याद है।
कमला स्टोर, कला निकेतन, मोहिनी, जयहिंद, डिलाइट, अप्सरा, त्रिमूर्ति…
डेहरी पड़ाव मैदान के ठीक सामने मेरे होश में अप्सरा सिनेमा हॉल खुला फिर खुला दूसरा सिनेमा हॉल त्रिमूति। पहले से दो पुराने सिनेमा हॉल थे जय हिन्द और डालमियानगर में रेल स्टेशन के पुल से उतरने के बाद डिलाइट। याद आता है कि डिलाइट मयूरी फिल्म के बाद बंद हो गया था। डिलाइट सिनेमा हॉल में शो शुरू होने से पहले बजने वाले गाने और रेल स्टेशन से रेलगाडिय़ों के बारे में होने वाली उद्घोषणा घर पर साफ सुनाई देती थी। तब आबादी सघन नहींथी और रेल स्टेशन जाने के लिए मोहन बिगहा के फसल वाली खेतों को पार करना पड़ता था।
कमला स्टोर, कला निकेतन, पीयूषी, अमर ज्योति, तिरुपति, ग्लासीना, मातृभंड़ार, कामधेनु, मोहिनी आदि दुकान-प्रतिष्ठान डेहरी-आन-सोन की शान रहे हैं। कुछ को छोड़ दें तो इन दुकानों के मालिकों के बच्चों को इन दुकानों में खास रुचि नहीं रही, क्योंकि वे दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, मद्रास और विदेशों में भी अपनी सक्रियता के साथ वैश्विक बाजार का हिस्सा बन गए हैं। पुरानी दुकानें मरने की कगार पर हैं। सुना है, मेरे शहर में एक मॉल खुल गया है और छोटे-छोटे कई मार्केट काप्लेक्स भी बन गए हैं।
अब ग्लोबल मार्केट के नए दौर की दौड़
बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। इस परिवर्तन में पुरानी ढर्रे की दुकानें खुद-ब-खुद खत्म होती जाएंगी, जैसेकि 19वीं सदी से 20वीं सदी के सफर में हुआ। तेजी से बदलते विश्व-बाजार के प्रभाव के मद्देनजर नई स्टाइल की कारोबारी दुकानें अस्तित्व में आएंगी। ग्लोबल मार्केट के नए दौर की दौड़ में डेहरी-आन-सोन भी नया संस्कार ग्रहण करेगा और 21वींसदी में अपना नया आकार ग्रहण करेगा।
(लेख : कौशलेन्द्र प्रपन्न, संपादन : कृष्ण किसलय, तस्वीर संयोजन : निशांत राज)
बहुत ही सुन्दर विवरण है डेहरी ऑन सोन का…