यहां प्रस्तुत पहले लेख में बेताब अहमद ने सवाल उठाया है कि जब भारत के संविधान में धर्म के आधार पर भेदभाव करने की बात नहींहै, तब फिर दलित मुसलमानों के लिए आरक्षण क्यों नहींहै? दूसरे लेख में प्रो. (डा.) अनिल कुमार सिंह ने नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता पर बल देते हुए बताने का प्रयास किया है कि नैतिक शिक्षा अनिवार्यता क्यों होना चाहिए?
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आरक्षण से दरकिनार देश के दलित मुसलमान
लेखक – बेताब अहमद
भारत का संविधान धर्म के आधार पर भेद-भाव करने की इजाजत नही देता है तो फिर मुस्लिम समाज के दलित वर्ग में आने वाली जातियों को दलित आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिल रहा है? क्या यह मुस्लिम दलितों के साथ भेद-भाव नहीं है? क्या यह समाप्त नहीं होना चाहिए? सिख और बौद्ध समाज को यह लाभ दिया गया, मगर क्या वजह है कि मुस्लिम व इसाइयों की दलित जातियों को यह लाभ नहीं मिल पाया? वक्त की यह मांग है कि मुसलमानों के सभी दलों के नेता इस बात के लिए एक आम राय बनाएं कि दलित मुसलमानों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके। आजादी के बाद हिन्दू समाज के दलित वर्ग सबसे ज्यादा तरक्की हुई। है। आरक्षण से दलित समुदाय को राजनीतिक, आर्थिक और शिक्षा, रोजगार का लाभ मिला।
भारत में दलितों की आबादी 40 प्रतिशत से अधिक है। धर्म के आधार पर दलित एवं धर्मांतरित दलित जैसे दो खेमों हो गए। फिर भी इनकी सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थितियों में कोई अन्तर नहीं है। 1936 में जब अनुसूचित जाति आरक्षण शुरू हुआ था, उस समय डा. अम्बेडकर की पहल पर सर्वधर्म दलितों को आरक्षण श्रेणी में रखा गया था। मुसलमानों की आबादी का बहुत बड़ा भाग आरक्षण का हकदार था। देश की आजादी के बाद 1950 में संविधान लागू हुआ। उस समय संविधान की धारा 341 (जो अनुसूचित जाति के लिए है) में प्रतिबंध लगाकर इसे केवल हिन्दू दलितों के लिए सुरक्षित कर दिया गया। इस कारण धर्मांतरित दलित इस श्रेणी से खारिज कर दिए गए। इस प्रतिबंध से दलित शक्ति टूट कर बिखर गई। धर्मांतरित दलितों में सबसे अधिक दलित मुसलमानों की आबादी है। 1956 में सिख और 1990 में बौद्ध दलितों को आरक्षण की श्रेणी में शामिल किया गया। आरक्षण से अलग होने से दलित एवं मुस्लिम दोनों समूह कमजोर हो गए।
जब तक दलित मुस्लिमों एवं ईसाइयों को इस श्रेणी में शमिल नही किया जाएगा, तब तक दलित शक्ति सियासी तौर पर ताकतवर नहीं हो सकती। आज की सियासी तानाशाही के युग में भारत में दलित शक्ति का एकीकरण समय की पुकार है। 40 प्रतिशत की दलित आबादी (धर्मांतरित दलित सहित) देश की बागडोर संभालने में सक्षम साबित हो सकती है। सभी रजनीतिक पार्टी खुद को संविधान सम्मत बताती हैं। मगर सफाई का काम करने वाले, जूता बनाकर या कपड़ा धोकर जीवनयापन करने वाले दालित मुस्लिमों (हलालखोर, मेहतर, भंगी, हेला, नट, वक्खो आदि) को हिन्दू दलित जातियों की तरह सुविधा क्यों नहींहै, इस बात और मुद्दे पर मौन क्यों हैं? क्या यह भेद-भाव नहीं है? देश के सेक्यूलर संविधान के ढांचे के आधार पर क्या इसे समाप्त नहीं होना चाहिए? क्या यह मुसलमानों के दलित समाज के साथ नाइंसाफी नहीं है?
डा. भीम राव अम्बेदकर ने जिस संविधान की रचना की थी, उसमें यह उल्लेख नहीं है कि मुसलमानों के दलित समाज को हिन्दुओं के दलित समाज जैसा आरक्षण नहीं मिले। जाहिर है कि मुसलमानों के दलित वर्ग के हक व हकूक के लिए लड़ाई आगे जारी रखनी होगी।
(लेखक डेहरी-आन-सोन, बिहार में रहते और आल इंडिया दलित मुस्लिम युवा मोर्चा के संस्थापक राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
शैक्षणिक पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल हो नैतिक शिक्षा
लेखक – डा. अनिल कुमार सिंह, पत्रकार
व्यक्तियों का समूह ही समाज है। जैसे व्यक्ति होंगे, वैसा ही समाज होगा। किसी देश का उत्थान या पतन इस बात पर निर्भर करता है कि इसके नागरिक किस स्तर के हैं, वहां की शिक्षा पद्धति कैसी है? व्यक्ति के निर्माण अर्थात समाज के उत्थान में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। आज की शिक्षा पद्धति व्यक्ति को आर्थिक रूप से सुदृढ़ कर रही है। हर एक व्यक्ति का झुकाव इस ओर है कि ऐसी शिक्षा ग्रहण किया जाए, जिससे अत्यधिक धन का उपार्जन हो सके। लेकिन असली शिक्षा तो वह है जो व्यक्ति में युगानुरूप दक्षता के साथ मानवीय गुणों और चरित्र को उत्कृष्ट बनाए। व्यक्ति का बौद्धिक एवं चारित्रिक निर्माण बहुत हद तक शिक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है।
जर्मनी, इटली, रूस, चीन, जापान, स्विट्जरलैंड क्यूबा आदि ने अपना विशेष निर्माण पिछली शताब्दियों में ही किया है। ऐसा शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन से संभव हुआ है। प्राचीन काल में भारत की वैश्विक गरिमा ऋषियों द्वारा संचालित गुरुकुल पद्धति के कारण थी। व्यक्ति से दबाव देकर कार्य कराना ज्यादा लाभकारी नहीं होता। कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं, जिनसे उनकी रुचि के विरुद्ध कार्य कराना संभव नहींं है।
आज भाषा, गणित एवं पाठ्यक्रम के अन्य विषयों में परीक्षा में तो विद्यार्थी अव्वल अंक हासिल कर रहे हैं, पर जीवन के व्यावहारिक परीक्षा में विफल हो रहे हैं। इस कथन का उदाहरण हाल ही में बक्सर (बिहार) के जिलाधिकारी रहे अधिकारी द्वारा आत्महत्या है। ऐसे हजारों उदाहरण समाज में मौजूद हैं। वास्तव में तो नैतिक शिक्षा सभी कक्षाओं में अनिवार्य होना चाहिए। नैतिक शिक्षा से व्यक्ति में व्यावहारिक रूप से नैतिक मूल्यों का संचार होता है। नैतिक शिक्षा का स्थान विद्यालय, मंदिर, जेल, पंचायत भवन, क्लब आदि कोई भी सामुदायिक स्थल हो सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण का गीता में अध्यात्म विद्यानाम उपदेश मनुष्य में नैतिकता के प्रसार के लिए ही है। नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मोहम्मद पैगंबर ने भी अपने संदेश में कहा है कि एक स्त्री को तालीम देना पूरे खानदान की तालीम देने की बराबर है। महिला यानी माता बच्चे का सर्वोत्तम शिक्षक होती है, जिसके द्वारा बचपन में दी गई शिक्षा जीवनपर्यंत बनी रहती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि व्यक्ति में नैतिक शिक्षा का पूर्ण संचार करने के लिए उसमें श्रद्धा का पाठ विकसित करना होगा। उत्तर प्रदेश के लखनऊ में 1947 से स्थापित गीता विद्यालय में पिछले 70 वर्षों से नैतिक विज्ञान के पाठ्यक्रममें गीता को शामिल रखा गया है। यह विद्यालय उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद से मान्यताप्राप्त और 1973 से राज्य सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त है।
(लेखक डेहरी-आन-सोन, बिहार में रहते और राधा शांता महाविद्यालय, तिलौथू में लोक प्रशासन के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)