हसपुरा, औरंगाबाद (बिहार)। सोनघाटी के ग्रामीण अंचलों में त्योहारों के मौके पर नाटक मंचन की परंपरा अब लगभग लुप्त हो चुकी है। अब गांवों में नाटकों का मंचन नहींहोता। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपनी जीवनी में उल्लेख किया है कि बचपन में श्रवण कुमार और सत्य हरिश्चन्द्र जैसे नाटकों ने उनके जीवन पर असर डाला था। जाहिर है, बालक मोहनदास करमचंद गाँधी के व्यक्तित्व के आरंभिक निर्माण में नाटकों ने नींव डालने का काम किया था।
औरंगाबाद जिला का हसपुरा बाजार का दुर्गापूजा नाटकों के लिए जाना जाता था। पहले लोग सपरिवार नाटक देखने पहुंचते थे। अब न नाटक होते है, न ही लोग जुटते हैं। हसपुरा में नाटक मंचन की परंपरा 1940 में डोमा साव के निर्देशन में शुरू हुई थी। उस जमाने में नाटक का मंचन कविता-संवाद के रूप में होता था, जिसे नौटंकी कहा जाता था। पहले धार्मिक नाटकों का दौर चला था। फिर समसामयिक विषयों पर आधारित नाटकों और इसके बाद सामाजिक नाटकों का दौर आया। दहेज प्रथा, जमींदारी प्रथा, समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरोध में नाटक खेले जाते थे। दशहरा में सप्तमी, अष्टमी और नवमी को तीन दिन नाटक होते थे। मगर समाज से सीधे संवाद के इस मनोरंजन माध्यम की पंरपरा खत्म हो चुकी है। अब तो नाटकों की जगह आर्केस्ट्रा का आयोजन होता है।
80 के दशक में लोहिया और कर्पूरी के राजनीतिक दौर में नाटक का उद्देश्य सामाजिक सुधार हो गया। तब दहेज प्रथा, बंधुआ मजदूरी, छुआछूत विरोध वाले नाटकों पर अधिक जोर होता था। फिल्मी ड्रामा को मंच पर उतारने का प्रयास किया जाता था, जिसमें लाइट और साउंड वाली तकनीक अपनाई गई। 90 के दशक में नाटकों का स्वरूप बदला और परिवार नियोजन, साक्षरता आदि विषयों पर ज्यादा जोर हो गया। हसपुरा में दुर्गा पूजा के रंगमंच के जरिये कई उम्दा नाटक कलाकार (रंगकर्मी) सामने आए। रंगकर्मियों की दूसरी पीढ़ी में बेहतरीन कलाकार मुस्तकीम कैसर, अशोक जैन के साथ गुप्ता साव, पन्नालाल खत्री, युगल गुप्ता, रामसेवक गुप्ता, बालेश्वर चौधरी, जगदीश गुप्ता का इलाके में नाम था और लोग इन्हें सम्मान से देखते थे। इनमें से कई रंगकर्मी आज इस दुनिया में नहीं रहे।
पेट्रोमैक्स की रोशनी, माइक भी नहीं
पुराने दिनों को याद करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी दरोगा साव बताते हैं, दुर्गा पूजा और नाटक एक दूसरे के पर्याय थे। तब बिना नाटक मंचन के दुर्गा पूजा की कल्पना नहीं होती थी। पहले नाटक पेट्रोमैक्स की रोशनी में बिना कोई ध्वनि विस्तारक यंत्र (माइक) के ही नाटकों का मंचन होता था। 7 बजे शाम से घरों से लोग अपने-अपने बाल-बच्चों के साथ नाटक देखने के लिए रंगमंच के सामने जमीन पर जम (बैठ) जाते थे और रात भर नाटक देखते थे। हजारों की तादाद में रफीगंज, ओबरा, वेलसार, ठाकुर बिगहा, अरवल आदि पास-पड़ोस के गांवों से दर्शक जुटते थे और उस परिवेश में भी शांतिपूर्वक नाटक मंचन का आनंद उठाते थे। राजा हरिश्चंद्र नाटक में तो रानी तारामती के विलाप के दृश्य में दर्शक भी रोने लगे थे।
वेब रिपोर्टिंग : शम्भुशरण सत्यार्थी