कफन द लास्ट वील : अन्तरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में

हसपुरा, औरंगाबाद (बिहार)-सोनमाटी समाचार। दरभंगा (बिहार) में पांचवें दरभंगा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल-2018 में धर्मवीर फिल्म एंड टीवी प्रोडक्शन द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री फिल्म कफन द लास्ट वील का चयन किया गया है। दरभंगा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के डायरेक्टर मेराज सिद्दकी ने चयनित फिल्मों कीलिस्ट जारी करते हुए बताया है कि फेस्टिवल में 88 देशों के फिल्मकारों की 182 फिल्मों का चयन किया गया है, जिन्हें दरभंगा के नरगौना प्लेस स्थित सिल्वरजुबली आडिटोरियम में 20, 21 व 22 अप्रैल को दर्शकों के लिए प्रदर्शित (बतौर स्क्रीनिंग) भी किया जाएगा और चुनिंदा फिल्मों को पुरस्कृत भी किया जाएगा।
कफन द लास्ट वील के लेखक, शोधकर्ता और डायरेक्टर धर्मवीर भारती ने बताया कि इस डाक्युमेंट्री फिल्म में मगध क्षेत्र (गया) के बेहाल कफन बुनकरों के रोज़मर्रे के जीवन संघर्ष की कहानी है। बुनकरों के कई श्रेणियों में कच्चा सूत और माड़ी से कफन निर्माण करने वाले बुनकरों की स्थिति बदतर है। पूरा परिवार कफन का कपड़ा बनाता है और मुख्य श्मसान घाट पर की दुकानों से लाश जलाने के लिए इनके कफन बिकते हैं, तब इनके यहां चूल्हा जलता है। इस फिल्म में कैमरामैन का कार्य रणवीर कुमार ने और फिल्म का संपादन पप्पू के. प्रकाश व संकेत सिंह ने किया है।
धर्मवीर फिल्म एंड टीवी प्रोडक्शन की प्रबंध निदेशक रसना वर्मा डाली के अनुसार, यह फिल्म धर्मवीर फिल्म एंड टीवी प्रोडक्शन का तीसरा प्रोडक्शन है। फिल्म की कथानक ईस्ट इंडिया कंपनी के कपड़ा कारोबार के बाजार विस्तार और मगध क्षेत्र के बुनकर की प्रतिस्पर्धी पर आधारित है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यापार नीति से मगध के बुनकरों की रीढ़ तोड़ दी। तब मगध के बुनकरों ने अपने और अपने परिवार की जीविका के लिए हैंडलूम पर कच्चे सूतों का ताना-बाना बनाकर कफन निर्माण शुरू किया। दो सौ सालों के जद्दोजहद में कफन बुनकर औरंगाबाद, दाउदनगर, जहानाबाद, नवादा से सिमटकर गया के एक कोने (मानपुर) में बस गए हैं। अब बाजार में आए में प्लास्टिक मिश्रित कफन के कपड़े ने इनके धंधे को और चौपट कर दिया है।

 

 

105 साल पहले

राजा हरिश्चंद्र : मूक थी हिन्दी में बनी पहली फीचर फिल्म

एक सदी पहले तो जमाना पूरी तरह रंगमंच का था। सरस मनोरंजन और सामाजिक संदेश दोनों के लिए रंगमंच तब अभिव्यक्ति की सबसे लोकप्रिय विधा थी। उस समय तस्वीरों की रील के रूप में तैयार होने वाली और पर्दे पर छाया के रूप में दिखाई जाने वाली फिल्म, वह भी मूक, के लिए रंगमंच को टक्कर दे पाना कोई हंसी-खेल नहींथा। मगर इस नई चीज को तैयार हो जाने के बाद प्रदर्शित करने का ताम-झाम नाटक के मुकाबले काफी कम था, क्योंकि इसके प्रदर्शन के लिए नाटक दल व समूचे नाट्य संसाधनों को जुटाने की जरूरत नहींथी और एक जगह से दूसरी जगह पर भी इसे उसी प्रभाव में देखा जा सकता था, जिस प्रभाव में वह पहली जगह पर देखा गया था।
हालांकि 20वींसदी में आरंभ होने वाला वालीवुड (भारतीय सिनेमा) तकनीक व कला के मामले में 21वींसदी में क्वांटम जंप कर चुका और महाउद्योग बन चुका है, मगर तब मूक सिनेमा भी बना पाना अत्यंत दुष्कर कार्य था। और, यह कार्य दादा साहब फाल्के (घुंडीराज गोविन्द फाल्के) ने किया था चार रीलों में लपेटी गई 37 सौ फीट (करीब दो मील) लंबी मूक फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्रÓ बनाकर।

105 साल पहले 13 मई 1913 को मुम्बई के कोरोनेशन सिनेमा हाल में प्रदर्शित हुई एक घंटे की इस मूक फिल्म के पात्र-परिचय, संवाद आदि पर्दे के पीछे से बोले गए थे। दर्शकों ने इस नई चीज को पसंद किया था और यही वजह थी कि फिल्म उस सिनेमा हाल में 23 दिनों तक दिखाई गई थी।
महाराष्ट्र के त्रयम्बकेश्वर (नासिक) शहर के दादा साहब फाल्के (जन्म 30 अप्रैल 1870) ने 1917 में अपना प्रोडक्शन हाउस ( हिन्दुस्तान फिल्म कंपनी) बनाया था और इसके जरिये कला व तकनीक के इस नवसृजन (फिल्म) को दर्शकों के बड़े दायरे तक ले जाना चाहते थे। उन्होंने फिल्म की रील, पर्दा, मशीन और अन्य साजोसमान को बैलगाड़ी पर लादा और प्रदर्शक के रूप में निकल पड़े जगह-जगह पर्दा गाड़ कर लोगों को फिल्म दिखाने। उन्होंने शहरों के साथ गांवों में भी फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्रÓ का प्रदर्शन किया।
तब वह दौर था, जब फिल्म तो क्या नाटक के लिए भी महिला कलाकार नहींमिलती थी और महिला पात्र की भूमिका पुरुष कलाकार को ही करनी पड़ती थी। हरिश्चंद्र की पत्नी शैव्या की भूमिका के लिए कोई महिला नहींतैयार हुई थी। यहां तक की तवायफों-वेश्याओं ने फिल्म की महिला भूमिका से इनकार कर दिया। शैव्या की भूमिका का निर्वाह अभिनेता सालुंके ने किया। दादा फाल्के ने 18 सालों में 175 फिल्में बनाई थींं, जिनमें ‘गंगावतरणÓ (1931) बोलती फिल्म थी।

  • अनुराधाकृष्ण रस्तोगी
    कुदरा (कैमूर)
    चर्चित लोकगायिका, भोजपुरी अभिनेत्री

 

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