सौ साल पहले 1917 में बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी का ‘महात्माÓ के रूप में ‘अवतारÓ बिहार में ही हुआ था। बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों के आंदोलन ने उन्हें भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अग्निपथ पर ला खड़ा किया था, जिसके बाद वे महात्मा की संज्ञा से विभूषित किए गए। चंपारण में उनके सत्याग्रह से ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गांधी युग की नींव पड़ी, जो 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी की मंजिल पर पहुंच कर पूरी हुई। पढि़ए सोनमाटी मीडिया समूह के समूह संपादक कृष्ण किसलय का यह विशेष आलेख। यह आलेख डिजिटल संस्करण सोनमाटीडाटकाम के अलावा सोनमाटी के प्रिंट संस्करण के प्रतिबिंब स्तंभ पेज पर भी प्रकाशित किया गया है।
बीसवीं सदी के आरंभ में बिहार और भारत के अन्य राज्यो के किसानों से करीब 40 तरह के टैक्स वसूल किए जाते थे। जमींदारों के ही वादी होने और वकील व कानूनगो होने के कारण लाखों किसान पल-पल खौफ में ंजीते थे। तब अंग्रेजों द्वारा बिहार के किसानों से नील की खेती के लिए जबरन गुलामी कराई जाती थी। इस क्रूर कृषि गुलामी प्रथा के कारण किसान अत्यंत दयनीय स्थिति में थे और 10 सालों से संगठित होकर संघर्ष भी कर रहे थे।
बैरिस्टर गांधी को बिहार में बुलाने के लिए गए थे राजकुमार शुक्ल
किसानों के उस संघर्ष को स्थानीय नेतृत्व प्रदान कर रहे किसान राजकुमार शुक्ल को जानकारी हुई कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के गिरमिटिया मजदूरों के मानवाधिकार के लिए लडऩे वाले बैरिस्टर गांधी दो साल पहले भारत लौट आए हैं और कांग्रेस पार्टी से जुड़कर भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं। राजकुमार शुक्ल बैरिस्टर गांधी को चंपारण बुलाने के प्रयास में लग गए। वे दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ में हो रहे राष्ट्रीय अधिवेशन में बिहार के किसानों के प्रतिनिधि बनकर पहुंचे और पहली बार गांधी से मिले थे।
गांधी के साथ चंपारण आंदोलन में दर्जनों युवाओं ने अपना सर्वस्व त्याग दिया था। उनमें राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे। उन युवाओं के त्याग, तप, मेहनत और अविरल संगठित संघर्ष का ही फल था कि कठियावाड़ी ड्रेस में चंपारण पहुंचे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी वहां से महात्मा बनकर लौटे और भारतीय राजनीति में सूर्य की तरह चमक उठे। गांधी ने सहयोगियों के साथ 2841 गांवों का सर्वेक्षण करने के बाद निलहों (किसानों से नील की खेती कराने वाले अंग्रेजों) के खिलाफ ठोस आंदोलन की शुरुआत की।
तब गांधी ने किया आजीवन अधनंगा रहने का फैसला
चंपारण प्रवास के दौरान एक दिन गांधी राजकुमार शुक्ल का इंतजार कर रहे थे और गुस्से में भी थे कि जो आदमी समय का पाबंद नहीं हो सकता, वह क्या आंदोलन कर पाएगा! राजकुमार शुक्ल के आने पर गांधी ने विलंब का कारण पूछा। शुक्ल ने बताया कि गांव के एक ब्राह्म्ïाण परिवार में सास-बहू के पास एक ही साड़ी थी। एक साड़ी होने के कारण दोनों में से कोई एक ही घर से बाहर निकल पाती थीं। वह पुरानी साड़ी भी फट गई तो उनका बाहर निकलना बंद हो गया था। अवसाद में सास-बहू ने बीती रात कुएं में कूद कर जान दे दी। इसी घटना की जानकारी लेने में उन्हें देर हो गई। गांधी घटना को सुनकर बेहद मर्माहत हुए। आम आदमी की दुर्दशा के अहसास ने ऐसा असर डाला कि गांधी ने अपने शरीर पर आजीवन नीचे की धोती ही पहन कर रहने का फैसला कर लिया।
वर्ष 2017 के चंपारण सत्याग्रह के तीन साल बाद वर्ष 1920 में महात्मा गांधी के आह्वान पर शुरू हुए असहयोग आंदोलन में भी बिहार ने अपनी व्यापक भूमिका निभाई थी। एक दशक बाद 1931-32 आते-आते तो बिहार क्रांतिकारी गतिविधियों का बड़ा क्रेंद्र बन गया। बिहार के 20 से अधिक क्रांतिकारियों को काला पानी (अंडमान जेल) की सजा हुई थी। 1932-34 में महात्मा गांधी ने एक बार फिर रोहतास जिला सहित बिहार के कई जिलों का लगातार दौरा किया था।
सौ साल बाद भी खड़ा है सवाल क्या गांधी का यही था सपना?
महात्मा गांधी के आह्वान पर जातीय भेदभाव, छुआछूत, पर्दा प्रथा, बाल विवाह के खिलाफ बिहार की महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। गांधी का सपना ऐसे भारत का था, जहां सबको, देश के आखिरी आदमी तक को बराबरी के आधार पर जीने व अपना भविष्य तय करने का संवैधानिक अधिकार हो। मगर सच यही है कि आजादी के बाद राजनीति का स्वरूप बदल गया और सियासत कारोबार में तब्दील हो गई। चंपारण सत्याग्रह के सौ साल बाद भी यह सवाल खड़ा है कि देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों का सपना क्या ऐसे ही भारत का था, जो आज है?
अफ्रीका में महात्मा गांधी को मदद
तिरहुत महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने बहादुरशाह जफर के बड़े पोते को राजनीतिक संरक्षण देकर राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता आंदोलन को जिंदा रखने का उपक्रम किया था। अफ्रीका में महात्मा गांधी को मदद करने वाले वे पहले भारतीय थे। वे 1883 में इंपीरियल काउंसिल के लिए निर्वाचित होने वाले पहले भारतीय जनप्रतिनिधि थे। राजाओं का जमाना होने के बावजूद कोलकाता में उनकी प्रतिमा आम लोगों ने अपने दम पर बनवाया था। वे कई सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे।
– कृष्ण किसलय,
समूह संपादक,
सोनमाटी मीडिया समूह
(डिजिटल व प्रिंट संस्करण)