समाचार विश्लेषण/कृष्ण किसलय
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की केेंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार और राजनीति के गठजोड़ की वस्तुस्थिति को जानने के लिए एनएच बोहरा समिति का गठन किया था, जिसने 1993 में सौंपी रिपोर्ट में बताया कि राजनीति में नेता-माफिया गठजोड़ की ताकत लगातार बढ़ रही है। तीन साल बाद 1996 में 11वीं लोकसभा में पहुंचे 40 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। 1997 में संसद के विशेष सत्र में राजनीति के अपराधीकरण पर 06 दिन तक बहस हुई।
बहस के बाद संसद ने सर्वानुमति से संकल्प लिया कि राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कराने, भ्रष्टाचार खत्म करने, चुनाव प्रक्रिया में सुधार कर बेहतर बनाने और जनसंख्या वृद्धि, निरक्षरता, बेरोजगारी दूर करने के लिए राष्ट्रीय अभियान चलेगा। इसके बाद अटलविहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी की पूर्णकालिक, पूर्ण बहुमत वाली सरकारें आईं। मगर संसद का संकल्प सड़क का जुमला ही बना रहा।
देश के सबसे ऊंचे जनतांत्रिक दरबार में वोहरा समिति की रिपोर्ट पर व्यक्त की गई चिंता और सामूहिक संकल्प नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई। न कोई अभियान चला और न राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर दृढ़ता से रोकने का प्रयास हुआ। चुनाव आयोग, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने ही राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध कड़े कदम उठाए। विधायिका या केेंद्र सरकार ने बहस या बात के अलावा कारगर कदम नहीं बढ़ाया।
हालत यह हुई कि हर लोकसभा में दागी सांसद बढ़ते गए। 15वीं लोकसभा में आपराधिक आरोप वाले 162 (तीस फीसदी) और 16वीं लोकसभा में 185 (चौतीस फीसदी) सांसद थे। इस बार 17वीं लोकसभा में 542 में 233 सांसद दागी हैं। यानी 43 फीसदी निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें 19 फीसदी गंभीर मामले वाले दागी हैं। इनमें भाजपा के 116 (उनचालीस फीसदी), कांग्रेस के 29 (सनतावन फीसदी) और जदयू के 13 (एकासी फीसदी) सासंद हैं। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स की मानें तो केंद्र की नई मोदी सरकार के 39 फीसदी मंत्री भी दागदार हैं। मोदी सहित 57 मेंं 51 मंत्री करोड़पति हैं।
जाहिर है, राजनीति में धन और अपराध का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। अब अधिक योग्य होकर भी धन-बल हीन लोगों के लिए राजनीति में जगह नहीं है। जनता की भूमिका महज मतदान करने तक रह गई है, जिसकी मजबूरी यह है कि राजनीतिक दलों के घोषित उम्मीदवारों में से ही किसी को चुनना होता है। आखिर वंश विशेष की राजशाही और संसदीय लोकशाही में फर्क क्या रह गया है? क्या यह स्थिति कभी बदलेगी भी ?
कृष्ण किसलय, समूह संपादक, सोनमाटी मीडिया ग्रुप
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