जिंदगी की जंग : देश के दुश्मनों से नहीं, बैंक की लाइन से हारा फौजी

नोटबंदी के दो साल बाद बिहार के औरंगाबाद जिले के अरई गांव (दाउदनगर) से

सोनमाटीडाटकाम के विशेष प्रतिनिधि निशांत राज की स्थल रिपोर्ट

 

फौजी सुरेंद्र शर्मा ड्यूटी के वक्त देश के दुश्मन से तो नहीं हारे, मगर रिटायर्ड होने के बाद बैंक की लाइन में वह अपनी जिंदगी की जंग हार गए। 65 वर्षीय रिटायर्ड आर्मी मैन सुरेंद्र शर्मा औरंगबाद के दाउदनगर अनुमंडल मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर अपने गांव अरई में खेती-बाड़ी करते थे। आठ नवम्बर 2016 को देश में नोटबंदी लागू कर एक हजार और पांच सौ रुपये के पुराने नोट चलन से बाहर कर दिए गए। एक हफ्ते बाद वह 15 नवम्बर को भारतीय स्टेट बैंक की दाउदनगर शाखा से पैसा निकालने आए थे और बाहर सड़क तक लगी लाइन में घंटों से खड़े थे।

दाउदनगर के वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र कश्यप एवं पत्रकार ओम प्रकाश के अनुसार, प्रत्यक्षदर्शियों ने यही बताया था कि वह बैंक की लाइन में बाहर खड़े थे और अचानक कतार से अलग जाकर जमीन पर लुढ़क गए। उनकी पहचान उनके पास मौजूद पॉलीथिन में आधार कार्ड से हुई। पालीथिन से दस हजार रुपये निकालने के लिए भरा हुआ चेक और बैंक का पासबुक मिला था। प्राथमिक स्वास्थ्य केेंद्र (दाउदनगर) के चिकित्सकों ने जांच के बाद कारण हर्ट अटैक बताते हुए उन्हें मृत घोषित कर दिया। इसके बाद पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के लिए सदर अस्पताल औरंगाबाद भेज दिया।

मौत पर क्षतिपूर्ति नहीं, पत्नी ने किया सवाल कि एक फौजी के साथ क्या यही है न्याय?
मोबाइल फोन पर हुई बातचीत में सुरेंद्र शर्मा की पत्नी विमला देवी ने बताया कि वह अपने मायके दिल्ली (शास्त्रीनगर) से बोल रही हैं। उन्हें उनके पति की इस तरह हुई मौत पर किसी तरह का कोई मुआवजा सरकार की ओर से नहीं मिला है। मेरे पति ने देश की सेवा की, मगर उनकी मौत के बाद किसी ने सुध नहीं ली। उनका सवाल है, एक फौजी के साथ क्या यही है सरकार और उसके तंत्र का न्याय ?

हैदराबाद में एक निजी कंपनी में कार्यरत मृतक सुरेंद्र शर्मा के बड़े बेटे रवींद्र कुमार शर्मा का कहना है कि क्षतिपूर्ति का दावा अनुमंडल प्रशासन कार्यालय में किया गया था, मगर कुछ नहीं हुआ।

विमला देवी, रवींद्र कुमार और अन्य लोग आज भी सवाल उठाते हैं कि इस तरह हुई मौत को क्या किसी अपराध के खांचे में नहीं रखा जा सकता? क्या यह दूसरे के कारण हुई मौत नहीं माना जाएगी? क्या यह क्राइम नहीं है? इसके लिए कोई जिम्मेदार क्या कोई भी नहीं है?

नोटबंदी के समय अरई गांव की मुश्किल में डालने वाली दो घटनाएं
ग्राम पंचायत अरई के पूर्व मुखिया (2011-16) अनिल कुमार ने बताया कि पड़ोसी गांव के एक ग्रामीण की तबियत खराब हो गई तो कई घरों से नगदी चंदा मांगकर इलाज का इंतजाम करना पड़ा था।

गुजरात में रेलवे में गुड्स गार्ड के पद पर काम करने वाला युवक आलोक कुमार अपने गांव छुट्टी में आया था। एटीएम से पैसे नहीं निकलने के कारण उसके पास नगदी नहीं थी तो गांव वालों ने चंदा कर नगद रकम का प्रबंध किया।
महीनों तक श्रमिकों के सामने थी भूखमरी जैसी हालत
नोटबंदी की घोषणा के बाद महीनों तक गरीब, छोटे-छोटे कारोबारी भुखमरी जैसी स्थिति में बने रहे। बड़ी संख्या में श्रमिकों-कारीगरों ने मुफ्त भी काम किया कि जब नगदी की तरलता बढ़ जाएगी, तब मजदूरी प्राप्त कर लेंगे।

अरई ग्राम पंचायत की वर्तमान मुखिया मिरी कुमारी, पूर्व मुखिया राज कुमार, मेडिकल दुकान संचालक सुरेश मौआर और गांव के  कई लोग यह मानते हैं कि नोटबंदी की पूर्व-तैयारी नहीं की गई थी। बैंकों के उपभोक्ताओं (ग्राहकों) को नोटबंदी से किन-किन असुविधाओं का सामना करना पड़ेगा और उन समस्याओं का समाधान कैसे किया जाए, इन बातों पर गंभीरता से पूर्व-विचार नहीं किया गया था। बैंक शाखा के प्रबंधकों ने भी ग्राहकों के लिए पूर्व-निर्धारित मानक का पालन नहीं किया।

भारतीय स्टेट बैंक की दाउदनगर शाखा में सुरेंद्र शर्मा की मौत के बाद दूसरे दिन 16 नवम्बर 2016 को वरिष्ठ नागरिकों के लिए बैंकशाखा में अलग कतार लगाई गई। भारी भीड़ के कारण बैंक लाइन की अव्यवस्था को संभालने के लिए पुलिस की व्यवस्था की गई और अलग-अलग तरह के उपभोक्ताओं (ग्राहकों) के लिए अलग-अलग कतार लगाई गईं।

आज भी सवाल करते हैं लोग कि आखिर किस मकसद से हुई नोटबंदी
गांव और दाउदनगर के लोग आज भी यह सवाल कर रहे हैं कि आखिर किस मकसद से हुई नोटबंदी? नोटबंदी के बावजूद कहां आया कालाधन? इसके उलट, सरकार ने तो उन्हें मौका दे दिया, जिन्होंने कालाधन रखा था कि बैंक जाओ और काले को बदल कर सफेद कर लो। उस समय अखबारों-न्यूजचैनलों से मिली खबर के आधार पर यही जानकारी सामने आई कि बैंकों की मिलीभगत से कालाधन रखने वालों ने बड़े पैमाने पर अपना धन सफेद कर लिया।

नोटबंदी के उन दिनों महीनों तक मजदूरों को काम नहीं मिल रहा था और फुटपाथी छोटे कारोबारी परेशन थे, क्योंकि भुगतान करने, खर्च करने के लिए नगदी हाथ में नहीं थे। दूसरी ओर बैंकों में हर रोज नहीं खत्म होने वाली कतारें लगा करती थीं।
कालाधन खत्म नहीं हुआ और बिखर गए असंगठित कारोबारी

नोटबंदी के दो साल पूरे होने पर केंद्र सरकार ने कई फायदे गिनाए हैं। मगर छोटे कारोबारियों का कहना है कि वे अब भी इसके झटके से उबरे नहीं हैं। नोटबंदी के बाद बढ़े डिजिटाइजेशन का ज्यादा फायदा ई-कॉमर्स और बड़े कॉरपोरेट हाउसों को मिला है। भारत की अर्थव्यवस्था नगदी पर आधारित रही है। नोटबंदी ने सीधे इसकी रीढ़ पर हमला किया।

रिजर्व बैंक आफ इंडिया की रिपोर्ट है कि 15.44 लाख करोड़ में से 15.31 लाख करोड़ रुपये (करेंसी) सिस्टम में वापस आ गए। यानी, कालाधन खत्म नहीं हुआ और असंगठित कारोबार बिखर गया। लाखों यूनिट बंद हुईं और लोग बेरोजगार हुए। छोटों के इस व्यापक नुकसान को हाईटेक समूहों ने हथिया लिया।

मार्केट में रूप बदलकर लौट आई नगदी, ई-कंपनियों को हुआ फायदा
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में माइक्रो, स्माल और मीडियम इंटरप्राइजेज (कारोबार) की संख्या करीब चार करोड़ है और जीएसटी रजिस्ट्रेशन एक करोड़ है। इससे जाहिर है कि तीन-चौथाई कारोबारी असंगठित क्षेत्र में हैं, जिनका सालाना टर्नओवर 20 लाख रुपये से कम है।

नोटंबदी से छह महीने बाद आए जीएसटी से असंगठित क्षेत्र और बिखर गया। इससे बड़ी संख्या में कारोबारी मुख्यधारा में आने के बजाय कट गए, क्योंकि अन-रजिस्टर्ड कारोबारियों से खरीद को जीएसटी हतोत्साहित करता है। नोटबंदी में जो नुकसान हुआ, वह वापस नहीं लौटा। जबकि मार्केट में कैश लौट आया है। डिजिटल पेमेंट का सबसे बड़ा फायदा ई-वॉलेट कंपनियों और ई-कॉमर्स को मिला है।

(संपादन : कृष्ण किसलय, तस्वीर : निशांत राज)

 

इस रिपोर्ट का एक अंश

दिल्ली के नेशनल हेराल्ड समूह के

हिन्दी समाचारपत्र संडे नवजीवन

के देश स्तंभ में

04 नवम्बर 2018 को प्रकाशित

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