डालमियानगर पर,तिल तिल मरने की दास्तां धारावाहिक पढ़ा। डालमियानगर पर यह धारावाहिक मील का पत्थर सिद्ध होगा। यह धारावाहिक संग्रहणीय है।अतित के गर्त में दबे हुए, डालमियानगर के इतिहास को जनमानस के सामने प्रस्तुत करने के लिए आपको कोटिश धन्यवाद एवं आभार प्रकट करता हूं। आशा है आगे की प्रस्तुति इससे भी अधिक संग्रहणीय होगी।
–अवधेशकुमार सिंह,
कृषि वैज्ञानिक, स.सचिव : सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार
– by Awadesh Kumar Singh e-mail
——————————————————————————–
on FaceBook kumud singh — हम लोग 10 वर्षों से मैथिली मे अखबार निकाल रहे हैं..उसमें आपका ये आलेख अनुवाद कर लगाना चाहते हैं…हमने चीनी और जूट पर स्टोेरी की है..डालमियानगर पर नहीं कर पायी हूं…आप अनुमति दे तो लगाने का विचार था…
2. तिल-तिल मरने की दास्तां (किस्त-2)
दो पीढिय़ां हुईं बर्बाद, जिंदगी तो बस न आने वाली मौत से दोस्ती
मोहनजोदड़ो-हड़प्पा बन चुका चिमनियों का चमन, सोन अंचल की बड़ी आबादी पर हिरोशिमा-नागासाकी जैसा हुआ असर
डेहरी-आन-सोन (बिहार) – कृष्ण किसलय। सोन नद के किनारे स्थित भारत के सबसे पुराने व एक सबसे बड़े औद्योगिक शहर डालमियानगर (रोहतास उद्योगसमूह) से जुड़े लोगों-परिवारों की एक पीढ़ी तो बर्बाद हुई ही, दूसरी पीढ़ी भी संभल-संवर नहींसकी। रोहतास इंडस्ट्रीज में तालाबंदी के बाद डालमियानगर के अफसर से चपरासी तक ऐसे लोगों की सूची बहुत लंबी रही है, जिन्हें जिंदा रहने के लिए खटाल खोलनी पड़ी, घूम-घूम कर कपड़ों की फेरी लगानी, ठेलों पर सब्जी बेचनी पड़ी, भूसा बेचना पड़ा, गुमटी में परचून की दुकानें चलानी पड़ी, जिल्दसाजी की दुकान खोलनी पड़ी, कुर्सी की बिनाई का काम करना पड़ा, घुमंतू बिजली मिस्त्री बनना पड़ा। तकनीकी दक्षता वाले सैकड़ों कर्मचारियों-कारोबारियों को रोजगार के लिए प्रदेश और देश के दूसरे हिस्सों में पलायन करना पड़ा।
ताकत नहीं बची संघर्ष के लिए
रोहतास उद्योग के स्थाई कर्मचारियों को तो क्षतिपूर्ति लाभांश देने का निर्णय कोर्ट ने दिया, मगर अपनी लगभग पूरी जिंदगी या जवानी अस्थाई कर्मचारी के रूप में रोहतास इंडस्ट्रीज में लगाने वालों को कुछ नहींमिल सका। जिन कारोबारी आपूर्तिकर्ताओं के भुगतान रह गए थे और जिन्होंने पुनर्वास आयुक्त के पटना कार्यालय में बकाए का दावा किया था, उनके बकाए के भुगतान के प्रति अभी तक न तो न्यायालय का ध्यान गया है और न ही शासकीय समापक (आफिसियल लिक्विडेटर) ने इस ओर न्यायालय का ध्यान आकृष्ट कराने की जरूरत समझी। निजी बकाएदारोंं में बड़ी संख्या में लोग दुख झेलते हुए मौत की आगोश में समा गए। जो जीवित रह गए है, वे सिर्फ व्यवस्था को कोस लेने का संतोष कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपने जीवन में न्याय मिलने की उम्मीद धूमिल हो गई दिखती और वे लाचार लोग इतने सक्षम नहींहैं कि महंगी न्याय व्यवस्था के दरवाजे पर दस्तक दे सकेें और जिंदगी के बचे हुए वर्षों को कोर्ट का चक्कर लगाने का संघर्ष झेल सकेें।
क्या-क्या नहीं करना पड़ा, खेत भी बिक गए
तालाबंदी के बाद पी-29 क्वार्टर में रहने वाली उमा रानी का 11 साल का बेटा टिंकू दवा के अभाव में मौत की गोद में चला गया। कंपनी के अतिथि भवन के स्टाफ प्रेमचंद प्रसाद को फल मंडी में काम करना पड़ा और छह महीनों तक एक टाइम की खुराक केला ही था, जो उन्हें फलमंडी से मुफ्त में मिल जाता था। स्टील कारखाने के द्वितीय श्रेणी से 10वीं क्लास पास कर्मचारी उमाकांत चौबे को हैट लगाकर डालमियानगर की सड़कों पर रिक्शा चलाना पड़ा। लिपिक अखिलेश्वर लाल को बच्चों की परवरिश के लिए डिलाइट टाकिज रोड में पान की गुमटी खोलनी पड़ी। तब अक्टूबर 1984 में उद्योगसमूह को खोलने के लिए चलाए गए आंदोलन में पुलिस की गोली से मारे गए द्वारिका प्रसाद के एमए पास बड़े भाई को अंडा बेचना पड़ा और छोटे भाई को रेलगाड़ी में किताबें बेचनी पड़ी। एस-276 क्वार्टर में रहने वाले कागज कारखाने में फिनिशियर रहे हरिहर प्रसाद को खेत बेचकर बेटियों की शादी करनी पड़ी।
जिंदगी तो बस न आने वाली मौत से दोस्ती
रोहतास उद्योगसमूह के लिए जाब वर्क करने वाले उस वक्त के रोहतास जिले के सबसे बड़े प्रिंटिंग प्रेस के मालिक के लिए तब बाजार में काम नहींहोने की वजह से लगभग बेरोजगार की मार झेलनी पड़ी, बल्कि इनकी बड़ी पूंजी के कंपनी में बाकी रह जाने के कारण अन्य कारोबार का सामथ्र्य नहींरह गया। इन्हें प्रेस की मशीनों को कबाड़ में बेचना पड़ा और अपने शहर की जड़ से उखड़ कर बड़े अखबारों में यथायोग्य नौकरी के लिए खानाबदोश की तरह बनारस, देहरादून, आगरा, मेरठ में रहना पड़ा। एक वरिष्ठ अधिकारी के पुत्र जो नवभारत टाइम्स का संवाददाता रह चुका था, को भूसे की दुकान खोलनी पड़ी। रायगढ़ (छत्तीसगढ़) से आकर रोहतास उद्योगसमूह के पावर हाउस में काम करने वाले एक डिग्रीधारक अभियंता डिप्रेशन के इस कदर शिकार हुए कि घर चलाने के लिए उनकी पत्नी को घर में मसाला पिसने की छोटी मशीन लगानी पड़ी और बेटियों को घर-घर, दुकान-दुकान घूमकर मसाले के पैकेट बेचने के काम मेंंलगाना पड़ा। तब इंजीनियर की पत्नी ने अपनी पीड़ा का बयान इन शब्दों में किया था- एक मेरी मां है, जो अपने पति के साथ हवाई जहाज में घूमती है और एक मैं मां हूं, जो खेलने-खाने-पढऩे की उम्र में बेटियों से मसाला-पापड़ बिकवा रही हंूं। जीवन तो मेरे लिए बस न आने वाली मौत से दोस्ती है।
भुगतान की डेडलाइन 31 दिसम्बर
हाई कोर्ट ने स्थानीय मृत रोहतास उद्योगसमूह के दो हजार से अधिक कर्मचारियों के बकाए (लाभांश) के भुगतान के लिए अंतिम तिथि (डेड लाइन) 31 दिसम्बर तय की है। तालाबंदी के तीन दशक बाद न्यायालय के आदेश पर कर्मचारियों को लाभांश (सेवानिवृत्ति की उम्र तक वेतन के हिसाब से क्षतिपूर्ति) देने की प्रक्रिया आरंभ की गई। रोहतास उद्योगसमूह के डालमियनगर प्रभारी अधिकारी एआर वर्मा ने सोनमाटी को बताया कि हाई कोर्ट के अंतर्गत कार्य करने वाले शासकीय समापक (पटना) की रिपोर्ट के आधार पर उच्च न्यायालय ने बाकी बचे कर्मचारियों के लाभांश भुगतान की अंतिम तिथि बढ़ाकर 31 दिसंबर कर दी है।
करीब 10 हजार कर्मचारियों को उनके लाभांश की रकम लगभग 72 करोड़ रुपये का भुगतान कर दिया गया है। करीब 2100 कर्मचारियों के बकाए 06 करोड़ रुपये का भुगतान उनकी ओर से जरूरी कागजात के जमा नहीं होने के कारण रह गया है। इसके लिए डालमियानगर कार्यालय की ओर से ऐसे कर्मचारियों के पते पर पिछले महीने पोस्टकार्ड भेजा गया है, ताकि न्यायालय द्वारा निर्धारित तारीख तक कर्मचारी या उनके आश्रित कागजात जमा कर अपना भुगतान प्राप्त कर लें।
एआर वर्मा का कहना है कि उद्योगसमूह की तालाबंदी के समय (1984) तक आधिकारिक आदेश पर विभिन्न तरह की आपूर्ति करने वाले सप्लायरों आदि के बकाए के भुगतान को लेकर न्यायालय का आदेश नहीं हुआ है। इसके लिए बकाए के दावेदरों को न्यायालय से भुगतान के लिए प्रार्थना करना चाहिए।
(अगली किस्त में जारी रोहतास उद्योगसमूह के स्थापित होने से मृत होने तक की कहानी)