आज समाज के एक हिस्से का जोर वंदे मातरम् (नारा) पर है। जबकि देश के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तीन प्रमुख नारों वंदे मातरम्, जयहिंद और इंकलाब जिंदाबाद का जन्म हुआ था। पहले नारे का संबंध बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय, दूसरे का सुभाषचन्द्र बोस और तीसरे का भगत सिंह से है। प्रस्तुत है डेहरी-आन-सोन (बिहार) के वरिष्ठ पत्रकार कुमार बिंदु द्वारा इन नारों के संदर्भ के बारे में दी गई जानकारी।
– संपादक : सोनमाटीडाटकाम
आज कुछ लोग यह कह रहे हैं कि भारत में रहना है तो वंदे मातरम् कहना होगा। ऐसा कहने वाले जयहिंद (नारा) का जिक्र नहीं करते और इंकलाब जिंदाबाद की भी अनदेखी करते हैं। इसलिए इस परिस्थिति में आज इन तीनों नारों के महत्व, औचित्य और उद्भव के बारे में जानना जरूरी हो गया है। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वंदे मातरम् कहने से ही कोई देशभक्त बन जाएगा? और, प्रश्न यह भी उठता है कि वंदे मातरम् के अलावा जयहिंद और इंकलाब जिंदाबाद के नारे की क्यों जरूरत पड़ी? भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दरम्यान तीन नारे गढ़े गए थे- वंदे मातरम्, जयहिंद और इंकलाब जिंदाबाद। कांग्रेस की सभाओं में वंदे मातरम् गीत गाए जाते थे। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज के लिए जयहिंद नारा गढ़ा गया। जबकि भगत सिंह और उनके साथियों के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन का नारा था इंकलाब जिंदाबाद। ये तीनों नारे स्वाधीनता आंदोलन से संबंधित, मगर अपने-अपने तरीके से की उपज एवं अभिव्यक्ति हैं। नि:संदेह सभी देशभक्त थे और आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। हम उनकी देश भक्ति पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकते हैं।
गीत वंदे मातरम् के दो अंतरों में देश और शेष अंतरों में देवी दुर्गा है का स्मरण
वंदे मातरम् एक गीत है। इसके शुरूआती दो अंतरे संस्कृत में है, शेष अंतरा बांग्ला में है। इस गीत के शुरूआती दो अंतरे देश तथा शेष अंतरे में देवी दुर्गा को स्मरण किया गया है। इस गीत के लेखक बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय है। अंग्रेजी शासन काल में डिप्टी कलक्टर बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय ने आनंद मठ उपन्यास लिखा, जिसका पात्र भवानंद सन्यासी वंदे मातरम् गीत गाता है। अंग्रेजी शासन के जुल्म, जमींदारों के शोषण और अकाल पीडि़त जनता की पृष्ठभूमि पर विकसित सन्यासी विद्रोह को लेकर लिखे गए उपन्यास आनंद मठ से वंदे मातरम् स्वाधीनता सेनानियों में लोकप्रिय हुआ। 1896 में कोलकाता में कांगेस के अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वंदे मातरम् का गायन किया था।
आजाद हिंद फौज में अभिवादन का उपक्रम बना जयहिंद
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन किया। तब फौजी जवानों के अभिवादन के लिए नेताजी के सचिव आबिद हसन सफरानी ने जयहिंद (शब्द) गढ़ा। यह नारा सबको बेहद पसंद आया और यह प्रेरणा का प्रभावशाली संचार सिद्ध हुआ। 1946 की एक चुनावी सभा में जवाहरलाल नेहरू ने भी जयहिंद के उद्घोष करने का आह्वान किया था। 15 अगस्त 1947 को पंडि़त नेहरू ने बतौर प्रथम प्रधानमंत्री प्रथम ऐतिहासिक भाषण दिया तो उसका समापन जयहिंद के उदघोष से किया था। नेहरू ने भाषण के अंत में जयहिंद कहने की परम्परा शुरू की, जो आज भी कायम है। हरेक धर्म-मजहब के लोग जयहिंद कहना स्वीकार है। भारतीय सेना और पुलिस के लिए तो जयहिंद आज अभिवादन का अभिन्न हिस्सा बन गया है।
आजादी के क्रांतिकारी दिवानों का प्राण-स्वर था इंकलाब जिंदाबाद
भारतीय स्वाधीनता के अप्रतिम योद्धा शहीदेआजम सरदार भगत सिंह और उनके साथियों ने इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया। रूसी क्रांति से लिए गए इस नारे को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फेंकते हुए भी बोला। 26 जनवरी 1930 को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन की जारी घोषणा-पत्र में इंकलाब जिंदाबाद था। उस घोषणा-पत्र को भगवतीचरण बोहरा और भगत सिंह ने संयुक्त रूप से तैयार किया था। पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड यूनियन पर अंकुश लगाने वाले बिल के विरोध में भगत सिंह और बटुकेश्वरदत्त ने असेम्बली में सिर्फ आवाज करने वाला बम फेंका था, जिसका उद्देश्य इंकलाब यानी क्रांति के बारे में बताना था। रूसी लेखक गोर्की के उपन्यास (मां) का नायक पावेल अपनी क्रांतिकारी विचारधारा को लोगों तक पहुचाने के लिए अदालत का उपयोग किया है। संभवत: है कि भगत सिंह और उनके साथियों को असेम्बली में बम फेेंककर जनता को आकृष्ट करने और अपने उद्देश्य को पहुंचाने का आइडिया मां (उपन्यास) से ही मिली हो। भगत सिंह ने अदालत में कहा था कि क्रांति के लिए खूनी लड़ाई अनिवार्य नहीं है। इसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय अन्याय पर आधारित समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन से है।
खूब लोकप्रिय था सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
स्वाधीनता आंदोलन के दरम्यान वंदे मातरम् गीत के अलावा डॉ. इकबाल की रचना (सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) भी बेहद लोकप्रिय थी। इस गीत को कौमी तराना माना गया है, इसलिए इसे स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर भी गाया जाता है। इस कौमी तराना की धुन प्रख्यात सितारवादक एवं संगीतज्ञ पंडि़त रविशंकर ने तैयार की। इस गीत में देश के प्रति गौरव की भावना जगाने और सभी धर्मो-मजहबों के प्रति सद्भाव के साथ जीवन जीने का संदेश है। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना, हिन्दी हैं हम वतन है हिंदोस्ता हमारा…।
जनाकांक्षा पूति में सरकारें विफल, समाज को बांटने का कुत्सित प्रयास
देश की मेहनतकश जनता किसानों-मजदूरों को आजादी के सत्तर साल गुजर जाने के बावजूद महाजनी सभ्यता के चक्रव्यूह से मुक्ति नहीं मिली है। युवाओं के समक्ष बेरोजगारी का खौफ खड़ा हैं। किसान कंगाल होते जा रहे हैं। मेहनतकश महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार आदि से त्रस्त हैं। आजाद भारत की लोकतांत्रिक सरकारें आम जनता को इन समस्याओं से निजात दिलाने में असमर्थ रही हैं। इससे पनपे जनाक्रोश के मद्देनजर लोगों को साम्प्रदायिकता, जातीयता, असहिष्णुता की दिशा में धकेलकर समाज को बांटने-कमजोर करने का प्रयास होता रहा है। यही वजह है कि स्वाधीनता आंदोलन की उपजे वंदे मातरम् को साम्प्रदायिकता के रंग में रंगने का प्रयास हो रहा है।
(संपादन : कृष्ण किसलय, तस्वीर संयोजन : निशांत राज)
लेखक : कुमार बिन्दु
निज संवाददाता, हिन्दुस्तान
सासाराम कार्यालय