फिल्म रिव्यू
व्यावसायिक फिल्मों के आज के दौर में कभी-कभी कुछ ऐसी फिल्में भी सामने आ जाती हैं, जो एकबारगी दर्शकों की चेतना को झिंझोड़ देती हैं। न्यूटन भी ऐसी ही फिल्मों में एक है, जो अपने राजनीतिक कथ्य और उसमें अंतर्निहित दृष्टि के लिए लंबे समय तक याद की जाएगी। यह फिल्म आज की चुनावी राजनीति के ऐसे यथार्थ को सामने लाती है, जो हर जागरूक व्यक्ति की चिंता का विषय है। राजनीतिक विषयों पर हिंदी में पहले भी फिल्में बनी हैं, पर कई बार उनमें इतनी ज्यादा नाटकीयता होती है कि यथार्थ बहुत सरलीकृत हो जाता है और वो दर्शकों पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। कई बार उनमें ऐसी फैंटेसी रच दी जाती है, जो दर्शकों को एक सुखांत की ओर ले जाती है पर उससे यथार्थ अपने समग्र रूप में सामने नहीं आ पाता है।
दरअसलए ऐसी फिल्में महज आईना बन कर रह जाती हैं और कई बार तो उनमें क्लाइमैक्स को भी आरोपित कर दिया जाता है, जो पूरी तरह अयथार्थ होता है। किसी भी कला माध्यम में यथार्थवाद का मतलब सिर्फ यह नहीं कि जो जैसा है, उसी रूप में दिखा दिया जाए। कला माध्यम चाहे कोई भी हो, जब तक यथार्थ में अंतर्निहित जटिल प्रक्रियाओं का निदर्शन न हो, वह सच्चाई को उसकी समग्रता में और जीवंतता के साथ नहीं ला पाता। सिनेमा जैसे माध्यम में यथार्थवादी चित्रण की संभावनाएं असीमित हैं। साथ ही, यह एक ऐसा माध्यम है जो जन चेतना में सकारात्मक बदलाव का वाहक हो सकता है।
अमित वी मासुरकर के निर्देशन में बनी न्यूटन ऐसी ही फिल्म है, जो दर्शकों के मन में उथल-पुथल पैदा कर देती है। बहुत ही सादे ढंग से बिना किसी शोर-शराबे के यह फिल्म आज की चुनावी राजनीति की जिस कड़वी सच्चाई को सामने लाती है, वह वाकई दाद-ए-काबिल है। ऐसी फिल्म सच में दशकों में बनती है। यही वजह है कि इसे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया है। 22 सितंबर को रिलीज हुई इस फिल्म को आम दर्शकों के साथ ही क्रिटिक्स की भी भरपूर सराहना मिल रही है। कहा जा सकता है कि यह फिल्म लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक करने के उद्देश्य से बनाई गई है। इसका उद्देश्य सतही मनोरंजन नहीं है, पर फिल्म की कथावस्तु ऐसी है कि दर्शक कहीं बोर नहीं होता।
अक्सर गंभीर राजनीतिक कथावस्तु वाली फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि उनके प्रति दर्शकों का आकर्षण कम होता है, क्योंकि उनमें मनोरंजन का तत्व नहीं होता। इस फिल्म के साथ ऐसा नहीं है। फिल्म की कहानी दर्शकों को बांधे रखती है। कहानी चुनाव की व्यवस्था के सच को सामने लाने वाली है। चुनाव को जनकवि बाबा नागार्जुन ने बहुत पहले ही एक प्रहसन कहा था। आज तो इसका स्वरूप और भी गंदा हो गया है।
सत्ता चुनाव से ही होकर निकलती है। देश में बहुत-से इलाके ऐसे हैं जो नक्सल प्रभावित हैं और वहां चुनाव कराना प्रशासन के लिए एक चुनौती होती है, क्योंकि कई बार नक्सली चुनाव का वहिष्कार कर देते हैं। सच ये है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जल्दी कोई अधिकारी चुनाव ड्यूटी नहीं करना चाहता है। फिल्म में छत्तीसगढ़ के नक्सील प्रभावित इलाके में चुनाव के लिए सरकारी कर्मचारियों का एक दल सुरक्षाकर्मियों के साथ भेजा जाता है। सुरक्षाकर्मियों के अधिकारी आत्मार सिंह (पंकज त्रिपाठी) हैं। चुनाव अधिकारी न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) है। वह एक आदर्शवादी अफसर है जो किसी भी परिस्थिति में समझौता करना नहीं जानता। उसके लिए ईमानदारी से बढ़ कर कुछ भी नहीं और अपने आदर्शों की रक्षा के लिए वह कुछ भी कर सकता है। लोग उसे घमंडी और अक्खड़ समझते हैं, पर वास्तव में उसके मन में भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति घृणा का भाव है। उसके जीवन में कहीं भी किसी तरह का दोहरापन नहीं है। दहेज के विरुद्ध होने के कारण उसका अपने पिता से भी विवाद होता है।
न्यूटन की ईमानदारी हमेशा ही उसके लिए समस्या बन जाती है, क्योंकि उसे अपने साथी अफसरों के कटाक्षों और विरोध का सामना करना पड़ता है। चुनाव कराने के लिए जब वह निकलता है तो उसके साथ तीन कर्मचारियों की टीम है, जिनमें एक स्थानीय शिक्षिका मलको भी है। चुनाव के लिए निकलने से पहले की एक ब्रीफिंग में अपने सवालों से वह सबका ध्यान खींचता है। उसके साथ के अधिकारी कहते हैं कि उसकी दिक्कत ईमानदारी का घमंड है। न्यूटन की दिक्कत ये है कि भ्रष्ट तंत्र में जहां एक भ्रष्टाचारी की इज्जत होती है, वहीं ईमानदार घमंडी और अक्खेड़ ही नहीं, पागल तक घोषित कर दिए जाते हैं। न्यूटन जैसे अधिकारी ने कहीं से क्रांति की दीक्षा नहीं ली है, बल्कि अपनी स्वाभाविक ईमानदारी के चलते वह दूसरों को क्रांतिकारी लगने लगता है। यही इस चरित्र की खासियत और ताकत है।
निर्देशक अमित वी मासुरकर ने बगैर किसी लाग-लपेट के एक जटिल राजनीतिक कहानी को बुना है, जो परत-दर-परत सच्चाई को सामने लाती है। फिल्म में दुर्गम आदिवासी इलाकों में चुनाव और नक्सली प्रभाव के बीच सत्ता तंत्र के दबाव व द्वंद्व के बीच जूझ रहे आदिवासी हैं। उनके प्रति सिस्टम के रवैए को हम आत्मा सिंह की प्रतिक्रियाओं से समझ सकते हैं। न्यूटन जैसे ईमानदार अफसर का संघर्ष और जनतंत्र के प्रति उसकी आस्था उनमें एक उम्मीद जगा देती है। फिल्म में तनाव और घटनाओं के प्रवाह के बीच हास्य पैदा कर निर्देशक ने दर्शकों को बांधे रखने की सफल कोशिश की है। कहा जा सकता है कि कभी आमने-सामने खड़े और कभी समानांतर चलते न्यूटन कुमार और आत्मा सिंह हमारे समय के प्रतिनिधि चरित्र हैं।
जनतंत्र में चुनाव के नाम पर चल रहे खेल को उजागर करते हुए यह फिल्म देश के सड़े-गले तंत्र की हर परत को खोल कर सामने रख देती है। अलग से कुछ कहने को रह नहीं जाता। जाहिर है, इस फिल्म को देखते हुए दर्शकों को आसानी से समझ में आ जाता है कि लोकतंत्र में चुनाव का खेल कितना बड़ा धोखा है। फिल्म दर्शकों को मर्माहत करती है और ऐसे सवाल छोड़ देती है, जिससे आगे वे जूझते ही रहेंगे। इस तरह फिल्म उनकी चेतना में कुछ हिलोर पैदा करती है। फिल्म की खासियत ये है कि दर्शकों के मन में खुद-ब-खुद सवाल पैदा होने लगते हैं। न्यूटन कुमार का संघर्षशील व्यक्तित्व ही राजनीतिक सवालों के पैदा होने का माध्यम बनकर उभरता है।
न्यूटन के रूप में राजकुमार राव का अभिनय अद्वितीय है। पंकज त्रिपाठी का अभिनय भी कम नहीं। दोनों ने अपने सधे अभिनय से अपने किरदारों को पूरी तरह जीवंत कर दिया है। राजकुमार राव ने न्यूटन के जटिल चरित्र को बहुत ही सहजता से जिया है। अंजलि पाटिल ने भी सशक्त अभिनय किया है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकली इस अभिनेत्री की अभी कुछ ही फिल्में आई हैं, पर इन्होंने सबमें अपनी एक अलग छाप छोड़ी है। नक्लसियों से लड़ रहे जवानों के लीडर आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी), रिटायरमेंट के कगार पर खड़े मंजे हुए सीनियर अधिकारी लोकनाथ (राजपाल यादव) और स्कूल टीचर मलकू (अंजलि पाटिल) की भूमिका भी बहुत मंजी हुई है।
मासुरकर ने इससे पहले सुलेमानी कीड़ा नाम की फिल्म बनाई थी, जो फिल्म इंडस्ट्री में लेखकों के संघर्ष की कहानी थी। न्यूटन में यह सवाल उठाया गया है कि चुनावों के माध्यम से लोकतंत्र को कैसे और कब तक बचाया जा सकेगा? फिल्म में सवाल यही है कि किस तरह होगा चुनाव नक्सलियों के डर के बीच? कौन वोट डालेगा? कैसे बचेगा लोकतंत्र और कौन बचाएगा इसे? यह हिंदी की 30वीं फिल्म है, जिसे ऑस्कर के लिए भेजा गया है।
– वीणा भाटिया 9013510023
निर्माता : मनीष मुंदड़ा
निर्देशक: अमित वी. मासुरकर
कलाकार : राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, राजपाल यादव, अंजलि पाटिल आदि।
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