पैसा बोलता है : बिहार में 52 साल पहले मृदुला गर्ग ने अकाल पीडि़तों के सहायतार्थ किया था नाटक

हिन्दी की अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखिका मृदुला गर्ग से कृष्ण किसलय की साक्षात्कार वार्ता

हिन्दी की अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखिका मृदुला गर्ग अपने यशस्वी जीवन के 80 वसंत पार कर चुकी हैं। आज इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को ही होगी कि 52 साल पहले उन्होंने औद्योगिक उपनगर डालमियानगर में बिहार के अकाल पीडि़तों की मदद के लिए नाटक किया था, जिसका नाम था पैसा बोलता है। तब वह जमाना था, जब सामाजिक वर्जना के कारण नाटक या किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए बिहार के छोटे क्या, बड़े शहरों में भी महिलाएं आम तौर पर तैयार नहीं होती थीं। 21वीं सदी में आज भले ही सड़कों पर पति-पत्नी खुलेआम हाथ में हाथ डाले या कंधे पर हाथ रखकर बेहिचक से गुजरती हों, मगर तब आज के जमाने के हिसाब से यह चौंकाने वाली बात थी कि आधुनिकता के आगाज माने जाने वाले सिनेमाघर (डालमियानगर, डेहरी-आन-सोन) में भी फिल्म देखने के लिए पति-पत्नी को महिला-पुरुषों की अलग-अलग कतार में बैठना पड़ता था। 20वीं सदी के उस बीते दौर में बिहार के औद्योगिक उपनगर डालमियानगर (डेहरी-आन-सोन) में अपने अभिनय का सार्वजनिक प्रदर्शन मृदुला गर्ग के लिए सचमुच साहस भरा काम था। दरअसल, डालमियानगर को तीन पीढिय़ों की अग्रणी विदुषी महिलाओं दिनेशनंदिनी डालमिया, रमारानी जैन और इन्दू जैन का आर्शीवाद प्राप्त होने से वहां का सांस्कृतिक-साहित्यक वातावरण समृद्ध था।
दिल्ली विश्विद्यालय में तीन साल पढ़ाने के बाद आई थी डालमियानगर
कोलकाता में 1938 में जन्मी मृदुला गर्ग ने 1960 में अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर के बाद तीन साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया था। उसके बाद वह पति के साथ डालमियानगर आई थीं। वह डालमियानगर में अपने पति के साथ करीब पांच साल (1963-67) सक्रिय रही थीं, तब उन्होंने लिखना शुरू नहीं किया था। मगर डालमियानगर के रंगकर्म की सक्रियता ने ही उनमें लेखन-कला का बीजारोपण किया। जैसाकि मृदुला जी बताती हैं, मैंने वहांं (डालमियानगर) में काफी नाटक किए थे, जिनमें पैसा बोलता है और लक्ष्मीनारायण लाल का नाटक (दर्पण एक था) के साथ मैथिलीशरण गुप्त के नाटक-अंश भी थे। पर, तब मैं लिखती नहीं थी।

शादीशुदा औरतों को मना लिया पराए मर्दों के साथ नाटक करने के लिए

एनसीआरटी द्वारा प्रकाशित पुस्तक (कृतिका) के वर्ष 2015 के संस्करण (प्रथम संस्करण वर्ष 2006) में पेज-24 पर मृदुला गर्ग की स्मृतियों पर आधारित संस्मरणात्मक कहानी (मेरे संग की औरतें) में 2015 के उनके शब्दों में लिखा गया है- शादी के बाद मैं बिहार एक ऐसे छोटे कस्बे (डालमियानगर) में रही, जहां मर्द-औरतें, चाहे पति-पत्नी क्यों न हों, पिक्चर देखने भी जाते तो अलग-अलग दड़बों में बैठते। मैं दिल्ली से कालेज की नौकरी छोड़कर वहां पहुंची थी और नाटकों में अभिनय करने की शौकीन रही थी। मैंने उनके चलन से हार नहीं मानी। साल भर के भीतर, उन्हीं शादीशुदा औरतों को पराए मर्दों के साथ नाटक करने के लिए मना लिया। अगले चार साल तक हमने कई नाटक किए। अकाल राहत कोष के लिए, उन्हीं के माध्यम से पैसा भी एकत्र किया। वहां से निकली तो कर्नाटक के और भी छोटे कस्बे (बागलकोट) में पहुंच गई। तब तक मेरे दो बच्चे हो चुके थे, जो स्कूल जाने लायक उम्र पर पहुंच रहे थे, पर वहां कोई ढंग का स्कूल नहीं था।

डालमियानगर छोडऩे के बाद लिखना शुरू किया, लिखे कई चर्चित नाटक
देश की राजधानी नई दिल्ली में रहने वाली मृदुला गर्ग आज देश-विदेश में विस्तृत हिन्दी कथा-पाठकों के संसार में चित्त कोबरा, कठगुलाब जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों और एक और अजनबी, कितने कैदी जैसे बहुचर्चित नाटकों की लेखिका के रूप में सुपरिचित हैं। साहित्य अकादमी, सेठ गोविंददास सम्मान, व्यास सम्मान, स्पंदन कथा शिखर सम्मान से नवाजी गई मृदुला गर्ग की अनेक रचनाओं का अंग्रेजी में भाषांतरण-रूपांतरण भारतीय भाषाओं के साथ चेक, जर्मन और अंग्रेजी भाषाओं में हो चुका है। मृदुला गर्ग ने डालमियानगर (बिहार) छोडऩे के बाद 1970 से दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में रहते हुए लिखना शुरू किया और 1972 में उनकी पहली कहानी प्रतिष्ठित पत्रिका सारिका में छपी। उसी वक्त नटरंग (विशिष्ट रंग पत्रिका) में उनका नाटक (एक और अजनबी) प्रकाशित हुआ। इसके बाद वह बागलकोट में रही, जो उनके लिए लेखन का सर्वाधिक सक्रिय समय था। जैसाकि उनका कहना है, आरंभ में वह अपने बड़े बेटे को सुलाकर बेटे की पीठ पर कापी रखकर लिखा करती थीं।

जिस इलाके में अकाल का असर ज्यादा, वहां ले जाते थे अनाज और पौष्टिक भोजन
मृदुला गर्ग बताती हैं, हमारा कोई रंगमंडल नहीं था। मैं और कुछ मित्र मिलकर शौकिया नाटक करते थे, जिनमें रोहतास उद्योगसमूह में काम करने वाले, उनकी पत्नी या बेटे-बेटी शामिल होते थे। यह जानकर अचरज होगा कि उस समय 1964-66 में जब वहां (डालमियानगर, डेहरी-आन-सोन में) पति-पत्नी सिनेमा देखने जाते थे तो अलग-अलग मर्द-औरतों के साथ बैठते थे, तब के जमाने में मैंने स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर नाटक किए थे। एक माथुर परिवार था, जिनके घर की स्त्रियां बहुत बढि़य़ा अभिनय करती थीं, खुल कर। एक बंगाली दम्पति (केसी घोष, रेखा घोष) थे, जो नाटक का कलापक्ष देखते थे, क्या ख़ूब देखते थे। वे सचमुच कलाकार थे। पोशाक, लाइटिंग सबका जिम्मा उनका रहता था। निर्देशन मैं और घोष साहब मिलकर करते थे। एक बार एक सज्जन को बेटी के अभिनय करने पर कुछ एतराज हुआ था, पर हम लोगों का रिहर्सल देखने के बाद वे ख़ुद एक किरदार की भूमिका में उतर आए। मेरे पति के इन्डस्ट्रियल इन्जीनियरिंग विभाग के युवा अफसर भी अभिनय करते थे।

हमने अकाल पीडि़तों की राहत के लिए नाटक किया था- पैसा बोलता है। उसे देखने कोलकाता से रंगकर्मी शंभु मित्र आए थे। अकाल राहत कोष के लिए हमने लाख रुपये जमा किए थे। जिस इलाके में अकाल का असर ज्यादा था, वहां हम अनाज और पौष्टिक भोजन लेकर जाते थे। एक डाक्टर भी साथ होते। आज की तरह प्रचार करने की बात हममें से किसी के दिमाग में आई ही नहीं।
डालमियानगर में नाटक देखने वाले परिवार थे तो साहित्य पढऩे वाले भी थे
वहां (डालमियानगर में) नाटक देखने वाले अनेक परिवार थे, साहित्य पढऩे वाले भी। घोष दम्पत्ति अब नहीं रहे। माथुर परिवार पता नहीं कहां है? पिछले दिनों कानपुर गई थी तो वहां एक मित्र जो मेरे समय में डालमियानगर रही थीं, ने एक नाटक का चित्र मुझे दिया था। सितम्बर 2015 में फेमिना (हिन्दी) ने मुझ (मृदुला गर्ग) पर जो फीचर प्रकाशित किया, उसमें अभिनय करते हुए मेरा चित्र छापा। पर, वह चित्र डालमियानगर का नहीं, कालेज के दिनों का है। डालमियानगर के चित्र कहीं तो पड़े ही होंगे, जमाना गुजर गया। आप (कृष्ण किसलय) की बात सही है, डालमियानगर में नहीं रही होती तो शायद अर्थशास्त्र ही पढ़ाती रहती, लेखन शुरू नहीं करती।

(विशेष रिपोर्ट : कृष्ण किसलय, तस्वीर संयोजन : निशान्त राज)

 

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