संकट में पृथ्वी : ट्रस्टी बने रहने के बजाय मालिक बन बैठा आदमी

विश्व पृथ्वी दिवस (२२ अप्रैल) पर विशेष

जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी अपने भौगोलिक इतिहास के सबसे संकट भरे दौर से गुजर रही है। जाहिर है कि जब जीवनदायिनी पृथ्वी ही संकट में है, तब इस पर रहने वाले जीव-जंतु और पेड़-पौधे, वनस्पति आदि सभी के साथ संपूर्ण मनुष्य जाति भी संकट में में है। पृथ्वी का पारिस्थितिक तंत्र गड़बड़ हो चुका है और पृथ्वी का वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) का असर साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण आसन्न भंयकर खतरे के प्रति वैज्ञानिक लगातार आगाह करते रहे हैं। पृथ्वी के भौगोलिक इतिहास में मौजूद पारिस्थितिक परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण के लिए आदमी सबसे अधिक जिम्मेदार है, क्योंकि उसने अपनी बेहिसाब बढ़ती आबादी के लिए जंगल, खनिज व अन्य प्राकृतिक संपदा का अनियंत्रित, अराजक, स्वार्थलोलुप दोहन कर धरती को अपाहिज बना दिया है और अपने साथ दूसरी जीव प्रजातियों को भी गहरे संकट के गह्वर में धकेल दिया है। जबकि आदमी भी अन्य जीव-जंतुओं की तरह किरायेदार की तरह है, मगर वह अपनी बौद्धिक और तकनीकी विकास की ताकत से ट्रस्टी बने रहने के बजाय पूरी पृथ्वी का मालिक बन बैठा है।

वैज्ञानिकों ने  पर्यावरण प्रदूषण को सबसे बड़ा खतरा बताया
वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर बढ़ती जनसंख्या के दबाव और मानवजनित प्रदूषण के चलते बदल रहे वातावरण को मानव अस्तित्व के लिए ही सबसे बड़ा खतरा बताया है। 26 साल पहले वर्ष 1992 में 1700 स्वतंत्र वैज्ञानिकों ने ‘वल्र्ड साइंटिस्ट्स वार्निंग टू ह्यूमैनिटीÓ नामक पहला चेतावनी पत्र जारी कर यह कहा था कि मनुष्य और प्राकृतिक विश्व एक-दूसरे के सामने टकराव की मुद्रा में खड़े हैं। वैज्ञानिकों की पहली चेतावनी के 26 सालों में भी धरती का संकट घटने के बजाय लगातार बढ़ता गया है। वर्ष 1970 के बाद तो कार्बन-डाइ-आक्साइड के उत्सर्जन में 90 फीसदी बढ़ोतरी हुई है, जिसमें 78 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोल व गैस) की भागीदारी है। पिछले 25 वर्षों में पृथ्वी का औसत तापमान आधा डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। 1992 से अब तक समुद्र के उस डेड जोन में 75 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जिस जोन में समुद्री जीव जिंदा नहीं रह सकते। इस कारण मछलियों की 2300 तरह की प्रजातियां खतरे में हैं।

पिछले साल (2017) भी ओरेगॉन स्टेट यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर विलियम रिपल के नेतृत्व में 184 देशों के 16 हजार वैज्ञानिकों के हस्ताक्षर से पर्यावरण को लेकर मानव जाति के नाम दूसरी चेतावनी जारी की गई। वैज्ञानिकों के दूसरे चेतावनी पत्र में कहा गया कि मनुष्य की गलत कार्यनीतियों व गतिविधियों की वजह से धरती पर जमीन, समुद्र और हवा संकट में है।
वैज्ञानिकों की चेतावनी के मद्देनजर 2018 की जनवरी का उदाहरण भारत के सामने आ चुका है, जो पिछले 117 सालों में देश के इतिहास की सबसे सूखी जनवरी साबित हो चुकी है। देश में मौसम का रिकॉर्ड रखने की व्यवस्था 1901 में शुरू हुई। तब से जनवरी माह में देश में औसत बारिश 19.2 मिली मीटर होती रही है, जबकि इस जनवरी में औसतन सिर्फ 2.2 मिली मीटर बारिश हुई। मघेर यानी जनवरी (माघ) की बारिश रबी की फसल, जलस्रोतों के रिचार्ज होने, ग्राउंडवॉटर आदि के लिए महत्वपूर्ण होती है और यह बारिश प्रदूषण को भी कम करने में अपनी भूमिका का निर्वाह करती है। जल संरक्षण की गति नहीं बढ़ाई गई तो देश में 2030 तक पेयजल की उपलब्धता 40 फीसदी कम हो जाएगी। बढ़ती आबादी के अनुपात में खाद्यान्न की उपलब्धता का संकट तो लगातार बढ़ ही रहा है।

 आज परमाणु युद्ध से भी बड़ा खतरा पर्यावरण प्रदूषण

डूम्ड-डे क्लाक की मानें तो पर्यावरण प्रदूषण आज परमाणु युद्ध से भी बड़ा खतरा बन चुका है। बढ़ती आबादी और प्रदूषण के चलते बदल रहा पर्यावरण और गर्म होता मौसम मानव अस्तित्व के मद्देनजर खतरनाक दौर में कदम रख चुका है। संभव है कि परमाणु युद्ध टाला जा सके, मगर पर्यावरण-प्रदूषण का खतरा अटल है जो निरंतर सुरसा की तरह फैलता जा रहा है। डूम्ड-डे क्लाक की स्थापना 47 साल पहले सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग सहित दुनिया के 15 एटोमिक वैज्ञानिकों ने मानव निर्मित प्रलय की स्थिति को बताने के लिए की है। इस घड़ी की स्थापना के वक्त इसकी सूइयां 11 बजकर 53 मिनट पर टिकाई गई थीं, जिन्हें खतरा घटने व बढऩे के हिसाब से 22 बार आगे-पीछे किया जा चुका है।
पर्यावरण को लेकर दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने जो दूसरी चेतावनी पर बेहद गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। पृथ्वी को बचाने के लिए आदमी को कई आदतें छोडऩी होंगी और हर हाल में प्रदूषण पर अंकुश लगाना होगा, हरियाली बढ़ानी होगी। वैज्ञानिकों की चिंता और चेतावनी का निष्कर्ष यही है कि पृथ्वी के साथ आदमी का भविष्य भी खतरे में है और ग्लोबल वार्मिंग को रोकने व जैव विविधता को बचाने के लिए अधिकतम प्रयास के लिए सरकार व समाज दोनों स्तरों पर जागरूकता की अत्यंत जरूरत है।

-कृष्ण किसलय,

समूह संपादक,

सोनमाटी मीडिया समूह

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