एक नूमना–
‘राज्य अपनी नीति इस प्रकार संचालित करेगा कि सुनिश्चित रूप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी केंद्रीकरण न हो।’
पर हुआ क्या ? जो कुछ हुआ, वह जल्द ही एक बड़े नेता की जुबान से सामने आ गया। सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी. संजीवैया को इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे। गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘झोपडि़यों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’
अब जरा अनुमान लगाए कि 1963 के एक करोड़ की कीमत आज कितनी होगी ? 1971 के बाद तो लूट की गति तेज हो गयी। अपवादों को छोड़कर सरकारों में भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया। समय बीतने के साथ सरकारें बदलती गयीं और सार्वजनिक धन की लूट पर किसी एक दल एकाधिकार नहीं रहा। अपवादों को छोड़कर लूट में गांधीवाद और नेहरूवाद के साथ -साथ समाजवाद ,लोहियावाद , ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’, आम्बेडकरवाद से जुड़े लोग तथा अन्य तत्व भी शामिल होते चले गए। सरकार के सौ में से 85 पैसे जनता के यहां जाने के रास्ते में बीच में ही लुप्त होने लगे।
1991 में शुरू आर्थिक उदारीकरण के दौर के बाद तो राजनीति में धन के अश्लील प्रदर्शन को भी बुरा नहीं माना जाने लगा। और, अब तो इस देश के कई दलों के अनेक बड़े नेताओं के पास अरबों-अरब की संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है और वे बढ़ती ही जा रही है।लगता है कि उसके बिना वह बड़ा नेता कहलाएगा ही नहीं।
परिणाम–
23 जनवरी 2018 के एक अखबार का शीर्षक है – ‘देश में 2017 में जितनी संपत्ति बढ़ी उसका 73 प्रतिशत हिस्सा, यानी 5 लाख करोड़ रुपए सिर्फ 1 प्रतिशत अमीरों के पास पहुंचा।’
जिस देश के राजनीतिक नेता अरबों-अरब कमाएंगे तो उनकी प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद से उस देश के व्यापारी खरबों -खरब कमाएगा ही !
भाड़ में जाए करोड़ों – करोड़ वह जनता जिसे आज भी पेट को अपनी पीठ से अलग रखने के लिए एक जून का भोजन किसी तरह मिल पाता है !
संक्षेप में, यही है अपने आजाद भारत की साढ़े सत्तर साल की कहानी !ंइसी के साथ हम अगले शुक्रवार को एक और गणतंत्र दिवस मनाएंगे।
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर, पटना
के फेसबुक वाल से)