एक सदी से अधिक समय की लंबी यात्रा करने वाले भारतीय सिनेमा की दास्तान कठिन संघर्ष, सघन श्रम, तपोमय मेधा-संयोजन के दिलचस्प उतार-चढ़ाव से भरा हुआ है। आरंभ में सिनेमा खानाबदोशों की तरह जगह-जगह प्रदर्शन के लिए बनाया गया, जो बाद में विधिवत तैयार हुए सिनेमाघरों में शिफ्ट हुआ। भारतीय सिनेमा को मूक से स-वाक बनने में तो 35 सालों का निरंतर उद्योग करना पड़ा था। सोन-घाटी (आरा, बिहार) के निवासी चर्चित साहित्यकार-पत्रकार-फिल्मकार सलिल सुधाकर इन दिनों भोजपुरी फिल्म (बलम जी लव यू) में अपनी मुख्य भूमिका के अभिनय में व्यस्त हैं, जिसकी शूटिंग जारी है। इस प्रसंगवश भारतीय सिनेमा के एक सदी से अधिक समय के सफर पर हिन्दीसमय से उनके विशेष आलेख का संपादित अंश सोनमाटीडाटकाम के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
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7 जुलाई 1896 को भारत में सिनेमा के कदम पहली बार पड़े थे, उस समय फ्रांस से यहां आए लुमिअर बंधुओं ने सिनेमेटोग्राफी के जरिए भारतीय दर्शकों का सर्वप्रथम पश्चिम परदे पर चलती-फिरती तस्वीरों से कराया था और चौंकाते हुए तब की बंबई के वारसंस होटल में लुमिअर बंधुओं ने छह लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया था। यह वह समय था, जब परदे पर तस्वीरों को चलते-फिरते देखने की कल्पना कोई नहीं कर सकता था। इसीलिए इस प्रदर्शन को इस तरह से विज्ञापित-प्रचारित किया गया था कि आपके शहर में शताब्दी का सबसे बड़ा चमत्कार होने जा रहा है। लोग आकर्षित हुए और टिकट लेकर फिल्में देखी तो सचमुच आश्चर्यचकित रह गए। यह मनोरंजन के एक नए अध्याय की शुरुआत थी। तब तस्वीरें बोल नहीं सकती थीं। फिर भी इन तस्वीरों का जादू दर्शकों के सिर पर इस तरह चढ़ा कि मुंबई के वारसंस और नॉवेल्टी में अपार भीड़ इक_ा होने लगी। उस जमाने में आठ आना, चार आना भी बहुत महत्व रखता था। इन तस्वीरों को देखने के लिए चार आना, आठ आना के टिकटों की व्यवस्था भी दर्शकों के उत्साह को रोक नहीं सकी थी। उन तस्वीरों ने भारत में अपने प्रथम प्रदर्शन के साथ तहलका मचा दिया था।
1900 तक सिनेमा के नाम पर चलती-फिरती तस्वीरों का ही संयोजन
हालांकि सन 1900 तक सिनेमा के नाम पर चलती-फिरती तस्वीरों का ही संयोजन होता रहा। दर्शकों में तस्वीरों के प्रति उत्साह के मद्देनजर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ। भारत में भी कई लोग ऐसी फिल्में बनाने के लिए मैदान में उतरे और कई लघु फिल्मों का निर्माण हुआ। उन तस्वीरों में कथात्मकता नहीं थी। न ही विचारों के लिहाज से उनमें बहुत कुछ संप्रेषित हो पा रहा था। लिहाजा निर्माता फॉर्मेट (तकनीकी) की बेहतरी के साथ कंटेंट (विषय वस्तु) को महत्व देना शुरू किया और कथा-केंद्रित फिल्में बनने लगीं। जब फिल्में कथा-केंद्रित हुईं तो उनकेविषय भी भारतीय होने शुरू हुए। कुछ निर्माताओं ने मिलकर एक फिल्म बनाई पुंडलिक, जो 18 मई 1912 को मुंबई के कोरेनेशन सिनेमा में रिलीज हुई। साल भर बाद 3 मई 1913 को भारतीय सिनेमा के आदि पुरुष दादा साहब फाल्के की बनाई हुई देश की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र पूरे बाजे-गाजे के साथ प्रदर्शित हुई। उसने धमाल मचा दिया। अभी बोलती फिल्मों का आगमन बाकी था। तब गुलाम भारत अभिव्यक्ति और मनोरंजन के इस सर्वथा नए व सबसे प्रभावी तकनीक को ठीक से अपनाने की स्थिति में नहीं था। अपनी तमाम कमियों-खामियों, तकनीकी अपरिपक्वता के बावजूद भारतीय सिनेमा अंतत: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार किया जाने लगा।
1931 में बनीं भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा
सन 1931 में बनीं आलम आरा से भारतीय फिल्में बोलने भी लगीं। देश के जनमानस और सामाजिक जीवन पर धार्मिक पृष्ठभूमि पर बनी पौराणिक फिल्मों ने अपनी छाप छोड़ी। भारतीय वाङ्मय में कथा-गीतों, काव्यों में शताब्दियों से रचे-बसे पौराणिक एवं धार्मिक पात्रों को दर्शक पत्थर की मूर्तियों से बाहर निकलकर सिनेमा के रूपहले पर्दे पर चलते-फिरते-बोलते देख भी सकते थे। पौराणिक पात्रों वाली फिल्मों ने निरंतर लोकप्रियता हासिल की। भारतीय जनमानस का सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ाव अत्यंत गहरा होने के कारण ही शुरुआत के तीन-चार दशकों तक फिल्मों में पौराणिक कथाएं बार-बार दोहराई जाती रहीं। पौराणिकता के बाद सिनेमा का रुख ऐतिहासिक विषयों की तरफ मुड़ा। 1931 में आर्देशिर ईरानी ने भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनाई थी। तब उन्हें अपने सहयोगी रुस्तम भरूचा के साथ लंदन जाकर 15 दिनों में ध्वनि मुद्रण की कला सीखनी पड़ी थी और मात्र उतने से ही तजुर्बे पर उन्होंने आलम आरा में आवाज रिकार्ड की थी। स्टूडियो के अंदर लाइट जलाकर शूटिंग करने का प्रयोग भी उन्होंने ही यहां शुरू किया था।
हिंदी सिनेमा ने भी जन सरोकारी भूमिका का परिचय
फिल्में भारतीय जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी थीं। उनका असर भी समाज पर पडऩे लगा था। हर घर में इन फिल्मों के विषय, संगीत, किरदार, प्रासंगिकता, आदर्श, संदेश, सफलता-विफलता आदि को लेकर चर्चाएं होने लगीं। सिनेमा की व्यापक सामाजिक स्वीकृति ने उसे उसके कर्तव्यों के प्रति गंभीर कर दिया। एक अंतराल के बाद भारतीय सिनेमा और खास करके हिंदी सिनेमा भी अपनी मौलिकता एवं जन सरोकारी भूमिका का परिचय देना शुरू कर दिया। इसलिए आजादी से पहले अछूत कन्या जैसी फिल्म सामने आई। बाद में बांग्ला में सत्यजित राय ने पथेर पांचाली और ऋत्विक घटक ने मेघे ढाका तारा, बिमल राय ने हिंदी में दो बीघा जमीन जैसी फिल्में बनाकर भारतीय सिनेमा को नई अर्थवत्ता प्रदान की। राजकपूर की आवारा, श्री चार सौ बीस, जागते रहो तक आते-आते भारतीय सिनेमा वैचारिक और समृद्ध हो गया।
सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से ही बनीं फिल्में भी बेहद सफल
हिंदी सिनेमा के विकास-क्रम में नायकों को दर्शकों ने निरंतर सिर आंखों पर बैठाया। नायकों की शृंखला में बाद में राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार, विश्वजीत, जॉय मुखर्जी, राजकुमार, सुनील दत्त, जितेंद्र, धर्मेंद्र, शम्मी कपूर, शशि कपूर, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, मिथुन चक्रवर्ती से लेकर अमिताभ बच्चन तक के नाम जुड़ते चले गए। इनके बगैर भारतीय सिनेमा और हिंदी सिनेमाई परिदृश्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ये सब भारतीय सिनेमा की धरोहर हैं। इतने सारे नायकों की फिल्मों तक पहुंचते-पहुंचते सिनेमा ने सात दशकों का समय पार कर लिया था। अनेक फिल्में बनीं, जो स्वस्थ मनोरंजन और उद्देश्यपूर्ण होने की शर्तों को पूरा करते हुए हिंदी सिनेमा को मौलिक पहचान देने में कमयाब रहीं। हालांकि बहुत सारी फिल्में सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से ही बनीं, बेहद सफल भी साबित हुईं।
सामानांतर फिल्मीकरण की बोझिलता, संतुलित फिल्में बनाने की बुनियाद
सिनेमा अपने आर्थिक वजूद के लिए मनोरंजन को बुनियादी शर्त मानकर सामाजिक-पारिवारिक दायरे को भी साथ लिए चलता रहा। इसके समानांतर भारत में सत्यजित राय की पथेर पांचाली के आगमन के साथ ही नई धारा की सिनेमा ने भी दस्तक दी। यह सिलसिला कमोबेश आज तक जारी है। नई धारा या सामानांतर फिल्मीकरण की बोझिलता से बचाते हुए संतुलित फिल्में बनाने की बुनियाद सही ढंग से गुरुदत्त जैसे फिल्मकारों ने डाली। इस सिद्धांत का भरपूर व्यावहारिक अभिव्यक्ति बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, गौतम घोष, मृणाल सेन, अडूर गोपाल कृष्णन आदि निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में दी। आठवें दशक तक सामानांतर सिनेमा के निर्माण में तेजी आई और देश के प्रबुद्ध वर्ग की ऐसी फिल्मों में रुचि बढ़ी। आजादी के बाद आठवें दशक में देश का आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक फलक तेजी से बदलने था। इस बदलते परिप्रेक्ष्य में यथार्थपरक फिल्मों की जरूरत महसूस की जाने लगी थी।
नब्बे के दशक में अर्थपूर्ण एवं यथार्थवादी सिनेमा काफी सशक्त हुआ
श्याम बेनेगल की अंकुर, गोविंद निहलानी की आक्रोश, अर्धसत्य जैसी विचारात्तेजक फिल्में सामने आईं। महेश भट्ट जैसे निर्देशक सारांश के जरिए स्थापित हुए और उन्होंने अर्थ जैसी बेहद खूबसूरत अग्रणी फिल्म दी। भीमसेन की घरौंदा फिल्म भी खूब पसंद की गईं। बासु चटर्जी की सारा आकाश भी इसी सिलसिले की एक महत्वपूर्ण फिल्म कड़ी थी। नब्बे के दशक में अर्थपूर्ण एवं यथार्थवादी सिनेमा काफी सशक्त हुआ था। इसने देश को काफी अच्छे अदाकार-निर्देशक दिए। नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, अमरीश पुरी, कुलभूषण खरबंदा, मोहन आगाशे, अमोल पालेकर आदि कई अभिनेता इसी धारा से आए। मगर यह सिलसिला नब्बे के दशक के खत्म होते-होते थोड़ा थम गया। इस समय तक सुपर स्टार राजेश खन्ना का दौर लगभग खत्म हो चला था और महानायक अमिताभ बच्चन परवान चढ़ चुके थे। उनकी एंग्री यंग मैन वाली छवि के दौर में यथार्थपरक फिल्मों को झटका लगा। छोटे बजट वाली सार्थक फिल्मों के लिए वित्तीय व्यवस्था जुटाने में दिक्कतें आने लगी। लिहाजा समानांतर सिनेमा के पैरोकार निर्माता-निर्देशक सामाजिक सरोकार छोड़कर घर बैठ गए।
भूमंडलीकरण के दौर में सिनेमा पर कारपोरेट कंपनियों का कब्जा
इसके बाद आया सामाजिक विषमता को चरम पर पहुंचाने वाला भूमंडलीकरण का दौर। इस दौर में देश भर में नवधनाढय वर्ग पैदा हुआ, जिसकी जरूरतों के मद्देनजर बहुराष्ट्रीय कंपनियां और उनके उत्पाद का नया महंगा बाजार खड़ा हो गया, जिसमें देश के नब्बे प्रतिशत जनता का प्रवेश संभव नहीं रह गया। इसलिए नवधनाढ्य वर्ग की क्रय शक्ति को आंकते हुए बड़े-बड़े मॉल, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर अस्तित्व में आए, जो तड़क-भड़क और उत्तेजक मनोरंजन के लिए स्थान था। सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम पर कारपोरेट कंपनियों का कब्जा हो गया। फिल्म वितरण और सिनेमाघरों की उपलब्धता भी कॉरपोरेट कंपनियों की गिरफ्त में जा फंसी। इस हमले को वंचित जनता के जीवन के यथार्थ के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्ति देने वााल समानांतर सिनेमा झेल नहीं पाया। फिल्में जिंदगी (आम आदमी की) से बहुत दूर हो गईं और जिनका मुख्य उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना रह गया। कभी-कभी आमिर खान जैसे अभिनेताओं ने इक्का-दुक्का अर्थपूर्ण एवं सार्थक फिल्में जरूर बनाई। आज नवधनाढ्य वर्ग जिन फिल्मों को प्रश्रय देता है, निर्माता वही बनाता है और सारा देश वही देखने को बाध्य होता है। अच्छी कही जाने वाली थ्री इडियट्स जैसी फिल्म भी घोर फंतासी है, जिसके प्रयोग थिएटर में देखे जा सकते हैं, आजमाए नहीं जा सकते। कभी-कभार मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसी फिल्म अपने मजाकिया शिल्प के जरिए कुछ जरूरी सवाल खड़ा कर जाती हैं, पर हमेशा नहीं।
सिमट गई जनसरोकारीय भूमिका, बॉक्स ऑफिस की सफलता से मतलब
जाहिर है, एक सदी से अधिक समय के सफर में भारतीय सिनेमा मूक युग से चलकर आज तकनीकी ऊंचाई तक पहुचकर बहुत ही विकसित, मगर महंगा भी हो गया है। उसकी जनसरोकारीय भूमिका अत्यंत सिमट गई है। विश्व सिनेमा के साथ कदम मिलाने की कोशिश में आज फिल्मों से भारतीयता की जड़ें एक हद तक कट चुकी हैं। फिल्मों को आज सिर्फ बॉक्स ऑफिस की सफलता से मतलब है।
(साभार हिन्दी समय में सलिल सुधाकर)