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सियासत का दौलत से हुआ रिश्ता और तिजारत में बदल गई राजनीति/ 1064 में 328 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले/ फैसला तो हो चुका, बस मतदान की औपचारिकता बाकी/ नहीं जीतने वाले आजमा रहे वोट बांट देने की हर रणनीति

(कृष्ण किसलय)

प्रसंगवश :
सियासत का दौलत से हुआ रिश्ता और तिजारत में बदल गई राजनीति
-कृष्ण किसलय
(समूह संपादक, सोनमाटी)

पांच साल के अंतराल पर होने वाला चुनाव लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। फिर भी सच्चाई है कि देश की आम जनता लोकतंत्र की सक्रिय हिस्सेदार कभी नहीं हो सकती। चुनाव इतना अधिक खर्चीला, पेंचीदा हो गया है कि आम जनता की भूमिका सिर्फ मतदान भर की रह गई है। राजनीतिक कार्यकर्ता तो कब के हाशिये पर जा चुके हैं। आम जनता निरुपाय है कि उसे पांच वर्ष में सिर्फ मतदान का अधिकार मिलता है और वह भी मतदाता रजिस्टर में नाम होने या मतदाता पहचानपत्र होने पर। सेंटर फार मीडिया स्टडीज का विश्लेषण बताता है कि चुनाव काला धन के बल पर होता है। जो रकम बताई-दिखाई जाती है, उससे दस गुनी रकम खर्च होती है। चुनाव के अत्यधिक खर्चीला होने से ही सांसद-विधायक प्रश्न पूछने की कीमत लेते और राजनीतिक दल टिकट बेचते हैं। आज सचमुच सियासत कारोबार में तब्दील हो चुकी है। अब तक किसी सरकार ने प्रशासनिक सुधार और कानून-व्यवस्था का मजबूत मानक स्थापित नहींकिया है कि जनता एकस्वर उसके साथ खड़ा हो सके। राजनीतिक गठबधन नीति नहीं, संख्या-गणित का आधार तैयार करने का उपक्रम है। उसका जोर संख्या बल के लिए जिताऊ उम्मीदवार पर होता है, चाहे वह चोर-लुटेरा-हत्यारा क्यों न हो। आजादी बाद आरंभिक दौर में उम्मीदवार महत्वपूर्ण होते थे। उनके गुण-दोष, योग्यता-अयोग्यता परखी जाती थी। धीरे-धीरे धन का प्रवाह बढ़ते जाते से राजनीति में आपराधिक छवि की दखल बढ़ती गई। सत्ता के बाजार में बाहुबल महत्वपूर्ण बन गया। पहले पार्टियां उम्मीदवार को आर्थिक मदद देती थी। आज उम्मीदवार पार्टी को चंदा देते हैं। पैसे ने राजनीति का चरित्र बदल दिया। राजनीति संवाद से समर में तब्दील हो गई, सेवा से धंधा हो गई, इन्वेस्ट मार्केट बन गई।

अंतत: चुनाव तो मतदाता ही लड़ते हैं :

हालांकि जनमत बनाने के मद्देनजर चुनाव आयोग ने पारदर्शिता के लिए यह कदम उठाया है कि उम्मीदवारों को अखबारों, टीवी के जरिये आपराधिक मामलों का जिक्र करना होगा। जनता जिसे चुनती हैं, वहीं पांच साल के लिए विधानसभा क्षेत्र का भाग्य निर्माता होता है। अब जरा ठहर कर सोचने की जरूरत है। जनता को नीर-क्षीर विवेक से अपना विधाता बनाना होगा। राजनीतिक दल तो झांसे पर झांसा देते रहे हैं और मतदाता उनके झांसे में आकर मतदान भी करते रहे हैं। जनप्रतिनिधि चुनने की जवाबदेही मतदाता की ही है। राजनीति और नेता को भला-बुरा कहने, एक-दूसरे पर दोषारोपण की प्रवृति से ऊपर उठकर जाति, दल, परिवार, पड़ोसी होने की लालच से बचने की दरकार है। वस्तुत: चुनाव तो जनता की गहरी मत-धारा ही लड़ती है, भले सतह पर प्रत्याशी लड़ते हुए दिखते हों। मतदाताओं को अपने विवेक से तय करना है कि लोक की बेहतरी के लिए कौन उम्मीदवार बेहतर हो सकता है? किसकी जीत से सत्ता-शासन भरोसेमंद बन सकता है? कौन देश-समाज को लोकतंत्र की ओर ले जा सकता है। बीती सदी की तरह बूथ-लूट कारगर नहींरह जाने से चोरों-लुटेरों-हत्यारों-माफियों के लिए धनबल ही रास्ता है। वे सत्ता में अपने सिंडीकेट से सत्ता पर कब्जा जमाते है, ताकि विकास-कार्यों के ठेकों सेमनमानी कमाई कर सकेें। पिछले चुनावों में निर्वाचित प्रतिनिधियों को मिले मत-आंकड़ों से चुनाव की यह विद्रूपता भी सामने आ चुकी है कि सांसद-विधायक कुल मतों का 15 फीसदी मत पाकर भी सदनों में पहुंचते रहे हैं। इसीलिए प्रसिद्ध जनकवि अदम गोंडवी ने गुजरी सदी में यह अनुभवसिद्ध पंक्तियां लिखी थीं- जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में, परधान बनके आ गए अगली कतार में।

(निशान्त राज)

समाचार विश्लेषण :
1064 में 328 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले
-निशान्त राज
(प्रबंध संपादक, सोनमाटी)

एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स (एडीआर) और इलेक्शन वाच ने आनलाइन प्रेस कांफ्रेेंस के जरिये 28 अक्टूबर के बिहार विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण में 71 सीटों के उम्मीदवारों का ब्यौरा दिया है। बताया है कि सभी 1064 उम्मीदवारों में 31 फीसदी (328 उम्मीदवार) पर थानों में आपराधिक मामले दर्ज हैं। 29 पर महिला अत्याचार और 03 पर बलात्कार का भी आरोप है। 61 सीटों पर 03 से अधिक दागी प्रत्याशी हैं। कांग्रेस के 21 प्रत्याशियों में नौ (43 फीसदी), जदयू के 35 में दस (29 फीसदी) और बसपा के 26 में पांच (19 फीसदी) पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज है, जैसा कि उनका हलफनामा है। प्रथम चरण के 455 उम्मीदवार (43 फीसदी) कक्षा 5 से 12 तक और 49 फीसदी उम्मीदवार स्नातक या इससे अधिक शिक्षित हैं। 74प्रत्याशी सिर्फ साक्षर और 05 प्रत्याशी अ-साक्षर भी हैं। एडीआर के संस्थापक ट्रस्टी जगदीप छोकर के अनुसार, उम्मीदवारों के चयन में उच्चतम न्यायालय के निर्देश से बेअसर रहे राजनीतिक दलों ने टिकट देने की पुरानी प्रथा जारी रखी। नेश्नल इलेक्शन वाच के बिहार स्टेट कोर्डिनेटर राजीव कुमार के मुताबिक, राज्य में वर्ष 2005 से अब तक 10785 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। ज्यादातर वही प्रत्याशी जीते, जिन पर अपराधिक मामले हैं। इस बार भी दागी छवि वालों की पत्नियों को धड़ल्ले से टिकट दी गई। साफ छवि के उम्मीदवार के जीतने की संभावना कम, दागी की अधिक और धनी उम्मीदवार की सबसे अधिक होती है। जीतने के बाद निर्वाचित प्रतिनिधियों की संपत्ति भी बढ़ जाती है। जिनपर सबसे अधिक मुकदमे दर्ज हैं, उनमें राजद के अनंत सिंह (मोकामा) सबसे ऊपर हैं। सबसे अधिक पैसा वाला उम्मीदवार भी अनंत सिंह ही हैं, जिन्होंने 68 करोड़ 56 लाख 78 हजार 795 रुपये होने की घोषणा की है। दूसरे नंबर पर बरबीघा के कांग्रेस प्रत्याशी गजेंद्र साही और तीसरे नंबर पर जदयू प्रत्याशी हैं। 12 फीसदी प्रत्याशियों के पास 02 से 5 करोड़ तक, 28 फीसदी के पास 50 लाख से 2 करोड़ तक, 30 फीसदी के पास 10 से 50 लाख तक और 22 फीसदी के पास 10 लाख रुपये से कम की संपत्ति है। सबसे अधिक करोड़पति उम्मीदवार राजद में, उसके बाद जदयू और फिर भाजपा में हैं। इसके बाद लोजपा, कांग्रेस और बसपा का स्थान है। पांच प्रत्याशियों कपिलदेव मंडल (जमालपुर), अशोककुमार (मोकामा), प्रभु सिंह (चैनपुर), गोपाल निषाद (नबीनगर) और महावीर मांझी (बोध गया) की संपत्ति शून्य है।

फैसला तो हो चुका, बस मतदान की औपचारिकता बाकी

(किसी राजनीतिक पार्टी की पार्टीलाइन से अलग बतौर सामान्य मतदाता रोहतास, औरंगाबाद जिले से समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले अगड़े, पिछड़े, दलित, अमीर, गरीब, अल्पसंख्यक, युवा, महिला का ध्यान रख चुनाव और मतदान के मद्देनजर वरिष्ठ राजनेता, शिक्षाविद, चिकित्सक, जनप्रतिनिधि, कारोबारी, संस्था प्रबंधक-संचालक, अधिवक्ता आदि से बातचीत या उनके विचार के आधार पर सोनमाटी टीम की प्रस्तुति)

सबने सैद्धांतिक रूप से यह माना कि किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन नहींहोने या नवउन्मेष नहींहोने पर जड़ता आती है। यह कम या अधिक राजनीति पर भी लागू होता है। बिहार के नेतृत्व में बुजुर्ग और युवा का बड़ा फासला है। सक्रिय युवा नेतृत्व में परिपक्व अनुभव का अभाव है। मौजूदा युवा नेतृत्व कितना भरोसेमंद हो सकता है, यह परीक्षा का विषय है। इस दृष्टि से युवा को मौका दिया जा सकता है। अगर भरोसा नहींजंचता तो देखा-परखा ही मतदान की पसंद हो सकता है। कई ने यह माना कि इस बार मतदान बिहार का नया राजनीतिक भविष्य तय करेगा। मतदाता यह सोच कर फैसला ले सकता है कि केेंद्र, राज्य सरकारों में कितना तालमेल होगा और वह तालमेल बिहार को कितना मजबूत बनाएगा, व्यापक जनहित में कितना फायदेमंद होगा? बिहार विधानसभा चुनाव का नजारा इस बार बदला हुआ है। मजबूत मुख्यमंत्री चेहरा नीतीश कुमार हैं, जिनके सामने अनुभवी के मामले में मुख्यमंत्री प्रत्याशी रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा और जन अधिकार पार्टी के पप्पू यादव है। जबकि सबसे मजबूत घोषित युवा चेहरा राजद के तेजस्वी यादव हैं। राजद के साथ कांग्रेस और तीनों वामपंथी दल भाकपा-माले, भाकपा और माकपा हैं। इस महागठबंधन का मुकाबला भाजपा-जदूय गठबंधन से ही है, जिसके साथ वीआईपी के मुकेश सहनी और हम के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी हैं। लोकतंत्र के युद्ध में लोजपा के चिराग पासवान संभावना के समीकरण के युवा मुख्यमंत्री चेहरा हैं और लंदन रिटर्न पुष्पम प्रिया चौधरी (फ्लुरल्सपार्टी) प्रतीकात्मक युवा महात्वाकांक्षा का मुख्यमंत्री चेहरा हैं।बिहार की करीब 12.5 करोड़ आबादी में युवा आबादी राष्ट्रीय औसत से अधिक 58 फीसदी है। राज्य में सभी मतदाताओं की संख्या 7.79 करोड़ है। 30 लाख युवा मतदाता पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। 18 से 40 साल तक की उम्र वाले मतदाताओं की संख्या करीब ढाई करोड़ है। जाहिर है कि फैसला इस बार युवा मतदाताओं के हाथ में ज्यादा है, क्योंकि यह भी संभव है कि बुजुर्ग मतदाता कोरोना के भय के कारण मतदान केेंद्रों तक जाने में जरा हिचक दिखाएं।

नहीं जीतने वाले आजमा रहे वोट बांट देने की हर रणनीति

राय व्यक्त करने वाले समाज के अनेक अग्रणी मतदाताओं ने यह माना कि अब मतदाताओं की पीढ़ी परिपक्व हो गई है। बिहार के नेतृत्व के सवाल, स्थानीय समस्या और उम्मीदवार का चेहरा आदि के आधार पर ही विचार कर मतदाता मत देगा। सांप्रदायिकता और हिन्दुत्व का सवाल इस बार नहींहै। भले ही उत्तरी सीमा पर मुस्लिम हित की राजनीति करने वाली एआईएमआईएम ने दस्तक दे दी है। बेशक पहले से ही मतदाता की जाति के हिसाब से पार्टियां करीब-करीब बंटी हुई हैं। फिर भी मतदाताओं का मंथन कोरोना और स्वास्थ्य सुविधा, महामारी से उत्पन्न आर्थिक मंदी, शिक्षा, रोजगार के लिए पलायन की मजबूरी, कृषिविकास, किसानों की आय आदि मुद्दे पर है।
मतदाता इस बात को अच्छी तरह समझता है कि गली-नाली-सड़क में जनप्रतिनिधि की कोई व्यक्तिगत भूमिका नहींहोती। यह तो कोष संबंधित चीज है, जो जनता द्वारा दिए गए करों से बनता है। इसमें जनप्रतिनिधि के प्रबंधन योग्यता की बहुत भूमिका नहींहोती। कहां-कहां काम होगा, यह जनप्रतिनिधि की पसंद-नापसंद से भी तय होता है। मतदाता अब समझता है कि विधायक का असली काम सदन में सवाल उठाना, कानून बनाना है और व्यवस्था के नियमन के लिए सदन में तार्किक बहस करना है। जो फ्लोटिंग मतदाता है, वह अपनी राजनीतिक अस्मिता को लेकर भी मंथन में है। उम्मीदवार और पार्टियां सवर्णों में कायस्थ मतदाताओं, पिछड़ों में अतिपिछड़े मतदाताओं और दलितों में महादलित वोटरों को और कम संगठित समुदाय के मतदाताओं को प्लोटिंग वोटर मानती हैं, जिनके मतों को साधने का प्रयास जारी है। प्लोटिंग वोट मतदाता का मन मतदान के ठीक पहले बनेगा। यह भी होता है, मतदाता सोचकर तो कुछ जाता है, मगर बूथ पर पहुंचकर डिसिजन ेमेकर हो जाता है, न्यायाधीश की भूमिका में हो जाता है कि उसे समाज, क्षेत्र और राज्य के हित में फैसला लेना है।
नीतीश कुमार अधूरे सपने को पूरा करने के लिए, बिहार को विकास को और ऊंचाई तक ले जाने के लिए मतदाता से मौका मांग रहे हैं। तेजस्वी यादव सवाल खड़ा कर रहे हैं कि 15 साल मौका मिला तो क्या किया? वे 10 लाख नौकरी देने, किसान ऋण माफ करने, बिजली बिल आधा करने, वृद्धावस्था पेंशन 400 रुपये से बढ़ाकर 1000 रुपये करने की बात कर रहे हैं। हर चुनाव की तरह इस बार भी बहुत कुछ करने, बिहार को बदलने का राजनीतिक दल झांसे पर झांसा दे रहे हैं और नेता वादों पर वादा कर रहे हैं।
कांग्रेस आंकड़ा देकर बता रही है कि बिहार विकास के सभी पैमानों पर पिछड़ा हुआ है। उपेंद्र कुशवाहा बिहार को बदलने की बात कह रहे हैं। पप्पू यादव तीन साल में अपराध-भ्रष्टाचार हटाने की गारंटी दे रहे हैं। चिराग पासवान 30 साल में बिहार के रसातल में चले जाने की बात कह रहे हैं। कह रहे हैं कि लालू यादव पर मुकदमा हो सकता है तो नल-जल में नीतीश कुमार पर क्यों नहीं? सर्वहारा वर्ग की राजनीति करने वाली भाकपा-माले कह रही है कि उसके नाम का डर पैदा किया जाता है, जबकि उग्र हिन्दूवाद से समाज को ज्यादा खतरा है। हर चुनाव की तरह इस दफा भी हर राजनीतिक दल बहुत कुछ करने का की बात कह अपनी करनी, अपनी अयोग्यता छिपाकर दूसरों की कमियां उघार कर दिखा रहा है। इस तरह नेताओं का वादे पर वादा और झांसे पर झांसा जारी है। मतदाता यह सब समझता है। दरअसल लोकतंत्र का असली युद्ध तो मतदाता ही लड़ता है। फिर भी चुनाव की लड़ाई में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की दो रणनीतियां हैं। पहला कि या तो ज्यादा वोट मिले ताकि उनकी उम्मीदवारी मजबूत हो। या फिर ज्यादा वोट बंट जाए, ताकि प्रतिद्वंद्वी कमजोर हो।
बहरहाल, व्यापक पैमाने पर मतदान होना चाहिए, इसी में लोकतंत्र की सफलता है। व्यापक मतदान से समझा जा सकता है कि आम जनता की आकांक्षा क्या है और उसने आकांक्षा को मूर्तिमान करने के लिए किस तरह के जन प्रतिनिधि का निर्वाचन किया है? बिहार के सीमांत जिला कैमूर में निर्वाचन आईकान कैमूर कोकिला के रूप में प्रतिष्ठित लोकगायिका अभिनेत्री अनुराधाकृष्ण रस्तोगी मतदाताओं को मतदान जरूर करने के लिए प्रेरित कर रही हैं और उनके प्रेरणा-गीत के बोल कुदरा नदी पार कर सोन नद की सीमा तक पहुंच रही है-
चलो करें मतदान, आओ करें मतदान,
मास्क पहन कर बूथ चलेंगे, वोट करेंगे।

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