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सोनघाटी : सूर्यपूजा की आदिभूमि, विश्व का सबसे व्यापक लोकपर्व छठ संपन्न

अंतरराष्ट्रीय संस्कृति-सम्मिश्रण के हजारों साल पुराने चिह्न लेकर दो हजार साल पहले बिहार लौटी सूर्यप्रतिमा पूजाशैली

डेहरी-आन-सोन (बिहार)- सोनमाटीडाटकाम टीम। महाआस्था का विश्व का सबसे व्यापक लोकपर्व कार्तिक छठ चार दिवसीय पूजन-उपक्रम (नहाय-खाय, खरना, डूबते-उगते सूर्य को अध्र्य) के साथ समाप्त हुआ। सोन नद तट के सबसे बड़े शहर डेहरी-आन-सोन में छठव्रतियों ने अस्ताचलगामी और उदयमान सूर्य को लाखों की संख्या में सामूहिक श्रद्धा अर्पित की। बिहार-झारखंड प्रदेशों की सोनघाटी सूर्यपूजकों की आदिभूमि है। यह सूर्य उपासना का दुनिया का सबसे प्राचीनतम केेंद्र है, जहां बिना पुरोहित, बिना यज्ञविधि और बिना शास्त्रीय विधान के सूर्य-पूजा की जाती है। इसीलिए छठ को बिहारियों (बिहार-झारखंड निवासी) का ही लोकपर्व माना जाता रहा है। हालांकि रोजी-रोटी के लिए अपने इलाके से बाहर जाने के कारण पिछली सदी से इस पर्व का विस्तार देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों में भी तेजी हुआ, जहां बिहारी अपने साथ इस संस्कृति को भी लेते गए। सूर्य प्रतिमा वाला बिहार का पहला मंदिर सोनघाटी में डेहरी-आन-सोन से 20 किमी उत्तर सोन नद के पश्चिम तट पर देव-मार्कण्डेय (नासरीगंज प्रखंड, काराकाट थाना) में ईसा-पूर्व पहली सदी में बना था।


बिहार-झारखंड के सकलदीपी हैं शकद्वीप से आए मग ब्राह्मण
पृथ्वी पर अंतिम हिमयुग समाप्त होने पर सोनघाटी के कैमूर पर्वत से उतरने के बाद आदिमानव (होमोसैपियन) ने जब सोचना शुरू किया, तब उसने सदियों के अपने आरंभिक चिंतन में महसूस किया कि सूर्य जीवनदाता है और जीवनदाता के प्रति उसने आभार व्यक्त करने का तरीका ईजाद किया। सोनघाटी में आदिमानव द्वारा 10 हजार साल से भी बहुत पहले शुरू हुई सूर्य की प्राकृतिक उपासना की सांस्कृतिक यात्रा पश्चिम-उत्तर दिशा में भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्कीस्तान, सीरिया, ईरान, इराक होते हुए सुदूर एशिया में मिस्र के छोर तक पहुंची, जिसमें प्राचीन सभ्यताओं के सांस्कृतिक सम्मिश्रण से सूर्यपूजा के प्रतीक-पद्धति ने भिन्न-भिन्न रूप और आकार ग्रहण किए। दो हजार साल पहले सोनघाटी की आदिभूमि (बिहार-झारखंड) पर कोई चार हजार सालों में मिस्र से मगध तक सभ्यता-संस्कृति के संघर्ष-मिलन का चक्कर लगाकर शक शासकों के साथ सूर्य-प्रतिमा-प्रतिष्ठा अपने कर्मकांड से लैस होकर वापस भी लौटी। सूर्य-पूजक शकों के साम्राज्य के समय शकद्वीप से आधिकारिक पुरोहित बुलाए गए थे। ज्योतिषाचार्य और गणितज्ञ वराहमिहिर भी शकद्वीपीय ब्राह्मण थे। मिहिर सूर्य को कहते हैं और मिहिर उस समय की सबसे बड़ी सम्माजनक उपाधि थी। तब शक ब्राह्मणों द्वारा ओढ़ी जाने वाली सिल्क की कढ़ाईदार चादर को इस्तब्रक कहा जाता था, जिसे महाकवि-नाटककार वाणभट्ट ने अपने ग्रंथ हर्षचरित में स्तवरक कहा है। बिहार-झारखंड के वर्तमान सकलदीपी शकद्वीप से ही आए मग ब्राह्ममणों के वंशज हैं।

पहली सदी में बिहार में स्थापित हुई भारत की प्रथम सूर्यप्रतिमा
स्थानीय इतिहास के अन्वेषक, विज्ञान लेखक और सोनघाटी पुरातत्व परिषद (बिहार इकाई) के सचिव कृष्ण किसलय के अनुसार, देव-मार्कण्डेय मौजूदा भारत का सबसे प्राचीन सूर्य मंदिर है, जिसके बारे में इतिहासविद डा. डीआर पाटिल (पुस्तक दि एंटीक्वारैन रिमैन्स इन बिहार, 1963 में प्रकाशित) ने कहा है कि यह सूर्य मंदिर कालांतर में विष्णु मंदिर में परिवर्तित हो गया। इस मंदिर का स्थापत्य बिहार के औरंगाबाद जिला के गुप्तकाल में निर्मित हुए देव-वरुणार्क के उदीच्य स्थापत्य शैली (यूनानी) से मिलती-जुलती है। ब्रिटिश सर्वेक्षक फ्रांसिस बुकानन ने 01 दिसम्बर 1812 को देव-मार्कण्डेय की यात्रा की थी। उन्होंने एक पत्थर पर लिखावट देखी थी। उस प्रस्तर-लेख से निष्कर्ष निकाला गया कि चेरवानी राज में ईसा से 63 वर्ष पूर्व राजा फुदीचंद चेरो की रानी गोभावनी ने देव-मार्कण्डेय मंदिर बनवाया था। तब शक सम्राट का शासन था और शक संवत (कैलेंडर) की शुरुआत ईसा से 78 साल पहले हुई थी।

बुकानन के बाद कनिंघम और गैरिक पहुंचे थे देव-मार्कण्डेय
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रथम महानिदेशक अलेक्जेंडर कनिंघम और पुराविद एचबीडब्ल्यू गैरिक 1881 में बुकानन के करीब 70 साल बाद देव-मार्कण्डेय गए थे। फ्रांसिस बुकानन के समय नासरीगंज (हरिहरगंज)-सासाराम सड़क थी। गैरिक के समय डेहरी-आन-सोन से निकली गई विश्वप्रसिद्ध सोन नहर प्रणाली अस्तित्व में आ चुकी थी। वह आरा (भोजपुर) से सोननहर में स्टीमर से 10 घंटे की यात्रा कर देव-मार्कण्डेय पहुंचे थे। उन्होंने देव-मार्कण्डेय मंदिर की खुदाई कराई थी। उन्हें फ्रांसिस बुकानन द्वारा देखा गया प्रस्तर-लेख नहीं मिला, पर यह माना कि देव-मार्कण्डेय का स्थापात्य औरंगाबाद जिला के देव-वरुणार्क से पूर्ववर्ती (पुराना) है। कनिंघम ने यहां से 2.4 फीट की सूर्य प्रतिमा खोजी थी। एचबीडब्ल्यू गैरिक ने मंदिर ध्वंसावशेष का रेखाचित्र बनाया था। रेखाचित्र वाला मंदिर अवशेष भी देव-मार्कण्डेय में नहीं बचा है।


विभिन्न साक्ष्यों से होता है इतिहास-लेखन : कृष्ण किसलय
कृष्ण किसलय ने बताया, शब्द हजारों साल में लुप्त हो जाते हैं और भाषाएं रूप बदल लेती हैं। जीवाश्म की तरह बचे रह गए शब्द को टटोलकर, सांस्कृतिक परिवर्तन की श्रृंखला को जोड़कर और तर्क-साक्ष्य की कसौटी पर कसकर ही इतिहास के अनुमान-निष्कर्ष निर्धारित होते हैं। फिर प्रकाश में आई नई जानकारी, नई वैज्ञानिक खोज के सापेक्ष सबकी संगति बैठाई जाती है। स्थानीय विशेष की संस्कृति-धरा पर विजातीय संस्कृति के आगमन-संक्रमण की प्रतिक्रियाओं का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है। तब कहीं जाकर इतिहास बनता, इतिहास का सच तय होता और इतिहास-लेखन होता है। छठ में इसी अनुशीलन को देखा-अनुभव किया जा सकता है। छठ व्रत में प्रयुक्त जमीन के भीतर पैदा होने वाला आदिम कंद-मूल (सूथनी, ओल, कचरी, करवन, शकरकंद, अदरख), नारियल फल, ईख आदि इस ओर इशारा करता है कि यह स्थानीय मूल का पर्व है। कैमूर पठार के आखिरी उत्तरी छोर से निकली नदी सूअरा (सूइअर) की नाला की तरह छोटी पाट आज भी डेहरी-आन-सोन से पश्चिम (जमुहार से पहले) मौजूद है, सूअरा गांव भी है और कैमूर अंचल की एक वनवासी जाति अपने के सूर्यवंशी (सूइअर) बताती रही है। सोनघाटी के पूरब झारखंड में आदिवाासियों की पूजा सूरजाही में छठ की तरह ही डूबते सूर्य को अघ्र्य देने की परंपरा है। सूरजाही में सुबह में सफेद बकरे की बलि दी जाती है, जो बताता है कि इसमें आदमी के शिकारी जीवन की परिपाटी अभी भी जारी है। हजारों सालों से कुड़मालि आदिवासी लोककंठ में महफूज खोरठा गीत में इसका प्रमाण मौजूद है-‘एतो जदी जान तलो सूरूज देवा अइता गो, ए गो चरक पाठा रखतलो जोगाये गो’। सोनघाटी के भोजपुरी लोकगीतों में सूर्यश्रद्धा के आरंभिक तत्व को देखा जा सकता है। केरवा जो फरेला घवद से ओह प सुगा मंडराय, उ जे खबरि जनइबो अदिक से सुगा देले जुठिआय, उ जे मरबो रे सुगा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय, उ जे सुगनी जे रोवे ले विरह से अदित होहू न सहाय’।  ‘काच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाय…’

ऋग्वेद में प्रथम छंदबद्ध रचना सूर्यपूजा का गायत्री मंत्र

कृष्ण किसलय के अनुसार, सूर्यस्तुति के मंत्र (गायत्री) के सर्जक वह ऋषि विश्वमित्र हैं, जिनसे सोनघाटी के कैमूर-बिंध्य पर्वत श्रृंखला से पश्चिम स्थित अयोध्या के राजा सत्यव्रत (त्रिशंकु) को सशरीर स्वर्ग भेजने के प्रयास की कथा जुड़ी हुई है। यह विश्वमित्र राम के समय के पूर्ववर्ती विश्वमित्र (विश्वरथ) थे और राजा सत्यव्रत राम के पुरखे हरिश्चंद्र के पिता थे। राजा कुशिक, गाधि के वंशज इस प्रथम विश्वामित्र (विश्वरथ)  ने जिस मंत्र की रचना की, वह नई सृष्टि इसलिए मानी गई कि वह ऋग्वेद के मंत्रों के सृजन के सैकड़ों सालों के इतिहास में प्रथम छंदबद्ध रचना थी, गेय थी- तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्

(रिपोर्ट, तस्वीर : उपेन्द्र कश्यप, अवधेशकुमार सिंह, निशांतकुमार राज)

अन्वेषण इनपुट : कृष्ण किसलय
तस्वीर : 1. देव-मार्कण्डेय में मौजूदा मंदिर,  2. एचबीडब्ल्यू गैरिक द्वारा वहां 1881 में मौजूद रहे मंदिर के अवशेष का रेखाचित्र।

सासाराम में छठ पर स्वयंसेवा, अकोढ़ी में रोड का उद्धाटन

सासाराम (रोहतास)-सोनमाटी संवाददाता। छठ पर्व सादगी-सफाई और लोक परंपरा के अनुसार संपन्न हो गया। छठव्रतियों के बीच शहर के स्वयंसेवी संगठनों द्वारा जगह-जगह स्टाल लगाकर या गली-मुहल्ले में जाकर फल, धूप, नारियल, दातुन आदि का वितरण किया गया। स्वयंसेवी संगठनों और स्वयंसेवियों ने गलियों-सड़कों की सफाई-धुलाई की और रोशनी का प्रबंध किया। लायंस क्लब आफ सासाराम के डा. दिनेश शर्मा ने सहयोगियों के साथ बेदा सूर्यमंदिर में छठव्रतियों और सभी के लिए निशुल्क स्वास्थ्य शिविर लगाया।

डेहरी-आन-सोन में भी गलियों और सड़कों पर स्वयंसेवियों ने बड़े पैमाने पर फल वितरण किया और छठव्रतियों के लिए रोशनी आदि की व्यवस्था की। हिन्दू सेवा दल की ओर से पूर्व विधायक प्रदीप जोशी और ज्योति रश्मि ने बाजार में सूप, फल और ईख वितरण किया। नई रोशनी नवयुवा क्लब की ओर से विशाल पंडाल का निर्माण कराया गया। युवा भाजपा नेता बबल कश्यप के अनुसार, ऐसा सत्तर के दशक से किया जा रहा है।

उधर, अकोढ़ी गोला (रोहतास) से प्राप्त समाचार के अनुसार, छठव्रत के मौके पर अकोढ़ीगोला के मुडिय़ार गांव में प्रखंड प्रमुख संतोष पासवान द्वारा निर्मित कराए गए पीसीसी रोड का उद्घाटन विधायक सत्यनारायण सिंह ने किया। विधायक सत्यनारायण सिंह ने कहा कि वह भी इस प्रखंड में अपने विधायक फंड से विकास कार्य कराने की योजना पर कार्य कर रहे हैं।

(रिपोर्ट, तस्वीर : अर्जुन कुमार, वारिस अली)

One thought on “सोनघाटी : सूर्यपूजा की आदिभूमि, विश्व का सबसे व्यापक लोकपर्व छठ संपन्न

  • Surendra Tiwari

    वैदिक और धार्मिक काल से छठी मैया के आराधना का गवाह रहा भगवान विष्णु पुत्र सोनभद्र का पावन तट एक बार फिर भगवान सूर्य उपासकों के भक्ति भाव का गवाह बना। शहर की आबादी के साथ ही पड़ोस के करीब एक दर्जन गांवों के लाखों लोगों ने भगवान भास्कर के साक्षात्कार किए। हजारों की संख्या में सूर्य उपासक रात भर नदी में मौजूद रह कर पूजा अर्चना और दर्शन का इंतजार किया।
    मान्यता है कि प्रभु श्री राम भाई लक्ष्मण के संग गुरु विश्वामित्र के सानिध्य में सिद्धाश्रम से चलकर जनकपुर जाने के क्रम में महान सोन तट के सहारे चलते हुए मां गंगा को पार किया और वर्तमान के वैशाली जिले में पहुंचकर अहिल्या का उद्धार किया था। यह सोन नदी का इलाका अब भी अपनी धार्मिक समृद्धि को समेटे हुए है। सोन नद तट को महर्षि गण के यात्रा का मार्ग कहा जाता है। सूर्य पूजक आचार्यों की धरती के रूप में प्रचलित इस इलाके में वर्ष में दो बार छठ पूजा होती है।
    चैत मास के शुक्ल पक्ष में होती है। यह चैती छठ के नाम से जानी जाती है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को कतकी छठ के नाम से भी लोग पुकारते हैं। माताओं में प्रचलित स्कंद प्रिया ब्रह्मा जी की मानस कन्या हैं और वह मूल प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण छठी मैया कही जाती हैं। देवी भागवत में इनकी चर्चा पुत्र रत्न, पत्नी, धन की मनोरथ प्रदान करने के साथ ही कर्मों का श्रेष्ठ फल देने वाली माता के रूप में कहा जाता है। आदि काल से मौजूद झारखंडी महादेव मंदिर के सामने सोम तट पर छठी मैया का व्रत होते आ रहा है।

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