डेहरी-आन-सोन (बिहार)-कृष्ण किसलय। भारत के तीन नदों में से एक सोन की पर्वत उपत्यका वाली घाटी (बिहार-झारखंड के रोहतास-औरंगाबाद-पलामू) दुनिया की वह जगह है, जहां सबसे पहले छठ-व्रत की सामूहिक पूजा की शुरुआत हुई और जिसमें संपूर्ण समाज हजारों सालों से बगैर छूत-अछूत, सधवा-विधवा, जातीय-वर्णीय-वर्गीय भेद-भाव के बतौर समग्र प्राकृतिक भूमिका का निर्वहन करता, भाग लेता रहा है। इस बात के प्रमाण को अति प्राचीन पारंपरिक छठ गीतों में मौजूद स्थानीय पूर्व-मागधी (भोजपुरी-मगही मिश्रित) या प्राकृत भाषा के आदिम शब्दों में टटोला जा सकता है।
छठ-व्रत उन पर्वों में एक और संभवत: समस्त हिन्दू समुदाय द्वारा स्वीकृति प्राप्त बिहार की एकमात्र पूजा-पद्धति है, जिसमें शास्त्रीय या वैदिक कर्मकांड की जरूरत नहीं है। इसके अपने सहज, अराधक-अराध्य के बीच बिचौलिया रहित गैर-वैदिक कर्मकांड सनातन परंपरा से चले आ रहे हैं। छठ-पूजन का विस्तार युद्ध, कारोबार और नौकरी-रोजगार के कारण सोनघाटी क्षेत्र के सूर्यपूजकों के विस्थापन से देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हुआ।
वैदिक काल के पहले से जारी सूर्य-पूजन की यह प्राकृतिक परंपरा
पूरे नेम-धरम (शुद्धता, स्वच्छता, आध्यात्मिक जीवनशैली) वाली नहाय-खाय से शुरू चार दिवसीय छठ-व्रत की पूजा-पद्धति से यह भी जाहिर है कि वैदिक काल के पहले से जारी सूर्य-पूजन की प्राकृतिक परंपरा मानव सभ्यता के आरंभ से ही चली आ रही है। और, यह भी कि वैदिक संस्कृति वाली गंगा-घाटी से बहुत पहले से सोनघाटी की सभ्यता आबाद रही है। चार दिनों के इस पर्व में संपूर्ण स्वच्छता-पवित्रता है। निर्जल-उपवास का व्रत और सोने के लिए कुश की चटाई एक तपस्या की तरह है। इसमें साक्षात देवता सूर्य है, तालाब है, कुंआ है। अर्थात, इस बात की ज्ञान-समझ मौजूद है कि सूर्य ही धरती का जीवनदाता और जल ही जीवन है।
पूजन सामग्री में वनोत्पाद कन्द-मूल (ओल, सुथनी), कोहड़ा, अदरख, ईंख, नारियल, केला, लौका (कद्दू), सूप (बांस) आदि की मौजूदगी बताता है कि यह पर्व खांटी देसी स्थानीय मूल का है, कहींसे आयातित नहींहै यानी सोन घाटी का ही है। इस आदि-पर्व में गीत की प्रधानता है, स्त्री-सत्ता का वर्चस्व है। महिलाएं समूह में बिना वाद्य यंत्र के छठ गीत सस्वर आदिम राग में गाती हैं। वाद्य यंत्रों का विकास तो सभ्यता के बहुत बाद के दौर में हुआ।
शोध का विषय है कि डूबते सूर्य की अराधना कब, कहां हुई शुरू ?
सोनघाटी मूल की यह ऐसी उपासना है, जिसमें सबसे पहले डूबते (अस्ताचलगामी) सूर्य की अराधना की जाती है, अघ्र्य समर्पित किया जाता है। सूर्य-पूजन की छठ परंपरा की नींव गायत्री मंत्र की रचना से बहुत पहले पड़ चुकी थी, क्योंकि डूबते ही नहीं, उगते (उदयाचल) सूर्य को अघ्र्य देते समय भी सूर्य को समर्पित सबसे लोकप्रिय वैदिक ऋचा (गायत्री मंत्र) का उपयोग नहीं होता। छठ-पूजन की परंपरा सोन घाटी में सबसे कहां शुरू हुई है, आज यह नहीं बताया जा सकता, मगर इसके लिए प्राचीन सूर्य मंदिर स्थलों पर शोध कर अनुमानित निष्कर्ष निकाला जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर कोणार्क दक्षिण भारत में है, मगर वहां छठ पूजा की प्राचीन परंपरा नहीं रही है।
जमींदोज हो चुके या वीरान पड़े थे सोनघाटी के सूर्य मंदिर
सोनघाटी में औरंगाबाद जिले में देव स्थित सूर्य मंदिर 20वींऔर 21वींसदी में बेहद आकर्षण का केेंद्र बन गया है, इसकी एक बड़ी वजह है। असहिष्णु लुटेरे मुस्लिम हमलावरों के लगातार आक्रमण के कारण सोनघाटी के लगभग सभी प्राचीन सूर्य मंदिर सदियों से वीरान पड़े रहे या जमींदोज हो गए, चाहे वह देव का, उमगा (औरंगाबाद) का या देवमार्कण्डेय (रोहतास जिला) के प्राचीन सूर्य मंदिर हो। सोनघाटी के इस विस्तृत पश्चिमवर्ती इलाके में कैमूर जिला का मुंडेश्वरी मंदिर ही एकमात्र रहा है, जिसमें करीब दो हजार सालों से ज्योति (दीप) लगातार प्रज्ज्ज्वलित है। उमगा के पर्वतीय उपत्यका में देव के वास्तुशिल्प जैसा ही मौजूद मंदिर आज भी प्रचार-प्रसार-पहुंच से दूर है। रोहतास जिले के देवमार्कण्डेय का तो नामोनिशान मिट चुका है और अब वहां विष्णु, शिवलिंग की पूजा होने लगी है।
जीवविज्ञानी सर्वेेक्षक फ्रांसिस बुकानन जब 1812 मेें हाथी पर सवार होकर सघन जंगल में स्थित देवमार्कण्डेय पहुंचा था, तब सूर्य मंदिर का अस्तितत्व चिह्निïत करने के तौर पर बचा हुआ था। उसे बताया गया था कि देवमार्कण्डेय सूर्य मंदिर का निर्माण (पुनर्निर्माण) फुदीचंद (फूलचंद्र) चेरो की रानी गोभावनी ने कराई थी। बुकानिन का अनुमान था कि मंदिर पहली सदी का है। तब विश्वप्रसिद्ध सोननहर प्रणाली निर्मित नहीं हुई थी। 70 साल बाद पुरातत्वविद एचबीडब्ल्यू गैरिक सोननहर से वाष्पचालित स्टीमर में 10 घंटे की यात्रा कर आरा (भोजपुर) से दनवार (रोहतास) पहुंचा था, जहां से 10 किलोमीटर की दूर सूर्यमंदिर था। गैरिक के समय मंदिर पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था और दो मंदिर (विष्णु, शिव) के अस्तित्व में आ चुके थे। प्राचीन काल के तालाब का सिकुड़ा हुआ अस्तित्व बचा हुआ था। गैरिक ने उस समय देवमार्कण्डेय के बच रहे मंदिर परिसर के अवशेष का बाहर से स्केच (रेखाचित्र) बनाया था। संभवत: भूकंप के कारण बुकानन के समय मंदिर का बचा हुआ ध्वंसावशेष भी जमींदोज हो गया।
राजा जगन्नाथ किंकर ने बनााया देव सूर्यमंदिर को चर्चित, बनाई बिहार की पहली फिल्म
देव के प्राचीन सूर्य मंदिर के मृत ऐताहिसक अध्याय से अचानक अवतरित होकर राष्ट्रीय पटल पर बहुचर्चित होने की एक खास वजह है और वह वजह बिहार के छठ पूजा से अलग भी अपना ऐतिहासिक मुकाम रखती है। उड़ीसा के कोर्णाक (पुरी) मंदिर की तरह काले-भूरे पत्थरों से बने देव सूर्यमंदिर के सामने पुराने जमाने से छठ मेला लगता रहा है और इस मंदिर के प्रति पूरे बिहार में श्रद्धा रही है। साहित्यानुरागी राजा जगन्नाथ प्रसाद किंकर ने छठ मेले की महत्ता को रेखांकित करने के लिए उस जमाने में फिल्म बनाई थी, जब फिल्म निर्माण की मशीन या कोई सामग्री भी भारत में उपलब्ध नहींथी। भारत में 1917 में बनी पहली मूक फिल्म में राजा हरिश्चंद्र की कथा है, जबकि 13 साल बाद 1930 में बिहार में बनी पहली मूक फिल्म (छठ मेला) में छठ पर्व के महत्व की कथा है। राजा जगन्नाथ प्रसाद किंकर ने फिल्म बनाने के लिए स्टूडियो बनाया और दादा साहेब फाल्के की तरह 1929 में सात लोगों के साथ लंदन जाकर फिल्म बनाने के सभी उपकरण कैमरा, साउन्ड रिकॉडिंग, एडीटिंग मशीन, टेलीफोटो लेन्स, रिफ्लेक्टर आर्क लैम्प, फिल्म प्रोसेसिंग मशीन, डेवलपमेंट-प्रिंटिंग उपकरण, प्रोजेक्टर मशीन आदि मशहुर फिल्म आपरेट्स विक्रेता बॉल एण्ड हेवेल कम्पनी से खरीद लाए थे। फिल्म की एडिटिंग के लिए लंदन से तकनीशियन जोसेफ ब्रूनो को पटना बुलाया गया था। इसीलिए राजा जगन्नाथ किंकर को बिहार का दादा साहेब फाल्के भी कहा जाता है।
लंदन से खरीद लाए फिल्म इंडस्ट्रीज का संपूर्ण साजोसमान, किला को बनाया स्टुडियो
चार रील की डाक्युमेन्ट्री फिल्म (छठ मेला) को बनाने में 32 दिनों का समय लगा था, जिसका पहला प्रदर्शन 1931 में राजा जगन्नाथ किंकर के किला (महल) के सामने मैदान में हुआ था। फिल्म को देखने के लिए पटना, गया, जहानाबाद, औरंगाबाद, नवादा, रोहतास, कैमूर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) जिलों से भी लोग पहुंचे थे। तब तीन किलोमीटर चौड़ी पाट वाले सोन नद पर वर्तमान मोटरगाड़ी पुल नहीं बना था। इसलिए सोन नद को देहरी घाट (डेहरी-आन-सोन) से नाव से भी पार कर लोग देव महल पहुंचे थे। तब डालमियानगर के कारखानों का अस्तित्व नहींथा और चारों ओर विस्तृत खेत-जंगल के बीच शाम में टिमटिमाते हुए दो गांव (मकराई, मथुरी) सोन नहर के आर-पार पूरब-पश्चिम में दिखते थे। सदियों से उत्तरापथ (उत्तर भारत) से दक्षिणापथ (दक्षिण भारत) में प्रवेश के लिए मशहूर देहरी घाट के निकट एनिकट से कोई पांच दशक पहले विश्वप्रसिद्ध सोन नहर निकला जा चुकी थी। देहरीघाट के ऊपर कैमूर पर्वत के पाश्र्व से चेरो-खरवारों का राज-क्षेत्र (देश या देहरी) शुरू होता था, जो हजार किलोमीटर दूर पश्चिम उत्तर प्रदेश में हिमालय की तलहटी नगीना (बिजनौर) तक विस्तृत था। इसीलिए आज भी एनिकट में प्राचीन झारखंडी मंदिर है और नगीना में भी।
ऐतिहासिक तथ्य का नहीं, अतिरंजना और अंधविश्वास का किया जाता है प्रसार
देव (औरंगाबाद) के मंदिर के बाहर के शिलालेख के मुताबिक, इला वंशी (ऐल) ने इसका निर्माण कराया था। हालांकि अतिशयोक्ति में इसे लाखों साल पुराना बताया जाता है, जो गलत, हास्यास्पद, अवैज्ञानिक, अस्वाभिक और अस्वीकार्य है। मीडिया में भी इसी का उल्लेख धड़ल्ले से होता है। जबकि मीडिया का काम सूचना परोसने के साथ तथ्य को परखना भी है। जब होमो सैपियन (आधुनिक आदमी) का अफ्रीका से आगमन ही भारत-भूमि पर अधिक से अधिक 60-70 हजार साल पहले हुआ और शिकारी जीवन से मुक्त होकर उसकी सभ्यता (वानिकी, कृषि, वास्तुशिल्प तकनीक आदि) का विकास भी 15 हजार साल से पीछे नहींमाना जा सकता, तब मंदिर लाखों साल पुराना कैसे हो सकता है। शिलालेख में या तो बाजीगरी हुई है या उसे उचित तरीके से पढ़ा नहींजा सका है।
(तस्वीर संयोजन : निशांत राज, पिंकी सिन्हा, लवली श्रीवास्तव)
लेखक/विशेष रिपोर्ट : कृष्ण किसलय,
समूह संपादक,
सोनमाटी मीडिया समूह
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