हे हमारी हिन्दी, मंच न गोष्ठी तुम सदा रहना जीवन में

दिल्ली से लेखक-पत्रकार-कवि कौशलेन्द्र प्रपन्न द्वारा हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) के अवसर विशेष पर सोनमाटीडाटकाम के लिए लालित्यपूर्ण संवाद शैली में लिखी गई इस रचना में राजभाषा हिन्दी की सात दशकों की सत्तात्मक और सामाजिक वस्तुस्थिति पर दृष्टि डालने का प्रयास है। इस रचना के कथ्य में हिन्दी के नाम पर सरकारी तंत्र पर हावी लोगों द्वारा बंदरबांट की ओर भी संकेतात्मक व्यंग्य किया गया है।

 

हे हिन्दी! कल्पना करता हूं। कभी-कभी तुम्हारे भविष्य के बारे में सोचता हूं। सोचकर थोड़ा परेशान तो थोड़ा चिंतित भी हो उठता हूं। वैसे चिंता और निराश होने की कोई ऐसी बात नहीं।लगातार तुम्हारे बेहतर भविष्य के सपने और भविष्यवाणियां सुनता हूं। सुनता हूं कि तुम्हारा भविष्य बहुत उज्ज्वल है। तुम तो विश्व के कई विश्वविद्यालयों में पढऩे-पढ़ाने के विषय के तौर पर शामिल कर ली गई हो। तुम्हें बोलने-बरतने वालों की संख्या लगातार बढ़त हासिल कर रही है। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि आज बाजार की भाषा के तौर भी तुम्हारी पहचान मजबूत हो रही है। क्या देश और क्या विदेश हर जगह तुम्हारी संतति पहुंच रही है। तुम्हारे बारे में तो यह भी घोषणा सुनने को मिलती है कि तुम करोड़ों लोगों की जबान बन चुकी हो। तुम्हें विज्ञापनों से लेकर बाजार के होर्डिंगों में, दुकानों में, और तो और चौका से लेकर चौकी तक तुम फैल चुकी हो।

उन जगहों पर तलाशता हूं, जहां तुम्हारे होने की निशानी हो

सच बताऊं,  मैं तुम्हें उन हर जगहों पर तलाश करता हूं, जहां-जहां तुम्हारे होने की निशानी मिल सके। तुम्हारे बारे में होने की ख़बर दी गई, उन जगहों पर तुम्हें पहचानने की कोशिश कर रहा हूं। तब एक अजीब-सी बेचैनी होती है। परेशानी भी कह सकती हो। वह यह कि तुम्हें हमने आम जन से काटकर या तो मंचों तक महदूूद कर दिया या फिर तुम्हें पूज्य बनाकर आसन पर बैठा दिया। जमीनी हक़ीकत यह है कि तुम उन तमाम जगहों पर हो ही नहीं। तुम संविधान में तो हो। तुम मंचों पर भी हो। लेकिन देखना और समझना यह है कि तुम्हारा वह होना किस रूप में है? क्या तुम मजाकीया अंदाज में हो? क्या तुम महज कवियों की पंक्तियों में, तालियों के रूप में हो? आदि-आदि।

वर्गों में बांटकर ही पढ़ी और समझी जाती है हिन्दी
मैं तुम्हें स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में कुछ अलग ही रूप-देह-धज्जे में पाता हूं। जब तुम्हें किसी दफ्तर में या फिर कॉर्पोरेट कंपनियों में देखने की कोशिश करता हूं, तब तुम्हारी अलग ही छवि उभरती है। यदि कोई निजी कंपनी में तुम्हें बरतता है तो लोगों के बीच एक अलग ही जीव के रूप में पहचाना जाता है। यदि बोलने वाले ने थोड़ी ठीक-ठाक हिन्दी बोल ली तो उसे प्रेमचंद और पंडि़तजी के नाम से पुकारा जाता है। यदि किसी की हिन्दी अच्छी है तो इसमें उसका क्या दोष? कहीं-न-कहीं उस बोलने वाले ने अपनी हिन्दी को दुरूस्त करने में मेहनत तो की होगी। तब जाकर उसके पास एक सुधरी और सुघड़ी हिन्दी हो पाई है। जब भी किसी सभा, गोष्ठी में सुनता हूं कि यू नो माई हिन्दी अच्छी नहीं है। एक वाक्य में जब तुम महज क्रिया और संज्ञा के रूप में आती हो तो हंसी नहीं आती। आए भी क्यों? उसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं। हम जिस समाज और परिवेश में रहते हैं वहां हिन्दी को शायद वर्गों में बांटकर ही पढ़ी और समझी जाती है।

हिन्दी और अंग्रेजी एक-दूसरे के दुश्मन और विपरीत पक्ष क्यों?

हिन्दी माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के बीच की दरार को बहुत कोशिश की जाती है कि इसे पाटी भी जाए। और, स्थिति यह हो जाती है कि हिन्दी और अंग्रेजी एक-दूसरे के सामने सह भाषा-भाषी के तौर पर बरतने और स्वीकार किए जाने की बजाए एक-दूसरे के दुश्मन और विपरीत पक्ष के तौर पर कबूल किया जाता है। जब कि ऐसा होना नहीं चाहिए। क्योंकि, आज हिन्दी में विभिन्न भाषा-बोलियों को सहज ही सम्मिलित कर ली गई है। वे अब विदेशज शब्दावली नहीं रही। हिन्दी में ढल चुकी हैं। कहना यह होगा कि कई बार ताज्जुब होता है कि हिन्दी की भाषिक संपदा दिन-प्रति-दिन अन्य भाषाओं के संपर्क में आने के बाद और समृद्ध ही हुई हैं।

अकादमिक और गैर अकादमिक दो रूपों में दिखाई देती हो तुम

तुम मुझे दो रूपों में दिखाई देती हो, पहला अकादमिक और दूसरा गैर अकादमिक। अकादमिक में तुम मुझे पाठ्य-पुस्तकों में पीरो दी गई नजऱ आती हो। जो कई बार बोझ के तौर पर महसूस होती है। वहीं दूसरी ओर गैर अकादमिक के रूप में तुम मुझे ज़्यादा आज़ाद और खुले रूप में मिलती हो। हम तुम्हें इन्हीं दो तरह के बरतनों में बांटकर देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं। जहां तक अकादमिक हिन्दी की बात करें तो पाठ्य-पुस्तकों में जिस रूप में तुम बच्चों से मिलती हो वह शायद उनकी दुनिया की नहीं हो पाती। शायद तुम्हें बच्चे किताबों के निकलकर मिलना-जुलना ज़्यादा पसंद किया करते हैं। क्योंकि जैसे ही किताबों में पाठ के तौर पर बच्चों से रू-ब-रू होती हो तो पाठ के अंत में बच्चों के सवालों का भी सामना करना पड़ता है। कई बार वही सवाल रटे-रटाए अंदाज़ में परीक्षा में उगल दिए जाते हैं। वहां तुम नहीं होती हो। बल्कि वह हिन्दी होती है, जिन्हें हम बच्चे बहुत मुश्किल से समझने और अपनाने की कोशिश करते हैं। अब तुम ही देखो, कोई कविता या कहानी पढ़ी। पढ़ी तक तो ठीक है, लेकिन यह भी बताना पड़ता है कि बताओ कवि या कहानीकार इन पंक्तियों से क्या कहना चाहता है? कवि का आशय क्या है? आदि-आदि। हमने तो आशय जैसे शब्द कक्षाओं में ही सुने हैं।

आम जीवन में तुम बच्चों के लिए अजूबा-सी लगती हो, हे हिन्दी 

आम जीवन में ऐसी हिन्दी न तो घर में और न दोस्तों के बीच या फिर दफ्तर में ही सुनने को मिलती है। ऐसे में हिन्दी तुम बच्चों के लिए अजूबा-सी लगती हो। क्योंकि आम हिन्दी से हटकर हो। आकदमिक तौर पर जब तुम्हें पढ़ते हैं तो तुम हमें कविता, कहानी, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा वृतांत डायरी के तौर पर तो बंटी नजऱ आती हो। कई बार सोचता हूं, इन क विता, कहानियों से होता क्या है? क्यों हम इन्हें पढ़ते हैं? लेकिन मास्टरजी से सुना था भाषा इन्हीं गलियों से होती हुई हममें शामिल होती है। शायद यह वज़ह है तो जीवन में आगे चल कविता, कहानी क्यों पीछे रह जाती हैं? इस तरह के कई सवाल मन में उठते हैं, जिनका उत्तर हिन्दी तुम से चाहता हूं। ख़ैर छोड़ो, तुम्हारे पास भी बहुत काम होंगे। कई मंचों पर तुम्हें माला पहनना होगा। कई गोष्ठियों में तुम्हारी शान में हज़ारोंहज़ार अल्फाज़ कहे जाने होंगे। जो मंच और माईक पर बोले जाने के लिए अभ्यास और सायास कहे गए होंगे।

70 सालों में राष्ट्रभाषा का दजऱ्ा  मयस्सर नहीं, सत्ता और अहम के चक्कर में तो नहीं पड़ गई? 
हिन्दी तुम अकादमिक और गैर अकादमिक दो हिस्सों मे ंफैली हो। तुम्हें गैर अकादमिक हिस्सा में समझने की कोशिश करता हूं तो पाता हूं कि गैर अकादमिक क्षेत्र में तुम्हें बड़ी ही सहजता में लिया जाता है। तुम्हें कैसे-कैसे इस्तेमाल करते हैं ये। यदि तुम जान लो तो तुम्हारे पांव के नीचे से जमीन खिसकती नजऱ आएगी। स्कूल-कॉलेज से बाहर झांको तो तुम्हें बोलने वाले वे आम लोग होते हैं, जिन्हें किसी और भाषा-बोली की यारी नहीं मिली। दूसरे शब्दों में ऐसे समझ सकती हो कि अन्य जगहों पर महज संवाद और संप्रेषण के तौर पर ही प्रयोग में लाई जाती हो। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि हिन्दी ही क्यों? हिन्दी को तो पिछले सत्तर सालों में राष्ट्रभाषा का दजऱ्ा तक मयस्सर नहीं हुआ। क्यों न अन्य भाषा को अपनाया जाए? कहीं तुम भाषायी सत्ता और अहम के चक्कर में तो नहीं पड़ गई? यही दंभ कई बार तुम्हारे लिए ख़तरा साबित हो सकता है।

मंचों, गोष्ठियों, सेमिनारों में अगर और कुछ होता हो तो बताना, हे हिन्दी!
मंचों, गोष्ठियों, सेमिनारों, कक्षों से बाहर तुम्हें निकलने की आवश्यकता है। आखिऱ इन गोष्ठियों में होता क्या है? यह तुम्हें भी मालूम है और हमें भी। कुछ गरमा-गरम बहसें, कुछ वायदे और कुछ दिखावा। अगर और कुछ होता हो तो बताना हिन्दी! तुम्हें इन सेमिनारों से बाहर निकल कर स्कूलों की खिड़कियों से झांकना होगा। जहां रोज-दिन शिक्षकों द्वारा पढ़ी-पढ़ाई जाती हो। वहां तुम्हारे साथ कैसा बरताव होता है। यह भी जानना दिलचस्प होगा। क्या तुम वर्णमालाओं की पहचान और दुहराव भर तो नहीं सीमित कर दी गई हो। यदि ऐसा है तो तुम बच्चों की प्यारी भाषा नहीं बन पाओगी। तुम्हें तो बच्चों के साथ स्कूल से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय तक का सफर तय करना है। कहने की हिमाकत करूं तो कहना चाहूंगा कि जिं़दगी में शामिल हो जाओ हिन्दी। तुम्हें किसी बड़े-बड़े सम्मेलनों, हिन्दी दिवस की ज़रूरत ही न पड़े। अपना ख्याल रखना हिन्दी। यह साल भी गया। फिर अगले साल मिलेंगे। किसी और सेमिनार, गोष्ठी या फिर सम्मेलन में। तब तक अपनी अस्मिता और पहचान बरकरार रखना।

– बिहार के डेहरी-आन-सोन (रोहतास) के रहने वाले कौशलेन्द्र प्रपन्न

दिल्ली में कार्यरत शिक्षण (पैडागोजी) विशेषज्ञ और कवि-लेखक हैं।   Mob. 9891807914


 

हिन्दी दिवस : एक संपादक की प्रतिक्रिया

वरिष्ठ संपादक मिथिलेशकुमार सिंह ने भारत के सोन अंचल (बिहार) केेंद्रित सामाचाार-विचार वेबपोर्टल सोनमाटीडाटकाम और सोनमाटी (प्रिंट) के लिए वाट्सएप (9708778136) पर आज (14 सितम्बर हिन्दी दिवस) सुबह अपनी स्वत:स्फूर्त संक्षिप्त प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा- अच्छा निकाल रहे हैं। बधाई!

मिथिलेशकुमार सिंह पटना (बिहार) में नवभारत टाइम्स की अग्रणी संपादकीय टीम के सदस्य और पिछले वर्षों राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संपादक रह चुके हैं। मैं इन्हें दृष्टि और प्रस्तुति का ज्ञान रखने वाले संपादक से अलग भी लालित्य के साथ संवेदना की धार को धारण और शब्दों का जीवंत शिल्पांकन करने वाला एक सक्षम लेखक मानता हूं। इनके संदर्भ में मेरे इस कथन के दर्शन फेसबुक के दर्शक-पाठक मिथिलेशकुमार सिंह की पोस्ट में करते भी रहे हैं। धन्यवाद सर, मिथिलेश जी।  (संपादक : सोनमाटी)

 

 

 

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