डालमियानगर पर,तिल तिल मरने की दास्तां धारावाहिक पढ़ा। डालमियानगर पर यह धारावाहिक मील का पत्थर सिद्ध होगा। यह धारावाहिक संग्रहणीय है।अतित के गर्त में दबे हुए, डालमियानगर के इतिहास को जनमानस के सामने प्रस्तुत करने के लिए आपको कोटिश धन्यवाद एवं आभार प्रकट करता हूं। आशा है आगे की प्रस्तुति इससे भी अधिक संग्रहणीय होगी।
–अवधेशकुमार सिंह, कृषि वैज्ञानिक, स.सचिव : सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार
– by Awadesh Kumar Singh e-mail
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on FaceBook kumud singh — हम लोग 10 वर्षों से मैथिली मे अखबार निकाल रहे हैं..उसमें आपका ये आलेख अनुवाद कर लगाना चाहते हैं…हमने चीनी और जूट पर स्टोेरी की है..डालमियानगर पर नहीं कर पायी हूं…आप अनुमति दे तो लगाने का विचार था…
6. तिल-तिल मरने की दास्तां (किस्त-6)
कारखानों को चलाने के लिए मजदूरों ने किया था रेलचक्का जमा, पुलिस की गोली से मारे गए दो लोग
आक्रोश में परवान चढ़ा श्रमिक आंदोलन, मगर इंदिरा गांधी की हत्या से भड़के देशव्यापी दंगे में दब गया
मोहनजोदड़ो-हड़प्पा बन चुका चिमनियों का चमन, सोन अंचल की बड़ी आबादी पर हिरोशिमा-नागासाकी शहरों पर हुए परमाणु बम प्रहार जैसा हुआ असर
डेहरी-आन-सोन (बिहार) – कृष्ण किसलय। रोम जल रहा था और उसका सम्राट नीरो वंशी बजा रहा था। मगर नीरो सिर्फ रोम में ही पैदा नहीं होता। भारत में भी ऐसा होता रहा है। प्राचीन बिहार का मगध जलता रहा और धर्म-जाति में बंटे लोग-समाज देखते रहे, करीब-करीब वैसा ही आधुनिक बिहार के डालमियानगर स्थित देश के सबसे विराट औद्योगिक समूह रोहतास इंडस्ट्रीज का हुआ। 1199 ईस्वी में आक्रमणकारी सरदार मुहम्मद बिन बख्तियार बिन खिलजी मात्र दो सौ घुड़सवार लुटेरों के साथ बिहार में दाखिल हुआ था और उस समय के मगध की राजधानी उदंतपुर को घेर लेने के बाद एक-एक कर बौद्ध भिक्षुओं का सार्वजनिक कत्लेआम किया था और नालंदा महाविहार (दुनिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय) में आग लगा दी थी, जो महीनों तक जलता रहा था।
तब भारतीय समाज धर्म-पंथ की दो मुख्य धाराओं बौैद्ध और हिंदू में बंटा हुआ था। उस घटना के बाद से ही प्राचीन साम्राज्य मगध का नाम बिहार और उदंतपुर बिहारशरीफ (नालंदा जिला) हो गया। हालांकि तब राजतंत्र था और आम जनता को इस बात से मतलब नहींहोता था कि कौन राजा बनता है? इसलिए 12वींसदी की उस घटना के तीन सौ साल बाद तुलसी दास ने लिखा भी- कोऊ होहूं नृप हमें का हानि।
खामोश रहे राजनीतिक दल, मानवाधिकार संगठन
मगर आज तो लोकतंत्र है और सारे राजनीतिक दल और व्यवस्था के सारे तंत्र जन-गण-मन की दुहाई देते थकते नहींहैं। डालमियानगर मृत्युशैया पर पड़ा रहा और प्रदेश-देश के नेता देखते रहे। जबकि कारखानों को खोले जाने की मांग के आंदोलन में दो लोग पुलिस की गोली से मारे गए थे। और तो और, पुलिस द्वारा गैर जरूरी तरीके से चलाई गई जानलेवा गोली कांड की न्यायिक जांच भी नहींहो सकी। इसके लिए किसी दल के नेता, किसी मानवाधिकार संगठन ने चीख-पुकार नहींमचाई।
उग्र हुआ मजदूर आंदोलन मगर…
20 अक्टूबर 1984 को हुए डालमियानगर गोली कांड के बाद मजदूरों का आंदोलन उग्र हो उठा था। उस गोली कांड में पुलिस फायरिंग में दो लोग मारे गए थे। मगर तभी 10 दिनों बाद 31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। इंदिरा गांधी हत्याकांड के बाद देश भर में सिख विरोधी दंगे भड़क उठे और इस नए देशव्यापी बवाल में रोहतास उद्योग का स्वत:स्फूर्त आंदोलन दब गया।
दोगली सियासत, सफेद झूठ की चादर
राजनीति कितनी दोगली और सफेद झूठ का चादर ओढ़े होती है, इसका जीवंत उदाहरण है मृत्युशैय्या पर पड़ा देश का डालमियानगर स्थित एक सबसे बड़ा उद्योगसमूह। 20 अक्टूबर 1984 के बाद रोहतास उद्योग का मुद्दा एक तरह से राजनीतिक-सामजिक परिदृश्य से गायब हो गया। अगले आम चुनावों में भी बंद रोहतास इंडस्ट्रीज मुद्दा नहींबन सका। पक्ष-विपक्ष की ढपोरशंखी राजनीति के चक्रव्यूह में स्थानीय जनता धर्म और जाति (अगड़ों-पिछड़ों) की राजनीति में बांट दी गई। जबकि तालाबंद रोहतास इंडस्ट्रीज सभी धर्म, सभी जाति और सभी वर्ग की रोजी-रोटी से जुड़ा हुआ साफ-साफ आर्थिक मुद्दा था।
चुनाव हारे तपेश्वर सिंह, इलियास हुसैन
तब विपक्ष के स्थानीय विधायक इलियास हुसैन और सत्ता पक्ष के स्थानीय सांसद तपेश्वर सिंह थे। हालांकि कांग्रेस के स्थानीय सांसद (बिक्रमगंज संसदीय क्षेत्र) तपेश्वर सिंह (सहकारिता सम्राट से नवाजे जाने वाले) 1984 का लोकसभा चुनाव और विधायक (डेहरी विधानसभा क्षेत्र) इलियास हुसैन (बाद में अलकतरा प्रकरण के बहुचर्चित मंत्री) 1985 का विधानसभा चुनाव हार गए।- लगी है अनेक की गिद्धदृष्टि
आज बेहया हकीकत यही है कि रोहतास उद्योगसमूह की जमीन व संपत्ति पर अनेक की गिद्धदृष्टि लगी हुई है, जो डालमियानगर से तिऊरा-पिपराडीह तक फैला है। जिसे जहां मौका मिला है, कब्जा जमाया और खूब कमाया भी है। जबकि रोहतास उद्योगसमूह में कार्यरत कर्मचारियों और इस पर आश्रित अन्य कारोबारियों की पीढिय़ां सड़क पर आ गईं, खानाबदोश बन गईं, तिल-तिल कर जलते हुए जिंदा रहने पर मजबूर हुईं।
(अगली किस्तों में भी जारी रोहतास उद्योगसमूह के स्थापित होने से मृत होने तक की कहानी)