आदमी के अतीत का आईना है धरोहर (कृष्ण किसलय की आकाशवाणी से प्रसारित रेडियो वार्ता)

जयहिन्द परिसर (डेहरी-आन-सोन) में सोनघाटी पुरातत्व परिषद की बैठक में बायें से दायें- बिहार इकाई के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद सरावगी, सचिव कृष्ण किसलय, संयुक्त सचिव अवधेशकुमार सिंह, कार्यकारिणी सदस्य नंदकुमार सिंह, उपसचिव उपेन्द्र कश्यप, कोषाध्यक्ष दयानिधि श्रीवास्तव, उपसचिव मिथिलेश दीपक, झारखंड (जपला मुख्यालय) के सचिव और अन्य। (फाइल फोटो : निशान्त राज, कार्यकारिणी सदस्य, सोनघाटी पुरातत्व परिषद)

आदमी की सक्रियता की धुरी पर हजारों सालों से घूमते-बदलते रहने वाले इतिहास-भूगोल के महत्वपूर्ण पक्ष-प्रश्न अज्ञात अंधेरे की तरह छिपे होते हैं, क्योंकि इतिहास-भूगोल विजेता के दृष्टिकोण और परिस्थिति, समय के बदलाव से बनने-बिगडऩे वाली चीज हैं। अफ्रीका से बेहतर वास-भोजन की तलाश में निकलकर दुनियाभर में फैलने वाली मनुष्य की मौजूदा प्रजाति (होमोसैपियन) 50-60 हजार साल पहले अंडमान द्वीप पहुंची और फिर वहां से हजारों सालों के विकास-यात्रा-क्रम में समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को अपना बसेरा बनाया। डीएनए परीक्षण से साबित हो चुका है कि समूचे एशिया के वासी अंडमान की आदिम जनजातियों के वंशधर हैं और 10-12 हजार साल पहले तक आधुनिक आदमी (होमोसैपियन) में कोई उल्लेखनीय रक्तमिश्रण नहीं हुआ। सिंधुघाटी के हड़प्पा-मोहनजोदड़ों में सबसे प्राचीन नगर सभ्यता का विश्वध्वज फहराने वालों के पूर्वज अंडमान के ही आदिमानव थे। अंडमान के ही वंशजों ने बिंध्य पर्वतमाला की एक कड़ी सोनघाटी के कैमूर पठार पर भी अलग-अलग दलों में हजारों सालों के अंतराल पर पहुंचकर 20 से 30 हजार साल पहले अलग-अलग समय में पड़ाव डाले थे। भारतीय वाग्मय में नद की संज्ञा प्राप्त सोन को प्राचीन यूनान सभ्यता के लोग एरनबाओस और रोमवासी सोआ नाम से जानते थे। भारतीय भूभाग के महाकाव्यों वाल्मीकि रामायण, महाभारत और पुराणों में सोन का जिक्र है। अनेक सभ्यता, पंथ-संप्रदाय के आक्रमणकारी, धर्मप्रचारक हजारों सालों से सोन की घाटी को लांघकर भारतीय महाद्वीप के उत्तर क्षेत्र में अफगानिस्तान तक या दक्षिण क्षेत्र में श्रीलंका तक आते-जाते रहे हैं। सोनघाटी में हजारों साल पुराने अवशेष यत्र-तत्र बिखरेे और जमींंदोज हैं। जाहिर है, प्राचीन सिंधुघाटी, वैदिक आर्यों की सरस्वती सभ्यता और गंगाघाटी से भी पुरानी सोनघाटी भारत के मूल बाशिंदो की भूमि है। सोनघाटी सभ्यता की खोज-यात्रा में दो दशकों से सक्रिय सोनघाटी पुरातत्व परिषद (बिहार) नए साक्ष्यों और सवालों के संभव उत्तर की कडिय़ां मिलाकर सोनघाटी की सत्यकथा को सामने लाने के लिए प्रयासरत है। इस संदर्भ में प्रस्तुत हैविश्व विरासत दिवस पर 19 अप्रैल 2020 को शाम 6.30 बजे आकाशवाणी से प्रसारित सोनघाटी के इतिहास अन्वेषक, देश के चर्चित विज्ञान लेखक कृष्ण किसलय की पुनर्प्रसारित संवर्द्धित ेडियो वार्ता। (-निशान्त राज, प्रबंध संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह)

विश्वविरासत दिवस पर विशेष :
सभ्यता विकास-क्रम के निर्धारण में धरोहरों का महत्व
0- कृष्ण किसलय (सोनघाटी के इतिहास अन्वेषक, वरिष्ठ विज्ञान लेखक)

सोनघाटी दुनिया का दुर्लभतम स्थल :

(आदिवासी और गुफाचित्र : तस्वीर गूगल से)

विरासत किसी व्यक्ति, समाज या देश के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि इससे पता चलता है कि आदमी का उतरोत्तर विकास कैसे हुआ और वह शिकारी-कृषक जीवन से सभ्यता-संस्कृति, जीवन शैली, भाषा-लिपि, ज्ञान-विज्ञान-तकनीक के किस-किस चरण से गुजर कर आधुनिक युग तक पहुंचा? दुनिया का हर संवेदनशील आदमी जानना चाहता है कि वह कौन हैं, उसकी मूल भूमि कहां है, वह किस मूल नस्ल-जाति का है, वह किसका वंशज है और कहां से आया है? विरासत आस-पास के पर्यावरण, स्थान, स्थापत्य, पुरातत्व, लोकगीत, लोककथा, लोकनाटक, सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा आदि अनेक रूप में मौजूद होता है, जिसे देखने-समझने के लिए एक सार्वकालिक-सार्वदैशिक नजरिये की जरूरत होती है। सोन नद के अंचल में बसा बिहार का रोहतास जिला धरोहरों की दृष्टि से दुनिया का बेहद महत्वपूर्ण स्थल है। जहां पूर्व-पाषाण काल में आदिमानवों (होमोसैपियन) के कैमूर पठार की गुफाओं में रहने के सबूत शैलचित्रों के रूप में और जिसकी तलहटी में नव-पाषाण काल के आदमी के बसने के साक्ष्य पुरासामग्री के रूप में मौजूद हैं। सोनघाटी विश्व का वह दुर्लभतम स्थान है, जहां कैमूर की गुफाओं से 15-20 हजार साल पहले आदमी (होमोसैपियन) नंग-धड़ंग बाहर निकला, तन ढंकने की तमीज सीख्री और शिकारी जीवन से मुक्ति पाकर किसान बना। पहले कद्दू-कोहड़ा, सूथनी-ओल, बेल (श्रीफल), बैर आदि की वानिकी और फिर खेसारी, मटर, धान आदि की खेती का विकास कर आदि-सभ्यता की नींव रखी। रोहतास जिले में कैमूर पठार के गुफा चित्रों को खोजने का कार्य सबसे पहले 1999-2000 (दिसंबर-जनवरी) में लेफ्टिनेंट कर्नल उमेश प्रसाद के नेतृत्व में सेना की टै्रकिंग टीम ने किया था, जिसमें बिहार पुरातत्व विभाग के पूर्व निदेशक प्रकाशचद्र प्रसाद भी शामिल थे। इसी समय स्वयंसेवी संस्था सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार ने कैमूर पहाड़ के निचले हिस्से और तलहटी में सोन नद के किनारे धरोहरों को खोजने, चिह्निïत-संरक्षित करने का कार्य शुरू किया था। सोनघाटी पुरातत्व परिषद द्वारा चिह्निïत दर्जन भर प्राचीन गांवों में अर्जुन बिगहा, घरी, लेरुआ, रिऊर ऐसे हैं, जहां से प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ ऐतिहासिक बुद्धकाल से सैकड़ों साल पहले की प्रस्तर-कुदाल, मृण्यमूर्ति, मनका, मृदभांडों के टुकड़े आदि महत्वपूर्ण की पुरा-वस्तुएं कृष्ण किसलय (सचिव) और अवधेश कुमार सिंह (संयुक्त सचिव) ने खोजी हैं। कैमूर पठार के आखिरी उत्तरी छोर गोड़इला पहाड़ की तलहटी के गांव लेरुआ की दुर्लभ शिल्पशैली वाली प्रस्तर मूर्ति अभी तक यक्षप्रश्न बनी हुई है। तक्षशिला से पाटलिपुत्र को जोडऩे वाले प्राचीन मार्ग पर स्थित गांव लेरुआ के रोहतास जिले के करवंदिया की तरह प्रस्तर शिल्प निर्माण का बड़ा केन्द्र होने की संभावना है तो अर्जुनबिगहा में दबी हजारों साल पुरानी सभ्यता अहिल्या-उद्धार की तरह उत्खनन की प्रतीक्षा में है।

विश्वविश्रुत विरासत रोहतासगढ़ :

रोहतासगढ़ परिसर में कैमूर पठार के पूरबी छोर पर रोहतासन-चौरासन मंदिर। (तस्वीर : भूपेंद्रनारायण सिंह, उपाध्यक्ष, सोनघाटी पुरातत्व परिषद,बिहार)

भारत को उत्तर-दक्षिण क्षेत्र में बांटने वाली बिंध्य पर्वत श्रृंखला की एक कड़ी कैमूर के आखिरी पूरबी छोर पर बहुज्ञात रोहतासगढ़ देश के मुख्य पहाड़ी किलों चितौडग़ढ़, चुनारगढ़, रणथंभौरगढ़, अलीश्वरगढ़ आदि से भी विशाल है, जिसकी 14 कोस में चीन की मोटी दीवार जैसी किलाबंदी का उल्लेख मध्यकाल के इतिहासकार अबुल फजल ने आईना-ए-अकबरी में किया है। रोहतासगढ़ का शासन दिल्ली के सुलतान सिकंदर लोदी ने राजा शालिवाहन को 1494 में सौंपा था। बंगाल के अफगानी शासक शेरशाह के कब्जे में आने से पहले 1537 में रोहतासगढ़ राजा चिंतामणि के अधीन था। 1605 से 1622 तक रोहतासगढ़ का शासक राजा नारायण मल्ल था, जिसकी जीवनकथा (रज्म-ए-नारायणी) चौसा, बक्सर के काजी मोहम्मद रजा ने लिखी। मुगल शासन काल में 1582 में रोहतासगढ़ के अधीन सात परगने रोहतास, सासाराम, चैनपुर, जपला, बेलौंजा, सिरिस और कुटुम्बा थे। अरब से दिल्ली दरबार में आए पैगम्बर मोहम्मद साहब के नाती सैय्यद हुसैन के वंशधर हिदायत अली खां को अजीमाबाद (पटना) का नायब सूबेदार बनाया गया था, जो सेवानिवृत्त होने के बाद सिरिस-कुटुम्बा परगना (औरंगाबाद) के बाशिंदा हो गए। इनके बेटा सैय्यद गुलाम हुसैन ने मुगल शासन का अंतिम इतिहास (शेर-उल-मुतखरिन) लिखा, जिस पर खुश होकर मुगल बादशाह फरुखशियार ने इनाम में जपला (हुसैनाबाद, झारखंड) की जागीर दे दी। सिरिस-कुटुम्बा के ही राजा नारायण सिंह ने बिहार में सबसे पहले अंग्रेजी राज से बगावत की थी, कुंवरसिंह से लगभग एक सदी पहले। जब 1587 में रोहतासगढ़ सूबा बंगाल का प्रशासनिक मुख्यालय बना, तब मौजूदा बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की इस सरकार के पास 4550 घुड़सवारों का रिसाला और 1.62 लाख पैदल सैनिकों की फौज थी। दिल्ली के बादशाह अकबर ने मान सिंह को सूबा बंगाल का सूबेदार बनाया, जिन्होंने रोहतासगढ़ में अपने हिसाब से कई भवन बनवाए। रोहतासगढ़ वही जगह है, जहां बादशाह जहांगीर से बगावत कर उसका बेटा शाहजादा खुर्रम ने अपनी बेगम अर्जुमंद बानो के साथ 1621 में शरण ली। रोहतासगढ़ में ही खुर्रम का छोटा बेटा मुरादबख्श 1624 में पैदा हुआ। खुर्रम भारत के इतिहास में बादशाह शाहजहां और अर्जुमंद बानो मल्लिका-ए-हिन्द बेगम मुमताज महल के नाम से प्रसिद्ध हुई। मुस्लिम शासन काल से पहले सूर्यवंशी खरवारों (ख्यरवाल राजवंश), नागवंशी चेरों (गहड़वाल राजवंश) और इससे भी पहले शुनकवंशी उरांवों, नागवंशी जनजातियों (कोरवां, शब्बर, मुंडा, कोल, द्रविड़ आदि) की राजधानी या सत्ताकेन्द्र के रूप में रोहतासगढ़ हजारों सालों के दीर्घ कालखंड में उजड़ता-बसता रहा है। बिहार के इस नाग-पुर (रोहतासगढ़) से ही पलायन कर उरांवों ने झारखंड के चुटिया-नागपुर (छोटानागपुर) में नागवंशी राजा फणीमुक्ता राय का राज्याभिषेक 64 ईस्वी में किया था। वास्तुकला के ज्ञाता द्रविड़ों के एक दलपति (मुखिया) रूईदास के नाम पर संभवत: बिहार के इस नाग-पुर का नाम रोहतासगढ़ पड़ा, जिसके एकदम पूर्वी सिरे पर किसी द्रविड़ राजा रोहित द्वारा निर्मित अति प्राचीन रोहतासन मंदिर का आधार-अवेशष आज जीर्ण-शीर्ण रूप में मौजूद है। रोहतासगढ़ से गौड़ देश (बंगाल) के राजा शशांक की 7वीं सदी की मुहर पुरातत्वविद एचडीडब्ल्यू गैरिक ने 1881 में खोजी थी। 12वीं सदी में रोहतासगढ़ का शासक (दंडनायक) गहड़वाल राजवंश के अधीन जपला का प्रताप धवल था। 1763 में उधवानाला में अंग्रेजी फौज से युद्ध हारने के बाद बंगाल के नवाब मीर कासिम ने परिवार और खजाने के साथ इसी रोहतासगढ़ में शरण ली थी। तब 1764 में कैप्टन थामस गेडार्ड के नेतृत्व में अंगे्रजी फौज दो महीने किला परिसर में रहकर इसे नष्ट किया था। उस समय रोहतासगढ़ परिसर का बनाया गया चित्र ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित है। एक सदी तक विरान पड़े रोहतासगढ़ को 1857 में कुंवर सिंह के छोटे भाई अमर सिंह ने केन्द्र बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय स्वाधीनता संग्राम का संचालन किया था।

भारतभूमि का प्रथम नाटक और गुप्ताधाम का नाचघर :

(गुप्तेश्वरधाम का मुख्य गुफाद्वार)

रोहतास जिला में चेनारी से 15 किलोमीटर दूर विख्यात गुप्ताधाम (गुप्तेश्वर) गुफा है, जिससे पौराणिक पात्र बकासुर (भस्मासुर) वध या त्रिपुरदाह की कथा जुड़ी है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अंतरराष्ट्रीय स्तर के शोधकर्ता डा. ब्रजवल्लभ मिश्र (मथुरा) ने माना है कि भस्मासुर वध भारत उपमहाद्वीप का प्रथम नाटक है, जिसका प्रयोग (मंचन) भारतीय सभ्यता के आरंभिक काल में होता था। त्रिपुरदाह और अमृतमंथन मानव सभ्यता के उस अत्यंत आरंभिक समय के प्रयोग (नाटक) हैं, जिस समय अभिनय, नृत्य और संगीत का विकास नहीं हुआ था। नाटक (प्रयोग) के शास्त्र का विकास वैदिक सभ्यता के पंच-नद से बाहर राजा नहुष (चंद्रवंशी अंबरीष का पुत्र, ययाति का पिता) के राज्य में दक्षिणा-पथ (सोनघाटी क्षेत्र) में हुआ, जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी भरतों ने विकसित-परिमार्जित किया। भरतों की परंपरा वैदिक काल के व्यासों की परंपरा से पूर्ववर्ती है। भरत ढोल बजाकर शरीर का कौतुक दिखाने वाली भारतीय भूभाग की मूल यायावर जाति थी, जिसके पुरखों को प्राकृत भाषा में णट्ट और पाणिनी के संस्कृत में नट कहा गया है। गुप्ताधाम गुफा-समूह के भीतर की एक गुफा को आज भी नाचघर कहा जाता है, जहां रंगमंच और दर्शकों के बैठने की जगह जैसी प्राकृतिक संरचना है। माना जा सकता है कि यह भस्मासुर वध के मंचन की आदिम रंगशाला थी। 1879 के कोलकाता रिव्यू में जिक्र है कि गुप्ताधाम (गुप्तेश्वर) मंदिर का उस वक्त का पुजारी राम शरण (शिवसिंह का वंशज) पैतृक परंपरा से खरवार था।

सोन के पश्चिम में दसशीशानाथ, पूरब में कबराकला :

लोकगीत, लोकनृत्य, लोकवाद्य के साथ आदिवासी नर्तक दल (तस्वीर : भूपेंद्रनारायण सिंह, उपाध्यक्ष, सोनघाटी पुरातत्व परिषद,बिहार)

रोहतास जिला में कुदरा नदी पर सासाराम से 10 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम सेनुआर और पांच किलोमीटर दक्षिण सकाश ऐसे स्थान हैं, जहां सोनघाटी के वंशजों ने कैमूर की गुफाओं से निकलने के बाद बांस-सरकंडे से मिट्टी का लेप लगाकर झोंपड़ी बनाई। खेती करने के लिए हड्डियों और पत्थरों के नुकीले औजार विकसित किए। कालांतर में तांबे के सूक्ष्म औजार भी बनाए। 1987 में सेनुआर गांव के टीले की बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के डा. विजयप्रताप सिंह ने आंशिक खुदाई कराई थी। सकाश से खोदकर निकाले गए नरकंकालों के डीएनए परीक्षण के परिणाम की प्रतीक्षा है। सोन-कोयल नदियों के संगम के सामने सोन के पश्चिमी किनारे पर पानी की धारा में डूबा बांदू का दसशीशानाथ मंदिर ताम्रलिप्ती (श्रीलंका) से कैलाशपर्वत तक जाने वाले भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्राचीन मार्ग पर था। सघन जंगल के कारण हाथी पर सवार होकर यहां 1812 में पहुंचे ब्रिटिश सरकार के सर्वेक्षक डा. फ्रांसिस बुकानन ने बताया था कि दसशीशानाथ के दर्शन करने करीब 10 हजार तीर्थयात्री पहुंचते थे। डा.बुकानन ने एक विशाल शिलाखंड पर रोहतासगढ़ के शासक खरवार वंश के अंतिम राजा उदयचंद्र और इस राजवंश के प्रतापी राजा प्रतापधवल के साथ 11 राजाओं के अंकित नाम को अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में सूचीबद्ध किया था। बांदू के सामने सोन के पूरबी किनारे पर प्राचीन गांव कबराकलां कम-से-कम 3500 साल से लगातार आबाद है, जहां से सोनघाटी पुरातत्व परिषद (मुख्यालय जपला, झारखंड) के अध्यक्ष अंगद किशोर और सचिव तापसकुमार डे की टीम ने अनेक दुर्लभ पुरा-सामग्री खोजी है। सोनघाटी पुरातत्व परिषद के कार्य का भारतीय पुरातत्व संरक्षण ने अपनी रिपोर्ट में तापसकुमार डे का संदर्भ देकर उल्लेख किया है।

क्यों जरूरी है धरोहरों का संरक्षण? :

कैमूर पठार की पूर्वी-उत्तरी श्रृंखला के आखिरी छोर गोड़इला पहाड़ पर बीस साल पहले 1999 में
सर्वेक्षण करते कृष्ण किसलय। (तस्वीर : अवधेशकुमार सिंह)

दुखद है कि धरोहरें सरकार, समाज की उपेक्षा और संरक्षण, जागरूकता के अभाव में जाने-अनजाने नष्ट हो रही हैं। सवाल उठाया जा सकता है कि विरासत को संभालने, धरोहरों को संरक्षित करने की जरूरत क्यों? इसके जवाब में रोहतास जिला के एक पुरातात्विक खोज का उल्लेख जरूरी है। पुरातत्वविद प्रो. किलहार्न ने तिलौथू के निकट फुलवरिया में राजा जपिल प्रताप धवल का वर्ष 1168-69 का शिलालेख खोजा था। शिलालेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीक्षक एम. कुरैशी को फुलवरिया में नहीं दिखा तो वर्ष 1931 में पुरातत्व विभाग की प्रकाशित पुरा-सामग्री सूची में इस शिलालेख का उल्लेख नहीं किया गया। द एंटीक्वेरियन रिमेन्स और शाहाबाद गजेटयिर में इसके गुम होने का जिक्र किया गया। वर्ष 2012 में वीरकुंवरसिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी के विद्वान प्रोफेसर डा. नंदकिशोर तिवारी, वरिष्ठ पुरा-अन्वेषी डा. श्यामसुन्दर तिवारी और पत्रकार प्रवीण दुबे के खोजी दल ने फुलवरिया गांव के सीताचुआ के पास पड़े उस शिलालेख को ढूंढ निकाला। अगर शिलालेख नहीं मिलता तो यह जनश्रुति बनी रह जाती। जैसाकि मोहनजोदड़ो-हड़प्पा की खोज से पहले दुनिया के इतिहासकार भारतीय सभ्यता को परवर्ती विकसित सभ्यता मानते थे। मगर हड़प्पा की खोज ने साबित कर दिया कि भारत में अति प्राचीनतम नगर सभ्यता थी और जिसने हजारों सालों की ग्रामीण सभ्यता के बाद ही आकार ग्रहण किया था। इसीलिए धरोहरों का संरक्षण जरूरी है और उनके प्रति व्यापक जन-जागरुकता भी। पुरावस्तुओं को बचाना, संभालना सरकार और सरकारी संस्थाओं की ही नहीं, बल्कि हम सबकी भी सामूहिक सामाजिक जिम्मेदारी है।
0- कृष्ण किसलय, सचिव, सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार
संपर्क :ोनमाटी प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यू एरिया, डेहरी-आन-सोन, जिला रोहतास फोन 9708778136

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