महत्त्वपूर्ण प्रगतिशील कवि त्रिलोचन की जन्मशताब्दी पर विशेष
त्रिलोचन हिंदी की प्रगतिशील काव्य-धारा के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवियों में हैं। उनकी कविताओं में लोक-जीवन की अभिव्यक्ति हुई है। वे सामान्य जन के कवि हैं। आलोचकों ने त्रिलोचन को लोकजीवन से जुड़ा मानने के साथ ही शास्त्रीय परम्परा का भी कवि माना है। प्रेम, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य, जीवन-संघर्ष, मनुष्यता के विविध आयामों को समेटे हुए इनकी कविता का फलक बहुत ही व्यापक है। शमशेर ने कहा था कि निराला के बाद यदि कोई कवि सबसे ऊंचा जाएगा तो वह त्रिलोचन है। त्रिलोचन का मूल्यांकन अभी होना है। अभी तो उन्हें ठीक से पढ़ा भी नहीं गया है। त्रिलोचन ने स्वयं लिखा है – उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा है दूखा है, कला नहीं जानता…। इस वर्ष त्रिलोचन की जन्म शताब्दी है। त्रिलोचन का नई पीढ़ी के कई कवियों से जुड़ाव रहा। कवि दिविक रमेश से उनका लगाव कुछ खास ही गहरा था। दिविक रमेश ने त्रिलोचन के कई साक्षात्कार लिए जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। उनके जीवन और रचनाशीलता पर दिविक रमेश से मनोज कुमार झा ने बातचीत की। यहां पेश हैं कुछ खास अंश।
- त्रिलोचन से आपका गहरा संबंध रहा। क्या आप बता सकते हैं कि ये संबंध कब बना और किस तरह आगे बढ़ा?
जी, शमशेर जी से मेरा सम्पर्क था। मेरे पहले कविता-संग्रह ‘रास्ते के बीच’ (1977) के लिए उन्होंने ही मेरी कविताएं चुनी थीं। उनसे बराबर मिलना होता था। दिलली में दयानन्द कॉलोनी वाले घर में भी और बाद में मॉडल टाउन वाले घर में भी। किसी भी समय। बातचीत में वे अक्सर कवि त्रिलोचन का भी नाम लेते जो दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले मेरे जैसे विद्यार्थियों के लिए बहुत अधिक परिचित नाम नहीं था। हम तो सप्तक के कवियों को ही जानते थे। एक दिन मैंने बातचीत में शमशेर जी से कह ही तो दिया कि त्रिलोचन जी की कविताओं ने मुझे आकर्षित नहीं किया। उन्होंने कहा कि निराला के बाद त्रिलोचन का नाम बसे ऊपर जाएगा। इस कवि का अभी मूल्यांकन होना है। मैं समझ गया था कि शमशेर जी त्रिलोचन की कविताओं को ज्यादा गम्भीरता, मेहनत और समझ के साथ पढ़ने की सलाह दे रहे थे। बाद में मैंने पाया कि ‘दिगन्त’ को पहले मैंने सचमुच ठीक तरह से नहीं पढ़ा था। मैं केवल तुकों और बंदिशों से ही बिदक गया था – अपने पूर्वाग्रहों के कारण। मैंने त्रिलोचन की कविताएं ठीक से पढ़ने का निश्चय किया। ‘धरती’ का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो चुका था। वह खरीदा। ‘गुलाब और बुलबुल’ मिली नहीं। ‘धरती’ को पढ़ा तो ‘चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता पढ़ कर मैं दंग रह गया। इतनी पुरानी कविता एकदम नयी लग रही थी। खासकर ‘कलकत्ता पर बजर पड़े’ पंक्ति ने तो हिला ही दिया।
- किसी ने कहा है कि निराला के बाद त्रिलोचन ही हिन्दी की जातीय चेतना के प्रतिनिधि कवि हैं, आपका क्या मानना है?
त्रिलोचन तुलसी और निराला को लगभग सर्वोपरि मानते थे। इन्हीं की परम्परा में त्रिलोचन नि:संदेह जातीय परम्परा के कवि हैं जिन्हें दूसरे शब्दों में धरती के कवि भी कह सकते हैं। त्रिलोचन का विश्वास कवि के रूप में पूरे देश को आत्मसात करने में था। इस आत्मसात करने की उनकी राह जलसों आदि से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत संपर्कों से गुजरती थी। सामयिक आंदोलनों से अधिक प्रभाव ग्रहण करने से वे बचते थे तथा अखबारीपन को कविता के लिए अच्छा नहीं मानते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि कवि भाव की समृद्धि जन-जीवन के बीच से ही पाता है। वहीं से वह जीवंत भाषा भी लेता है। ताजगी तभी आती है और जीवंत भाषा किताबों से नहीं आती। वे जनता में बोली जाने वाली भाषा को पकड़ते हैं। हां, हिंदी के कवियों के लिए संस्कृत सीखने पर भी उनका जोर था। अपनी कविताओं के चरित्रों को उन्होंने जीवन से उठाया है। जैसे नगई महरा। शमशेर ने कहा था कि निराला के बाद यदि कोई कवि सबसे ऊंचा जाएगा तो वह त्रिलोचन है।
- त्रिलोचन सम्भवत: हिन्दी के पहले कवि हैं जिन्होंने सॉनेट लिखे। सॉनेट जैसे विदेशी छंद में इनके काव्य की उपलब्धि आपकी दृष्टि में क्या रही है? त्रिलोचन ने सॉनेट खासतौर पर पढ़ा था। सॉनेट रवींद्रनाथ ने भी लिखे हैं। सॉनेट को उन्होंने फैशन के तौर पर नहीं अपनाया था, बल्कि वह उन्हें अनुकूल जान पड़ा था। सोन माने ध्वनि होता है। सॉनेट त्रिलोचन की निगाह में छंद न होकर अनुशासन था। उन्होंने 14 पंक्तियों के सॉनेट लिखे जो सॉनेट के लिए सामान्य संख्या मानी जाती है। मिल्टन ने जरूर 18 पंक्तियों के भी सॉनेट लिखे। प्रभाकर माचवे ने 15-20 पंक्तियों में सॉनेट लिखे। त्रिलोचन ने प्राया: रोला छंद में सॉनेट लिखे हैं। बरवे में भी लिखा है। वस्तुत: त्रिलोचन ने इस पश्चिमी अनुशासन को भारतीय और त्रिलोचनी बना दिया, बहुत ही सहज रूप में। इनके यहां वाक्य एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति में जाकर भी खत्म नहीं होता है। छायावादी प्रवृत्ति से अलग इन्होंने अधूरे वाक्य के स्थान पर पूरे वाक्य को अपनाया है। वैसे भी त्रिलोचन के सॉनेट कविता की दृष्टि से ऊंचे हैं, अपने फॉर्म के कारण नहीं। उनको पढ़ते समय शिल्प भूल जाता है, केवल रचना का रस आता है। श्रेष्ठ रचना की पहचान के मानक के रूप में उन्होंने कहीं लिखा भी है – रचना देखत बिसरहिं रचनाकार। कला या रूप की दृष्टि से यह सर्वमान्य तथ्य है कि सॉनेट के क्षेत्र में त्रिलोचन का काम अद्वितीय है।
- उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध के समक्ष त्रिलोचन को आप किस रूप में देखते हैं? त्रिलोचन के काव्य में ‘जन’ किन रूपों में आता है?
ये सभी दृष्टि सम्पन्न या कहूं विचार की दृष्टि से प्रगतिशील सोच के कवि हैं और हिंदी-कविता के अलग-अलग शिखर हैं, अनुभव सम्पदा और कलात्मक वैभव दोनों ही स्तरों पर। जहां तक जन की बात है वह त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ के यहां अपने ठेठ या सहज जातीय रंग-ढंग के साथ मुखरित है। मुक्तिबोध और शमशेर के यहां वह झलक मारता हुआ मूर्तिमान है। थोड़ा जड़ाऊ भी। त्रिलोचन का जन बावजूद प्रहारों के जीवन का हिमायती, रोजमर्रा की जिंदगी को जीता हुआ, जो नहीं है, उसके लिए तैयारी करता हुआ जनपदीय जन है, जबकि नागार्जुन का जन थोड़ा व्यवाहारिक, मुंहफट और राजनीतिक उठा-पटक के बीच अपनी राह तलाशता अपेक्षाकृत चतुर जन है-अभिव्यक्ति के खतरे उठाता हुआ भी। मुक्तिबोध का जन डर और सहमी स्थितियों के बीच दबते-दबते खुद को बचा ले जाने की समझ को तलाशते और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की समझ को धार देता हुआ जन है। केदारनाथ अग्रवाल का जन अपनी अवांछित यथास्थितियों में भी अपने को कमजोर पड़ने की सोच से बाहर निकाल कर अपनी वास्तविक ताकत की पहचान बनाता और कराता जन है जो उत्सव भी मना सकता है। शमशेर का जन प्रकृति और ब्रह्मांड में सौंदर्य तथा प्रेम का एक विशाल और पूर्णत्व से सधा संसार रचता हुआ सशक्त, सकारात्मक और आत्मविश्वास से भरा अपनी धुन में जीता जन है। मैंने लिखा था – त्रिलोचन! न अतीत, न भविष्य और न ही वर्तमान। महाकाल! निरन्तरता में ही कोई पकड़ ले तो पकड़ ले। सतत गतिशील! न आदि न अंत। जानकार समझते हैं कि त्रिलोचन जब भी उभरे या उभरेंगे या उभरते हैं तो एक निरन्तर वाणी, एक निरन्तर गतिशीलता में ही। जड़ता या ठहराव को अर्थहीन करते हुए, रुके-रुके मुक्तिबोध से अलग, सतर्क और तैयार। नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के यहां कविता-स्तर ऊपर-नीचे होता रहता है, लेकिन त्रिलोचन के यहां वह एक औसत दर्जे से नीचे कभी नहीं जाता। त्रिलोचन की कविताएं कहीं भी आवेश की नहीं हैं, बल्कि गजब के धैर्य की हैं। मैं समझता हूं कि सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि कवि समग्र प्रभाव के रूप में अपनी भाषा, तथ्य और अप्रोच की दृष्टि से रोमानी नहीं है। जीवन से सीधा और सधा हुआ साक्षात्कार जितना इस कवि में मिलता है, वह बहुत कम देखने में आता है।
- 5. कहा जाता है कि त्रिलोचन को साहित्य जगत में भारी उपेक्षा का सामना करना पड़ा। खासकर, लेखक संघों की राजनीति में वे उपेक्षित हुए। प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है…लिखा। आख़िर प्रगतिशीलों ने उनकी उपेक्षा क्यों की, क्या औरों की भी की? कुछ प्रकाश डालें इस पर।
त्रिलोचन को पहली मान्यता लोगों अर्थात उनके पाठकों जिनमें रचनाकार भी थे, से मिली। अपने समय के मान्य स्टार आलोचकों से नहीं मिली, जैसे मृत्यु के बाद ही सही, मुक्तिबोध को मिली थी। लोगों और पाठकों के दबाव ने ही आलोचकों की आंखें उनकी ओर की। तब जाकर आलोचकों के लिए वे ‘खोज के कवि’ के रूप में ही सही पर उभर कर आ सके थे। सुनकर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि 1957 में प्रकाशित उनके ‘दिगंत’ का दूसरा संस्करण मेरे ही प्रयत्नों से एक उभरते प्रकाशक ने 1983 में जाकर छापा था। हांलांकि, पांडुलिपि काफी पहले दी जा चुकी थी। यही नहीं, उन पर पहली पुस्तक ‘साक्षात त्रिलोचन’ भी कमलाकांत द्विवेदी और मेरी ही देन थी। साहित्य अकादमी जैसी संस्था उन्हें निमंत्रण तक नहीं भेजती थी, जिसके लिए मैं लड़ा। जिस संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, उसे भी तब के एक युवा कवि ने ही तैयार किया था। लेकिन इस इतिहास को कुछ ही लोग जानते हैं। नयी पीढ़ी तो श्रेय उन्हीं को देती प्रतीत होती है, जिनसे वे उपेक्षित रहे। त्रिलोचन न खुशामदी थे और न अपने स्वाभिमान से एक इंच भी डिगने वाले थे। उलटा आलोचक हो या कोई और, उन पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूकते थे। त्रिलोचन उपेक्षित रहे, लेकिन उन्होंने उपेक्षा नहीं की। जैसे शमशेर को कवियों का कवि कहा गया है, वैसे ही त्रिलोचन को उपेक्षितों का उपेक्षित सहानुभूतिपूर्ण सहयात्री कहा जा सकता है। शिकायत केदारनाथ अग्रवाल को भी थी न केवल गैरों से, बल्कि अपनों से भी और जायज थी। पूरा मूल्यांकन तो अभी भी होना है त्रिलोचन का
- 6. त्रिलोचन की कौन-सी कविताएं आपको विशेष प्रिय लगती हैं, उनकी खासियत के बारे में भी बताएं।
अनेक प्रिय हैं। मैंने कई लेख लिखे हैं जो मेरी पुस्तकों (कविता के बीच से, समझा परखा) में संकलित हैं और जिनमें पसंद की कुछ कविताओं का जिक्र आया है। यहां सब का जिक्र करना बहुत विस्तार में जाना होगा। हां ‘धरती’ को पढ़ा तो ‘चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता पढ़कर मैं दंग रह गया। इतनी पुरानी कविता एकदम नयी लग रही थी। फिर इनके एक के बाद एक तीन संग्रह प्रकाशित हुए। ‘उस जनपद का कवि हूं’ के सारे सॉनेट किसी को भी पसंद आएंगे। ‘धरती’ के भी अधिकांश गीत पसंद के हैं। फिर भी ‘सोच समझ कर चलना’, ‘बह रही वायु सर सर सर सर’, ‘गंगा बहती है’, ‘लहराती लहरों वाली’, ‘पथ पर चलते रहो निरंतर’, ‘जब छिन मैं हारा’, ‘एक प्रहर दिन आया होगा’, ‘बादलों में लग गयी है आग’, ‘खिला यह दिन का कमल’, ‘धूप सुंदर’, ‘लौटने का नाम मत लो’, ‘मौत यदि रुकती नहीं’, ‘बढ़ अकेला’ और ‘उठ किसान ओ’ विशेष पसंद के हैं। चैती, जीने की कला, मेरा घर, शब्द आदि सभी संकलनों मेरी विशेष पसंद की कविताएं भी हैं।
-मनोज कुमार झा, Mobile – 7509664223/7999596288