हिंदी के अप्रतिम विलक्षण कवि-लेखक-पत्रकार विष्णु खरे अब हमारे बीच नहीं हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषा साहित्य में ही नहीं, उनकी पहचान विश्व साहित्य में भी है। वह ऐसे बड़े कवि हैं, जिनकी रचनात्मकता भारतीय भाषाओं में उंगलियों पर गिनी जा सकती है। उनकी अनेक कविताएं क्लासिक हो चुकी हैं और उनके योगदान को हिंदी की समृद्ध काव्य परंपरा में अलग से पहचाना जा सकता है। उनकी कविताओं में तात्कालिक आवेग या प्रतिक्रिया से अलग सुदीर्घ वैचारिकता से बनी संवेदनाएं गढ़ी हुई हैं, जो पढऩे वाले को एक नया कोण दे जाती हैं। उन्हें नाइट आफ द व्हाइट रोज सम्मान, हिंदी अकादमी साहित्य सम्मान, शिखर सम्मान, रघुवीर सहाय सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान प्राप्त हुए थे।
हिन्दी कविता को दिया नया मुहावरा और नया विन्यास
विष्णु खरे हिंदी कविता में उनका योगदान अतुलनीय है और वह उन थोड़े से कवियों में हैं, जिन्होंने हिंदी कविता को नया मुहावरा और नया विन्यास दिया। महाप्राण निराला ने हिंदी कविता को छंद से मुक्ति दी तो विष्णु खरे ने उसे गद्य का निराला ठाठ प्रदान किया। लालटेन जलाना, गुंग महल, जो टेंपो में घर बदलते हैं, हर शहर में एक बदनाम औरत होती है, जिल्लत, दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है, द्रौपदी के विषय में कृष्ण, लापता, उल्लू, गीध, लड़कियों के बाप जैसी काव्य रचनाएं आधुनिक हिंदी कविता के शिखर पर खड़ी मानी जा सकती हैं। अंतरराष्ट्रीय काव्य जगत में उनकी पकड़ और अलग-अलग भाषाओं के नए-पुराने कवियों से उनका परिचय किसी को चकित करने वाला था। इसीलिए उन्हें पता रहता था कि हिन्दी और अन्य भाषाओं में कौन कवि मौलिक लेखन और कौन उल्लेखनीय कार्य कर रहा है?
कई विधाओं में एक साथ दखल रखने वाला शख्सियत
विष्णु खरे हिंदी की उन विरल विलक्षण शख्सियतों में थे, जो एक साथ कई विधाओं और क्षेत्रों में दख़ल रखते थे। वह अपूर्व संपादक, आलोचक, अनुवादक और फिल्मों के मर्मज्ञ भी थे। पत्रकारिता में भी उन्होंने लंबा समय गुज़ारा और नवभारत टाइम्स के स्वर्णिम दिनों में कई बेहतरीन टिप्पणियां उनकी कलम से निकली थीं। पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उल्लेखनीय है। उनके गद्य की वक्रोक्ति वाली भंगिमा बड़ी मारक थी। उन्होंने फिल्मों को अछूत नहीं माना। बालीवुड और विश्व सिनेमा के प्रति उनका आकर्षण अंत तक बना रहा। समकालीन सिनेमा पर वह निरंतर लिखते भी रहे।
दिल्ली में मकान मालिक थे, मगर दूसरी बार किरायेदार बनकर लौटे
कुछ ही महीने पहले उन्होंने दिल्ली को दूसरी बार अपना ठिकाना बनाया था और 79 साल की उम्र में हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद संभाला थाा। दिल्ली के जिस मयूर विहार फ़ेज-वन से वे अपना मकान बेच कर गए थे, वहीं किरायेदार की हैसियत में लौटे थे। हालांकि किसी लाचारी में नहीं, बल्कि अपने स्वभाव के अनुकूल अपना जीवन अपने ढंग से जीते हुए एक नई वापसी के लिए। वह कुछ साल पहले अपने घरवालों के आग्रह पर मुंबई भी गए थे, लेकिन वहां उनका मन रम नहीं पा रमा और वह मुंबई छोड़कर छिन्दवाड़ा चले गए थे। उनकी कामना थी कि उनकी आखिरी सांस मुंबई में न निकले। मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में 9 फरवरी 1940 को जन्मे विष्णु खरे का निधन 19 सितम्बर की दोपहर बाद दिल्ली के गोविंद वल्लभ पंत अस्पताल में हो गया। हफ़्ते भर पहले वे मस्तिष्काघात के बाद नीम बेहोशी में अस्पताल लाए गए थे। बहरहाल, जन्मभूमि में तो नहीं, मगर कर्मभूमि (दिल्ली) में उन्होंने अंतिम सांस ली।
(प्रस्तुति : कृष्ण किसलय, तस्वीर संयोजन : निशांत राज
विष्णु खरे की कविता डरो पर इलुस्ट्रेशन रोहित जी. रूसिया की फेसबुक वाल से)