मनुष्य और साहित्य के बीच गंभीर और पवित्र रिश्ता है। दोनों एक दूसरे को सुंदर बनाने में सहयोग करते हैं। इस रूप में मनुष्य और साहित्य की संस्कृति सामासिक और समावेशी रही है। दोनों के मूल निहितार्थ ‘सत्यम-शिवम-सुंदरम्’ की अवधारणा को पुष्ट करते हुए लोकमंगल की भावना को विस्तारित करना है। कवि और कलाकार, कुछ अपवाद को छोड़कर, अधिक संवेदनशील होते हैं। इस लिहाज से प्रेम, करुणा और समावेशी भाव चेतना के पक्षधर भी होते हैं। फलतः जीवन में अंधेरी ताकतों के विरुद्ध टकराना, जीवन सौन्दर्य की रक्षा करना एवं सत्य-चेतना की मशाल जलाना उनके स्वभाव का हिस्सा बन जाता है, और अपने सामर्थ्य के मुताबिक वे कला और कविता के माध्यम से प्रकाश वृत्तियों का विस्तार करते हैं। कवि कुमार बिन्दु की सृजनशीलता को भी हम मनुष्यता और जागतिक मूल्यों के पक्ष में संघर्षरत पाते हैं।
सृष्टि का सौंदर्य सादगी, सरलता, त्याग, करुणा, पारस्परिकता और प्रेम के कारण फलीभूत होता है, किंतु संवेदनहीन वैज्ञानिक दृष्टि ने मनुष्य जीवन को अधिक संश्लिष्ट, आत्म केंद्रित और विभेदकारी बना दिया है। व्यक्तिवादी सोच के चलते समाजवादी जीवन दृष्टि कमजोर पड़ी है। कविता और कला का बहुलतावादी सांस्कृतिक स्वर खेमे-खूंटे की संसिद्धि का साधन बन कर रह गया है। सब अपने-अपने पिंजरे की प्रशंसा में संलग्न हैं। समग्र अभिव्यक्ति के स्थान पर एकांगीपन का बोलबाला है। सहज-सरल प्रस्तुतीकरण के स्थान पर जटिल और संश्लिष्ट लेखन को वरीयता देने का चलन बढ़ा है। कुल मिलाकर भाव की प्रधानता के जगह तकनीकी की प्रधानता है। आज के इस चतुर, संश्लिष्ट, आत्ममुग्ध और तकनीकी समय में जहां अधिकांश कलाकार प्रतीक, संकेत और जटिल बिंबों का सहारा लेकर अपने विचार को रूप देते हैं, वहीं कुमार बिन्दु जी अपने व्यापक अनुभवों के सहारे गांव-गंवई एवं लोक की सहज-सरल और बोधगम्य भाषा में अपनी कविताई को जन सुलभ बनाते हैं।
कवि कुमार बिन्दु का कविता से रागात्मक रिश्ता है। यह संबंध जीवन की जड़ों के प्रति संवेदनशील जुड़ाव से फलीभूत हुआ है। जीवनानुभवों की अतल गहराइयों में धसकर ही कवि ने इसे सहज सहजता से अर्जित कर सका है जो लेखन की सबसे संवेदनशील विधा- कविता के लिए बेहद जरूरी है। इसलिए एक रचनाकार के रूप में वे अपने आप को कविता विधा में अभिव्यक्त करने में आनंद का अनुभव करते हैं। उनकी कविताएं मनुष्यता की रक्षा के लिए लिखी गई कविताएं है। वे गांव- गिरांव, वंचितों, मजलूमों, गरीबों एवं सर्वहारा के हित और पक्ष में कविता लिखने में अधिक क्रियाशील लगते हैं। उनकी रचनाओं में प्रेम, सौन्दर्य के चित्रण के साथ शोषितों-पीड़ितों के प्रति अपनत्व का भाव है, ये सब उनकी घनीभूत सम्वेदना के कारण ही है।
कुमार बिन्दु के संग्रह- ‘साझे का संसार’ का फलक व्यापक है। स्थानीय भोजपुरिया समाज-समुदाय, वहां के रीति-रिवाज, घटनाओं- परिस्थितियों को अपने में समेट घेरकर जीवनदायीनी जड़ों मूल्यों को तो कवि रेखांकित करता ही है, साथ ही वैश्विक धरातल की जरूरी घटनाओं को भी कविताओं का काव्यात्मक आधार बनाता है। कुमार जी भावुक एवं निर्मल मन के व्यक्ति हैं। उनकी भावुक निर्मलता ही उन्हें चेतना सम्पन्न कर सच का आग्रही और कभी-कभी विद्रोही बना देती है। विचार और काव्य कौशल के बीच संतुलन की आवश्यकता होती है किंतु इस आत्ममुग्धता और सतही किन्तु रोमान्चक निरूपण के दौर में जहाँ अधिकांश कवि कविता कला की परवाह किए बगैर अपने होने का उत्सव मनाते हैं। ऐसी हठधर्मिता कविता के कवितापन को नुकसान पहुंचाती है।वहीं कुमार बिन्दु काव्य कला के विकास के प्रति सजग रहते हुए जीवन के यथार्थ को काव्यात्मक यथार्थ में ढालते हैं। इस काव्य सजगता के कारण वे ठहर-ठहर कर लिखे, कम लिखे किन्तु ये जो लिखे हैं, वे कलात्मक मानदंडों के अनुकूल हैं , इसलिए ‘कविता के रूप में’ पठनीय और संग्रहणीय हैं ।
‘साझे का संसार’ कवि कुमार बिन्दु का पहला कविता संग्रह है। यह शीर्षक समावेशी और पारस्परिक जीवन मूल्यों की संकल्पना को स्वमेव इंगित करता है और जब हम कविताओं से होकर गुजरते हैं तो सहज ही जीवन समय को मंगल और सुखमय करने वाले प्रेम, करूणा, एकता भाईचारा को पुष्ट करने वाले जीवन सूत्रों को सहेजते हुए कवि की प्रतिबद्धता को कोई भी सजग व्यक्ति महसूस कर सकता है। यह काव्य समर्पण का सूचक है। किंतु कविताओं में सौन्दर्य और काव्य बोध के विस्तार की गुंजाइश बनी हुई है। मूल्यवान कविता लिखने के लिए यह जरूरी है कि कविता लिखते-लिखते कवि स्वयं कविता बन जाय। इसके लिए मानसिक एवं बौद्धिक तैयारी की विशेष दरकार होती है। एक सार्थक कवि स्वयं कविता बन कर ही अच्छी कविता का सृजन कर सकता है। इस दिशा में कहीं-कहीं कवि की कविता में उसके पत्रकार का खुरदुरा यथार्थ व्यवधान बन जाता है। पत्रकार वैसे भी खुरदरे यथार्थ और सतही समय का चितेरा होता है। जब कि मूल्यवान कवि ऋषि होता है। कवि एव ऋषयः। कवि रेव प्रजापति।कविता का सृजन व्यवहारिक यथार्थवादी जीवन का पुनरसृजन है। यह कार्य कठिन है। इस राह में लड़खड़ाना तय है। इस लिए महान से महान कवि की हर रचनाएं महान नहीं होतीं। वैसे भी कोई कलाकार पूर्ण कहाँ होता है? वह पूर्णता की ओर होता है।बावजूद इसके कुमार बिन्दु जी की कविताएं (कुछ कविताओं को छोड़कर) परिपक्व एवं कविता के प्रतिमान पर खरी हैं। यह अलग बात है कि आजकल नदियों को प्रायोजित तरीके से मारा जा रहा है और छोटे नाले अपनी-अपनी आत्ममुग्धता में उफान पर हैं। ऐसे में राजेश जोशी, आलोकधन्वा, अरूण कमल, स्वप्निल श्रीवास्तव सा गहरे जीवनुभव को अपनी रचनाओं में सहेजने एवं बचाने वाले इस पुरबिया कवि पर कौन ध्यान देगा? यह विचारणीय प्रश्न है। किंतु इन पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
कला और लेखन को लेकर मेरी मान्यता है कि कलाऐं कला कर्म तो हैं ही, ये सामाजिक कर्म भी हैं। कविता को हम इससे अलग करके नहीं देख सकते। इसलिए भी दोनों को एक साथ साधने के लिए सम्बंधित कला तत्वों और गहन जीवनानुभवों की आवश्यकता होती है ताकि समय एवं समय हीनता को एक साथ साधा जा सके। इसलिए भी कविता कर्म चुनौतीपूर्ण साधना है। कवि कुमार बिन्दु इस अनन्त साधना पथ के लिए यशस्वी पथिक हैं। उनकी कविताओं में समय के मनो वैज्ञानिक यथार्थ को पकड़ने और सहेजने की ललक अधिक दिखाई देती है। हां, इसके साथ समाज और वैश्विक अंधेरे का हाहाकार भी कविताओं में शामिल हो जाता है। अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य और प्रकृति का शाश्वत स्वभाव और समकालीन स्वभाव में क्या वाटर टाइट कम्पार्टमेंट होना चाहिए? शायद यह संभव भी नहीं है। साहित्य की समकालीनता का क्या होगा? दोनों के बीच साहित्यिक और परस्पर आवाजाही तो होना ही चाहिए किन्तु जीवन और मनुष्य स्वभाव की मूल्यवान निरन्तरता को सहेज कर ही।
कुमार बिन्दु के कविता पुरुष को, उनके कविता मन को गांव की आबोहवा, वहां का चैता कजरी टप्पा, वहां की सादगी पारस्परिकता शहर की भीड़ भरी आपाधापी वाले एकाकी जीवन की तुलना में अधिक रास आते हैं । जीवन एवं सामाजिक दायित्व बोध से जुड़ी होने के कारण इनकी कविताओं में प्रेम और इंसानियत की खुशबू अधिक महसूस की जा सकती है। कुमार बिन्दु जी की कविताएं लोक हितैषी होने के कारण सामान्य जन के पक्ष में विद्रोही तेवर अपनाने में भी संकोच नहीं करती हैं। कवि की समग्र चिंता और सरोकार शोषित-पीड़ित जन के जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध सी लगती है। इस प्रतिबद्धता में उनकी कविताएं कभी-कभी भावुक विचार प्रवाह का रूप ले लेती हैं जिनमें तात्कालिक समय तो रहता है लेकिन काल की अनंतता उसमें शामिल नहीं रहती है। यही कवि की कमजोरी भी है और उसकी ताकत भी है।
कवि की स्वाभाविक प्रतिबद्धता गांव के लोगों एवं भोले भाले जन के प्रति तो है ही, गरीबों और शोषितों के प्रति भी है। वह उनकी समस्याओं से मुक्ति का पाठ दोहराते हुए साझी संस्कृति का सपना देखता है। वह मानता है –
“हम सब का संघर्ष है एक
तुम्हारा दुख सिर्फ तुम्हारा नहीं है
तुम्हारी जंग सिर्फ तुम्हारी नहीं है
साझे का दुःख है/साझे का संघर्ष है
साझे का जीवन है/साझे का संसार है “
एक गंभीर और महत्तर सोच वाला कवि ही ऐसे शब्दों को तलाशता है जो “प्रेम का बीज मंत्र” बन सके। यही कारण है कि कुमार बिन्दु की कविताओं में तानाशाही एवं सामंती सोच के विरुद्ध मुखर स्वर हैं और प्रेम और प्रेम-करूणा की प्रतिमूर्ति औरत जाति के लिए विशेष आदर भाव है। औरत के प्रति कवि का पवित्र भाव विशेष तौर पर रेखांकित करने योग्य है –
“औरत की देह
इश्क की दरगाह है
जहां खामोशी से कोई दरवेश
महबूब को देता आवाज है…..
औरत की देह
इश्क से बन जाती है
पाक कुरान की आयतें
वेद की पवित्र ऋचाएं
सच्चे हिंदू के लिए काशी
सच्चे मुसलमान के लिए काबा”
इस बढ़ती दरिन्दगी के दौर में कवि की स्पष्ट धारणा इस संग्रह में दिखती है कि प्रेम और पारस्परिकता ही जीवन के आधार हैं। किन्तु यह प्रेम आये दिन बिरल हो रहा है। प्रेम करना जरूरी होते हुए भी इस लौह समय में कठिन होता जा रहा है-
” क्योंकि प्रेम में पाना नहीं
सिर्फ खोना होता है…
किसी स्त्री की देह पाना बहुत आसान होता है
मगर किसी स्त्री से प्रेम करना बहुत ही कठिन…
दरअसल प्रेम के क्षितिज पर
साधारण स्त्री भी असाधारण हो जाती है
वह कभी अमृता प्रीतम
तो कभी शौकत आजमी बन जाती है “
वाकई इमरोज और अमृता प्रीतम एवं कैफी आजमी और शौकत आजमी के समर्पित प्रेम से प्रेम करने वालों को सीख लेनी चाहिए।” प्रेम छुअन” कविता में कवि तो यहां तक कह देता है –
“औरत के प्रेम भरे छुअन से
उसके स्नेहिल स्पर्श से
उसके जादुई संसर्ग से
जुड़ा जाता है युवा पेड़ का हृदय
तब वह खिलता है”
धरती पर विस्तार आखिर प्रेम का ही तो विस्तार है। ऐसी स्थिति में पेड़ जो कि जड़ता का प्रतीक है। वह भी प्रेम के जादुई संसर्ग में ‘एक विराट फलदार वृक्ष बन जाता है।’ इस संग्रह में प्रेम के इर्द-गिर्द कई कविताएं हैं। कवि द्वारा लिखी प्रेम कविताओं को पढ़कर मन सहज ही कह उठता है कि कवि के व्यक्तिगत जीवन का प्रेम ही विस्तारित होकर लोक प्रेम और वैश्विक प्रेम में रूपांतरित हो गया है। कवि का सूर्य का सानिध्य पाकर ‘ सूर्यमुखी का फूल’ बनना और उसकी प्रेयसी का ‘महुआ का फूल’ बन जाना प्रेम का प्रतीक तो है ही, साथ ही पुरूष का सूर्य मुखी होना आध्यात्मिक प्रेम और प्रेयसी महिला का महुआ का फूल होना प्रकृति की मादकता का प्रतीक है। यकीनन आध्यात्मिक और प्राकृतिक प्रेम का परस्पर मिलन ही प्रेम की शाश्वतता है।यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि कुमार बिन्दु के लेखन में औरत जाति के लिए प्रेम और सम्मान है। वह सामाजिक औरत हो या प्रेयसी अथवा उनकी अपनी ही बिटिया, सबके लिए एक फेमिनिस्ट की तरह सक्रिय लगते हैं। “ओ मेरी बिटिया” नामक कविता में कवि की समझाइश भरी पक्षधरता कुछ इस तरह परवान चढ़ती है –
“तुम अपनों के लिए
फूलों की तरह महको
चिड़िया की तरह चहको
मगर दुश्मन के लिए
अग्नि की तरह दहको
ओ मेरी बिटिया…..
तुम्हें चांद की तरह चमकना है
तुम्हें सूर्य की तरह दहकना है
इस धरती पर सदियों से छाये
घने अंधेरे के खिलाफ
तुम्हें लड़ना है मेरी बिटिया “
इन्हीं प्रेम, समावेशी सोच और उदात्त भावना के कारण कवि
साझी संस्कृति का सपना देखता है जहाँ भेद-भाव और ऊंच-नीच के लिए कोई जगह नहीं है। प्रगतिशील मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े होने के कारण वह समता मूलक समाज का पक्षधर है। फलतः फासीवाद व्यवस्था और तानाशाही रवैया से मुठभेड़ करने से नहीं कतराता है , लेकिन जिस रूप में विरोध करता है, वह निराला जी की तरह संकेत में नहीं, बल्कि वह सम्प्रेषणीय बोली भाषा में अपना विरोध दर्ज करता है –
“मैं अपने पुरखों के साथ
पुनर्जीवित हो जाऊंगा
और हिरणों के इतिहास में
शिकारियों की शौर्य गाथाओं के खिलाफ
दाशराज्ञ का नया अध्याय रचूंगा”
यहां सामन्ती तानाशाही और हिरणी के माध्यम से सामान्य जन पर होते दमन को दरसाया गया है। इतना ही नहीं, ऋषि शम्बूक के दृष्टान्त को बदले परिवेश में चुनौती के रूप में निरूपित किया गया है।
“यह भी तय है कि तानाशाह के सपने में
उसकी जय-जयकार करते भक्तों की भीड़ में
जब दिख जाता होगा महर्षि शम्बूक का प्रेत….
तब प्रभु का डोलने लगता होगा राजसिंहासन
तब प्रभु की उचट जाती होगी नींद
तब तानाशाह की नींद हो जाती होगी हराम”
कुमार बिन्दु जी की कविताओं में जन सरोकारी तेवर है। उसके लिखने में आगा-पीछा नहीं है। हां, उसका लेखन निर्भीक और प्रेम जनित है। वे प्रेम और प्रश्नाकुलता के कवि हैं। वे साहित्यिक लाभ के लिए अवसरवादी लेखन नहीं करते हैं , इसलिए उसकी रचनाओं में शोषितों और पीड़ितों के लिए एक खास किस्म की प्रतिबद्धता और नैतिकता के प्रति आग्रह है। देश प्रेम भी उसकी कविताओं में इसी पवित्र प्रतिबद्धता के कारण है। वह एक सहज सामाजिक कवि है। उसकी लेखनी बौद्धिक चतुराई से दूर है। यही कारण है कि इस कवि की कविताओं को पढ़ते हुए एक खास किस्म का अपनत्व और अपनापन महसूस होता है। यह कवि अपने देश से ही प्रेम नहीं करता बल्कि ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ में अटूट विश्वास करता है। सच्चे और निर्मल मन वाले कवि को छद्म प्रेमी और नकली देश भक्त अच्छे नहीं लगते हैं। लोकतंत्र किसी भी देश में विकास करने और प्रेम बांटने के लिए ही आता है। कुमार बिन्दु के इस संग्रह में एक खासियत यह है कि वे कविता को अधिक असरदार और सम्प्रेषणीय बनाने के लिए लोक गीतों की कुछ पंक्तियों को उसमें शामिल करते हैं। कविता का जायका बढ़ जाता है। यह हुनर समकालीन कविता में विरल है। इस लिहाज से भी यह हुनरमंद कवि हृदय को गहराई तक छूता है। कुछ बानगी तो देखना ही चाहिये –
- मोरी देहिया बलम की जमींदारी रे
काहे डारे नजर सारी दुनिया रे - निमिया के पत्ता झरी जाला अंगनवां
कइसे बुहारूं जी
उहे रे आंगन ससुर जी का डेरा
घूंघट काढत दिन जाला अंगनवां
कइसे बुहारूं जी
*एह पार हमरो मडइया
उहे पार सइयां बाड़े हो राम
बीचवा में देवरा कसइया
धइले कलइया बाटे हो राम
*सुतल बलम के जगावे हो रामा बैरन कोयलिया
*राजा दशरथ एगो पोखरा खनवले
- लाली लाली डोलिया में
लाली रे दुल्हनिया /पिया की प्यारी
मन को रिझाने और झुमाने वाले और भी गीत हैं जिनका होना इस कविता संग्रह को प्राणवान बनाता है। इतना ही नहीं,बुद्ध, कबीर,रैदास बिस्मिल्लाह खान, गालिब, गोरख,मछंदर, सीता यशोधरा, शेरशाह, भारत के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर, संघर्ष के प्रतीक दशरथ मांझी आदि के इर्द-गिर्द कवि कविता तो बुनता ही है, साथ ही बाबरी मस्जिद के ध्वन्स और पुलवामा में शहीद हुए सैनिकों का जिक्र कविता में ड्रामाटिक शैली में करता है।
कवि का सारा रचनात्मक संघर्ष और उसकी उठा पटक जीवन को सुखमय और समरस बनाने के लिए की गई पहल है। इस लिहाज से उनकी रचनाओं में काव्य मूल्य के सहारे ‘कवितापन’ खोजने के साथ उनमें जीवन संघर्ष के सूत्र भी खोजे जाने चाहिए। इस रूप में कुमार बिन्दु की कविताओं में काव्य मूल्य एवं संघर्ष मूल्य दोनों की क्रियाशीलता है। इन कविताओं में कविता की कीमिया भी हैं, और जीवन संघर्ष के पाठ भी मुखर हैं। समय और समाज की दारूण भयावहता और गरीबी का बिम्ब लट्टू के माध्यम से दर्शाया गया है –
“वह जीवन भर
रोजी-रोटी के लिए
नाचते हैं लट्टू की तरह
और नाचते-नाचते लुढ़क जाते हैं एक दिन”
इतना ही नहीं “बोलो शंकराचार्य बोलो” नामक कविता में कवि शंकराचार्य से प्रश्न पूछता है –
“कैसी दिखती हैं
शहर के एक हिस्से में बनी झुग्गी-झोपड़ियां
क्या तुम जानना चाहते हो…
देखो शंकराचार्य देखो
क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि
जैसे सड़क पर रेंग रहे हों घिनौने कीड़े
क्या झुग्गी-झोपड़ियां ऐसी नहीं दिख रहीं
जैसे गू खाने वाले गंदी सूअरों के हों बाड़े “
यकीनन भूख और गरीबी का यह चित्र केवल भारत में अपनी भयावह स्थिति में नहीं है बल्कि कमोवेश हर देश में है। हर जगह जहां एक ओर कुछ मुट्ठी भर खाये-अघाये लोग हैं तो वहीं दूसरी ओर भूख और गरीबी से तड़पते बिलखते लोगों का बड़ा समूह भी है जो कुटिल शोषण का शिकार है। इस तरह के लोगों का जीवन रोटी के लिए खोज का जीवन बन के रह गया है। ये जीवन के मूल निहितार्थ एवं उसकी दिशा को न जानकर केवल दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। और ईश्वर तमाशबीन बना हुआ है। क्या सचमुच ईश्वर की उपस्थिति में इस तरह का भेद-भाव और ऊंच- नीच, इस तरह का लूट, शोषण, अत्याचार संभव है ?। वह पूछता है कि हे ईश्वर, क्या तुम कवि हो? क्या तुम चित्रकार हो?
” हे ईश्वर
यदि तुम प्रेम के देवता हो
तब युद्ध हिंसा घृणा के विष-वृक्ष का रक्त बीज
तुम्हारी इस पवित्र पृथ्वी पर कौन बो रहा है?
गंगा जमुना के जल में मानव रक्त घोल रहा है?”
जब ईश्वर की ओर से कोई जवाब नहीं मिलता, तब वह ईश्वर को ताना मारते हुए कहता है –
” हे ईश्वर
तुम चुप क्यों हो
क्या तुम कायर हो, नपुंसक हो
या तुम्हारी ही यह काली करतूत है? “
यकीनन ईश्वर की चुप्पी उसे अखरती है। इसलिए जब धरती पर ही ईश्वर के तथाकथित प्रवक्ता यह घोषणा करते हैं कि ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता, तब उसे इस घोषणा में हिटलर शाही की दुर्गंध आती है। इसलिए वह कहता है-
” ईश्वर शब्द सुनकर ही मुझे
आने लगती है उबकाई
मुझे हिटलर शाही पसंद नहीं
मुझे तानाशाही बिल्कुल पसंद नहीं
इसलिए मैं अपनी प्यारी दुनिया को
ईश्वर विहीन देखना चाहता हूं।”
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह कवि का मार्क्सवादी तेवर और दृष्टि है। मार्क्स वादी विचारों के पक्षधरों और समर्थकों की तरह वह ईश्वर को नकारता है, उससे प्रश्न करता है। इस तरह की प्रश्नाकुलता ईश्वर को व्यक्तिवाची मान लेने से ही उठती है। जबकि ईश्वर मेरी दृष्टि में मूल्य वाचक है। ईश्वर को व्यक्ति वाचक मान लेने से ही अंधविश्वास पाखंड मंदिर मस्जिद के बखेड़े खड़े होते हैं। ईश्वर को लेकर मार्क्सवादियों के मन में जो घृणा भाव है वह सतही सोच की ही उपज है, क्योंकि पत्थरों को हमने ईश्वर मानकर उसी के इर्द-गिर्द लूट और शोषण के जाल खड़े कर लिए हैं। आखिर मूल्यवाची ईश्वर किसे नहीं चाहिए? ईश्वर की जगह उसका नाम कुछ भी रखा जा सकता है। खैर।
कवि विसंगतियों का चित्र खींचने में माहिर है। उसकी दृष्टि सामाजिक विसंगतियों पर अधिक पड़ती है। यह भी सच है कि इन असमानताओं के बीच उतर चुकी चतुराई के कारण एक वर्ग शोषण करके उत्तरोत्तर धनी होता जा रहा है तो वहीं दूसरा वर्ग खून पसीना बहाने के बावजूद भी रोटी-रोटी को मोहताज है। ऐसी सामाजिक बिषमता कवि को चिंता में डालती है । अब तथाकथित सेवकों और पहरुओं की नीयत ठीक नहीं है। वे दूसरे के हक हिस्से की कमाई हड़पना चाहते हैं, और हड़प ही रहे हैं। राम का नाम भारतीय संस्कृति का प्राण है, किंतु राम के नाम को भी लोग लूट का आधार बना लिए हैं। ऐसे दोहरे आचरण से क्या कभी राम राज्य और सामाजिक समरसता संभव है? कवि की चिंता ऐसे छद्म समाज में रचनात्मक आकार पाती है।
धर्म तो जीवन देता है, किंतु धार्मिक ठेकेदारों में धर्म को धंधे में बदल दिया है। फलतः राम, ईसा और पैगंबर के नाम पर जगह-जगह दंगे होते हैं और आए दिन मानवता, मनुष्यता और भाईचारे को लहूलुहान होना पड़ता है, और जब यह सब दुशासन ही कर और करवा रहा हो राजा के रूप में, तब शिकायत कहां की जाए? यह भी एक समस्या है जिसका समाधान दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता है। ऐसी दयनीय दशा में आखिरकार आजादी का क्या अर्थ निकाला जाए? क्या आजादी खून-खराबा, काटने, मारने, लूटने और शोषण करने, अनीति और अनाचार फैलाने के लिए हम सबको मिली है ? यह प्रश्न तो उठना ही चाहिए और ऐसा प्रश्न कवि उठाता भी है। जब रक्षक ही भक्षक बन जाय, तब वहां चीर हरण तो होता ही है। वह हरण चाहे न्याय, शिक्षा, चरित्र या निर्माण का हो। चारों तरफ अराजकता ही दिखाई देती है। कमोवेश यह स्थिति आज भारत में व्याप्त है। आए दिन करोड़ों की लागत से बने पूल गिर रहे हैं, आए दिन सड़के धस और टूट रही हैं। आए दिन शासकीय भवन गिर रहे हैं। ऐसा गिरना मनुष्य के चारित्रिक गिरावट के कारण ही संभव है। ऐसे गिरावट और धसाहट के बीच जब गिरावट करने वाले वे पहरेदार हों, जिनसे रोशनी की उम्मीद की जाती है, तब न्याय की उम्मीद करना बेमानी हो जाता है। वहां जीना भी मरने की तरह ही रहता है। और यही सब दिख रहा है। अब निर्माण लूट का बहाना बन गया है।
जिस समय और समाज में, जिस देश और काल में लूट और शोषण के रास्ते तलाशे जा रहे हैं, वहां भला गरीबों की कौन सुनेगा? सिर्फ उन्हें बरगलाया और फुसलाया जा रहा है ताकि लूटने वालों की कुर्सी सलामत रहे। गरीबों को जीवन्त पैर नहीं दिए जा रहे हैं। उनमें बैसाखियों के सहारे चलने की आदत डाली जा रही है। इस तरह विकास के नाम पर पंगुहीन समाज और देश रचा एवं गढ़ा जा रहा है। क्या ऐसे ही समाज में राम का रामत्व उतरेगा, बुद्ध की करुणा फैलेगी एवं ईसा की प्रार्थना आकार लेगी ? ऐसे अनगिन प्रश्न हैं जिनसे कवि कुमार बिन्दु आकुल- व्याकुल लगता है। वह अपने हिस्से की रोशनी एवं संघर्ष समाज एवं देश के हित के लिए न्योछावर करता है। उसका होना रोशनी और संघर्ष का होना है। उसका जीना और लिखना कुछ इसी तरह की संकल्पधर्मिता को धारण किये हुए है।
कवि कुमार बिन्दु के इस संग्रह – ‘साझे का संसार’ में जीवन और जगत की तपिश है। इसमें जीवन मूल्यों को बचाने और सहेजने की उत्कट लालसा है। प्रेम, करुणा, आशा,निराशा, उम्मीद, अनुशासन, एवं ललकार के आग्रह इन कविताओं में हैं। दुनिया को सुंदर बनाने की अंतहीन छटपटाहट कविताओं को पठनीय बनाती है। कवि की ऐसी प्रतिबद्धता ढाढस देती है –
“आओ मेरे दोस्त!
इस अंधेरी रात को ढलने तक
एक नये लाल सूर्य के उगने तक
अब हम अंधेरे के खिलाफ दीया जलाएं
स्याह रात में उजाले के कोई गीत गुनगुनाएं”
एक मूल्यवान और समर्थ कवि अपनी रचना प्रक्रिया, वाक्य विन्यास और भाषिक संरचना के प्रति सचेत रहकर उन्हें निरंतर मांजता रहता है। ऐसा करके ही वह जीवन्त, प्रगतिशील और उपादेय बन पाता है। ‘कविता का पिकासो’ बनना आसान नहीं है। लेकिन कवि कुमार बिन्दु के लेखन में जादुई यथार्थ, कलात्मक संवेदना और जागतिक जीवन-राग की गंभीर क्रियाशीलता और कीमिया विद्यमान हैं । मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि बिन्दु जी प्रेम, पारस्परिकता, संघर्ष चेतना एवं साझे की संस्कृति के कवि हैं। उनकी कविताओं में मार्क्सवादी मूल्यों की यत्र-तत्र खनक मौजूद है। सामाजिक और वैश्विक ताने-बाने में जो लोग मनुष्यता और मानवता की खोज करते हैं, उनके लिए ‘साझे का संसार’ साहस और ऊर्जा देगी। इसमें काव्यात्मक गरिमा की परिधि में प्रेम, मानवता और भाई चारे का भरापूरा जीवन्त संसार है।
इन्हीं भावनाओं के साथ इस यशस्वी सृजन यात्री को हार्दिक शुभकामनाएं……
कवि-कुमार बिंदु
समीक्षा– प्रो. अनिल सिंह ‘सत्यप्रिय’, प्राध्यापक अंग्रेजी प्रधानमंत्री कालेज आफ एक्सीलेंस, सीधी (म.प्र.)-486661
9424746496 / 9131912668
प्रकाशक-अभिधा प्रकाशन
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