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कविताएं : चन्द्रेश्वर, कुमार बिन्दु और लता प्रासर

-चन्द्रेश्वर 

बक्सर (बिहार) निवासी,

बलरामपुर (उत्तर प्रदेश) पीजी कालेज में विभागाध्यक्ष।

कई पुस्तकेें प्रकाशित।

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दिल्ली क्या कम गंधाती है सर जी !

इस सुपर फास्ट ट्रेन की
दूसरी श्रेणी के स्लीपर कोच नंबर दस की
अ_ाईस नंबर बर्थ पर जो लोअर है और जो
आपको सीनियर सिटीजन के नाते मिल गई है
इसमें इतराने जैसा नहीं है कुछ भी सर जी,
दिन का मामला है ऊपर से गर्मी का दिन है
उमस है, भीड़ है, दिल्ली जाना है मुझे भी
कल टेस्ट है मेरा सर जी,
रिजर्वेशन नहीं करा पाया अचानक पता चला
किनारे बैठ लेने दीजिए
रात में लखनऊ के बाद
नीचे बिछा लूंगा चादर सर जी,
बुरा मत मानिए मेरा यकीन मानिए मजबूरी है
बिहार से हूं बिहटा से सर जी,
बिहारी इतने बुरे भी नहीं होते और
ये ट्रेन तो राजगीर से ही भरी आ रही है सर जी,
अब क्या कीजिएगा सर जी
बिहार तो इसी देश के नक्शे पर है सर जी,
ट्रेन के गंधाने का कोई रिश्ता
खाली बिहार से ही कैसे बनता है सर जी
बाकी दिल्ली क्या कम गंधाती है सर जी
ये अलग-अलग नजरिये की बात है सर जी
और ऐसे भी आपकी लोअर बर्थ से
फर्श की दूरी बमुश्किल दो बीत्ता ही तो है सर जी !

 

पानी

इधर देश में लंबे चले चुनाव में
घर से बाहर तक मुझे सबसे ज्यादा फिक्र हुई
तो पानी को लेकर,
सब जगह दांव पर लगा दिखा पानी ही
फिर भी सब सोख रहे थे
ज्यादा-ज्यादा पानी ही

बेवजह गांवों की गलियों से लेकर
शहरों की कालोनियों तक में
किया जा रहा था नष्ट पानी ही,
ऐसे में पानी को पानी की तरह
देखना रह गया था एक दुर्लभ दृश्य प्रकृति का
कितना फरेब था शामिल लोगों के जीवन में
जहांसब बातें करते थे
पानी को पानी की तरह बचाने की
पर होता जा रहा था नदारद पानी ही

पानी सिर्फ तालाबों, कुओं, बावडिय़ों
नदियों से ही नहीं जा रहा था रसातल में
पानी हर आदमी के चेहरे से भी
उतर रहा था तेजी से
इतना कुछ के बाद भी
पानी के लिए बेरहम थे ज्यादातर लोग
पानी से ही सब होना था
फिर भी मारने पर उतारू थे लोग पानी को ही !

(चन्द्रेश्वर : 7355644658)

 

 

-कुमार बिन्दु

लेखन-पत्रकारिता के साथ

डेहरी-आन-सोन  (बिहार) की

साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियों में चार दशकों से सक्रिय।

अभी मैं हारा नहीं हूं !

मैं युद्ध में हार गया हूं
और कुछ समय के लिए बन गया हूं
तुम्हारा राजनीतिक बंदी
अभी थोड़ा विवश हो गया हूं
तुम्हारा हुक्म मानने के लिए
तुम्हारा जुल्म सहने के लिए
मगर मेरे पुरखे कहते थे
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
यह सच है कि मैं युद्ध में हार गया हूं तुमसे
मगर मैं मन से हारा नहीं हूं
मैं तो इस धरती का आदिम योद्धा हूं
अपने अस्तित्व के लिए करता रहा हूं
पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रकृति से संघर्ष
रोटी के लिए, पानी के लिए, जीवन के लिए
जो आग जलाती थी मुझे
जो आग डराती थी मुझे
एक दिन मैंने उसे भी जीत लिया
अपना सुरक्षा कवच बना लिया
मैंने खूब अपने खून-पसीने बहाए
गुफाओं से निकलकर गांव बसाए
कभी पत्थर तो कभी लोहे के हथियार बनाए
सोन से सिंध तक सभ्यता के नव प्रासाद सजाए
मैं जानता हूं तुम नफरत के नायक हो
जन-जन के हृदय में घृणा-द्वेष के बीज बोते हो
नफरत की आग फैलाते हो
मगर हमने खिलाए हैं हमेशा आग में फूल
मोहब्बत के सतरंगी गुल
तुमने सुकरात को जहर दिया
ईसा को सलीब पर लटकाया
हुसैन का कर्बला में कत्ल किया
अहिंसा के पुजारी गांधी की भी
तूने गोली मारकर हत्या कर दी
तुम अहिंसा के, खल्क और खुलूस के
खुदा के सभी नेक बंदों के दुश्मन हो, हत्यारे हो
तुम्हें याद है वो दिन
जब जर्मनी में श्रेष्ठ आर्य नस्ल के गीत गाए थे
राष्ट्रवाद के मंत्र से युवाओं को खूब भरमाए थे
सत्ता के हवस में तुम मौत के सौदागर बने
कहीं हिटलर, कहीं मुसोलिनी, कहीं तोजो बने
फिर भी नहीं थमा जिंदगी का सिलसिला
आगे बढ़ता रहा मोहब्बत का हसीन कारवां
तुम भूल गए हो नायक
यह शस्य श्यामला भारत भूमि
अहिंसा के पुजारी महात्मा बुद्ध की
सोलह कलाओं वाले प्रेम के देवता
गिरधर, गोपाल, मदनमोहन, श्याम की है
महामना मुरलीधर सुदर्शन चक्रधारी की है
सामाजिक न्याय के इस महाभारत में
वीर अभिमन्यु का वध करके
तुम यह जंग नहीं जीते हो
और मैं भी युद्ध हारा नहींहूं
अभी समर शेष है दुर्योधन
अभी समर शेष है दु:शासन।

(कुमार बिन्दु : 9939388474)

 

-लता प्रासर

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन से जुड़ी

सोन अंचल के मगही भाषी गांव की,

पटना में शिक्षिका के रूप में कार्यरत।

यह निगोड़ी…!

जिसे बड़ी शिद्दत से ढूंढ रही थी
जिसके लिए गली-गली भटकी
आफिस-दर-आफिस चक्कर लगाई
कहां-कहां नहींढूंढा
बेगैरत… बेहया… एहसान फरामोश
कितनी लानते हैं जिसके लिए
हां-हां वही है जो आप सोच रहे हैं,
कैसे न सोचें लोग
कितनी गालियां… कितनी बातें
सुनवाई है इस निगोड़ी ने
सिर्फ मैं ही नहीं
जिसको देखो भागा जा रहा है
इस निगोड़ी के पीछे,
कितना भाव खाती है
आखिर क्यों न खाए भाव,
लोग हाथ धोकर पीछे जो पड़े हैं
कितनी मन्नतें कीं कितनी दुआएं मांगीं
मंदिरों में आरजू की,
यह निगोड़ी आज मिली ‘दो जून की रोटीÓ
सचमुच आज मन भर गया
शब्द नहीं कुछ कहने को !

क्षणिका

किसी ने पूछ लिया झटके से
आपकी औकात क्या है,
हमने भी मुस्करा कर कह दिया
कुछ मील पैदल चलना,
कुछ शाम भूखे रहना।

(लता प्रासर : 7277965160)
(लता प्रासर के फेसबुक वाल और वाह्ट्सएप से)

One thought on “कविताएं : चन्द्रेश्वर, कुमार बिन्दु और लता प्रासर

  • June 13, 2019 at 3:31 am
    Permalink

    बहुत सुन्दर कविताएँ जिनमें सभी रचनाओं का एक अलग ही महत्त्व है.

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