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प्रसंगवश : सूर्य करता है सृष्टि नियम का पालन, महाभारत के जयद्रथ वध के समय था सूर्यग्रहण!

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सूर्य करता है सृष्टि-नियम का पालन, महाभारत के जयद्रथ वध के समय था सूर्यग्रहण!
– कृष्ण किसलय –
(विज्ञान लेखक, स्तंभकार और संपादक)

भारत में 21वीं सदी का तीसरा सूर्यग्रहण 11 साल बाद 21 जून 2020 को अलग-अलग राज्य में अलग-अलग, मगर निश्चित अवधि में 09 बजकर 16 मिनट से 03 बजकर 04 मिनट तक देखा गया। यह सूर्यग्रहण आंशिक था। अंतिम पूर्ण सूर्यग्रहण गुजरी 20वीं सदी में 1980 में हुआ था। देश के उत्तरी सीमांत के हिमालयी प्रदेश उत्तराखंड में सूर्यग्रहण अंगूठी के रिंग की तरह दिखा तो जयपुर में सफेद मुंबई में हरा, पंजाब में गुलाबी चांद, गुजरात में गोधूली रंग और तमिलनाडु में रक्तवर्णी दिखा। ऐसा अलग-अलग जगह पर सूर्य की रोशनी के सात रंगों में से अलग-अलग रंग के छन कर आने के कारण हुआ। भारत से दूर दुबई में सूर्य सफेद दूज के चांद की तरह देखा गया। बिहार में ग्रहण काल 10 बाजकर 30 मिनट से 02 बजकर 10 मिनट तक निर्धारित था। देश के प्रसिद्ध मंदिरों में शामिल पटना रेलवे स्टेशन स्थित हनुमान मंदिर का कपाट भी ग्रहण-काल में बंद रखा गया। हनुमान मंदिर न्यास के सचिव किशोर कुणाल के अनुसार, कपाट को सुबह 08 बजे से शाम 04 बजे तक बंद रखा गया, जिसके बाद भक्तों के लिए खुद को सैनिटाइज कर, मास्क लगा और शारीरिक दूरी का पालन कर मंदिर-दर्शन के लिए पट खोल दिया गया।

खगोलीय घटनाओं की वैज्ञानिक भविष्यवाणी संभव :

भारत के खगोल गणना में विश्वपितामह होने के बावजूद खगोलीय घटना के अवसर पर आदमी की आरंभिक सभ्यता के हजारों सालों से जारी अन्न-धातु दान, ग्रह-निवारण, पूजा-पाठ, गृह-शुद्धि, शरीर शुद्धि आदि अंधविश्वास आज भी बरकरार है। जबकि विज्ञान-तकनीक के विकास के बाद अच्छी तरह जाना जा चुका है कि सूर्य या चंद्र ग्रहण या सौरमंडल के ग्रहों की विशेष स्थिति नियमित खगोलीय घटनाएं हैं, जिनकी पूर्व गणना पूरी तरह संभव है। हजारों सालों के चिंतन-अवलोकन के बाद आदमी बेहतर तरीके से समझ चुका है कि सभी ग्रहों के भ्रमण मार्ग, भ्रमण में लगने वाला समय और उनकी गति एक नियमित क्रम है, जिससे खगोलीय घटना यानी ग्रह-स्थिति की वैज्ञानिक भविष्यवाणी करना सुनिश्चित हुआ है। आज यह जानकर रोमांच हो सकता है कि महाभारत के जयद्रथ वध में शायद खगोल गणना की भूमिका रही हो। उस समय के खगोलविद ऋषि ने गणना कर जानकारी पहले ही जानकारी कर ली होगी कि उस दिन पूर्ण सूर्यग्रहण होगा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में सूर्यग्रहण को सूर्यास्त बताने पर योद्धाओं ने सूर्यास्त होने के नियमानुसार अपने हथियार रख दिए होंगे। इसी बीच जयद्रथ को मार दिया गया, मगर सूर्यग्रहण खत्म होने पर दिन का उजाला हो जाने से जयद्रथ वध को उचित मानना पड़ा होगा।

सूर्यग्रहण की प्रतीक्षा करते हैं खगोल वैज्ञानिक :

(21 जुलाई 2009 को दैनिक जागरण, आगरा में कृष्ण किसलय की रिपोर्ट)

खगोल वैज्ञानिक सूर्यग्रहण का अध्ययन विभिन्न तरह की जानकारी के लिए करते हैं और अध्ययन के लिए सूर्यग्रहण का इंतजार करते हैं। पूर्ण सूर्यग्रहण का वैज्ञानिक अध्ययन तो 1715 से किया जा रहा है। यह जाना जा चुका है कि एक हजार साल में औसतन दस यानी लगभग 100 साल पर एक पूर्ण सूर्यग्रहण की खगोलीय घटना होती है और पूर्ण सूर्यग्रहण की अवधि 07 मिनट 31 सेकेेंड से अधिक नहींहो सकती। 07 जनवरी 1610 को पहली बार खगोल वैज्ञानिक-दार्शनिक गैलीलियो गैलीयाई ने दूरबीन से सूर्य का निरीक्षण किया था। तब से सूर्य के बारे में अधिक दृश्यात्मक जानकारी मिलने लगी। ग्रीनविच (ब्रिटेन) की वेधशाला ने 1836 से 1953 के 117 सालों के सूर्यग्रहण के आंकड़ों का विश्लेषण कर पहली बार बताया कि सूर्य का व्यास बेहद धीमी गति से ही सही, मगर घट रहा है। चार शताब्दी पहले 17वींसदी के आरंभ में 1612 में गैलीलियो ने पहली बार बताया कि चमकते सूर्य के भीतर काले धब्बे हैं। चार शताब्दी बाद 21वींसदी के आरंभ में 30 मार्च 2001 को रेडियो दूरबीन के जरिये पृथ्वी से 12 गुना बड़ा 8.68 लाख मील व्यास का काला धब्बा सूर्य के भीतर देखा गया था। उस दिन सूर्य से निकलने वाली सौरज्वाला के कारण सैटेलाइट, रेडियो ट्रांसमिशन और स्वचालित बिजलीघर कुछ देर के लिए ठप हो गए थे।

पृथ्वी की तरह सूर्य भी धुरी पर घूमता और करता है परिक्रमा :

(07 जून 2004 को दैनिक जागरण, देहरादून के प्रथम पेज पर कृष्ण किसलय की रिपोर्ट)

रेडियो दूरबीन के आविष्कार होने और उपग्रहों (सैटेलाइट) के जरिये प्राप्त होने वाले आंकड़ों से सूर्य के बारे में काफी हद तक सटीक जानकारी हो चुकी है। 13.7 अरब साल पहले हुई बिंगबैंग (महाविस्फोट) की खगोलीय महाघटना के बाद उत्पन्न हुए ब्रह्म्ïाांड के भीतर सूर्य दूसरी-तीसरी पीढ़ी का तारा है। सूर्य का साम्राज्य अर्थात सौरमंडल इतने दूर में विस्तृत है कि करीब तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेेंड से चलने वाली इसकी रोशनी को एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने में 24 घंटे का समय लगता है। पृथ्वी की तरह सूर्य भी अपनी धुरी पर 27.3 दिन में एक बार घूमता है। जिस तरह पृथ्वी और सौरमंडल के ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं, उसी तरह सूर्य भी अपने से छोटे-बड़े दो अरब तारों के साथ अपनी आकाशगंगा (मिल्की-वे) के केेंद्र का चक्कर लगाता है। मिल्की-वे की एक परिक्रमा पूरी करने में सूर्य को 22.5 करोड़ वर्ष लगता है। पूरे सौरमंडल का 98 फीसदी द्रव्यमान (वजन) का सूर्य में होने के बावजूद वह अपने परिक्रमा पथ पर 218 किलोमीटर प्रति सेकेेंड की गति से आगे बढ़ता है। सूर्य के बाहरी हिस्से का तापमान 06 हजार डिग्री सेंटीग्रेड और केेंद्रीय हिस्से का तापमान दो करोड़ डिग्री सेंटीग्रेड है। सूर्य हर सेकेेंड 386 मेगा टन ऊर्जा उत्सर्जित करता है।

सूर्य है जीवनदाता, उसकी ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन :

(दैनिक जागरण, देहरादून के प्रथम पेज पर 01 अप्रैल 2004 को कृष्ण किसलय की रिपोर्ट)

सूर्य की ऊर्जा ही पृथ्वी के जीव-जगत का जीवन है। इसीलिए सूर्य हमारा जीवनदाता है। इसके बावजूद एक दिन ऐसा आएगा कि जीवनदाता सूर्य में मौजूद समूचा हाइड्रोजन जलकर खत्म हो जाएगा, उसकी चमक समाप्त हो जाएगी और वह मृत तारा बन जाएगा। हालांकि ऐसा अरबों साल बाद होगा और उससे बहुत पहले ही पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व खत्म हो जाएगा, क्योंकि सूर्य लाल दानव तारा बनकर उसे निगल चुका होगा। सूर्य आग और गैस का विशाल गोला है, जिसके भीतर हर सेकेेंड में 7000 लाख टन हाइड्रोजन जलकर 50 लाख टन ऊर्जा और 6900 टन हीलियम में बदल जाता है। सूर्य के द्रव्यमान में 70 फीसदी से अधिक हाइड्रोजन गैस है। सूर्य के एक वर्ग सेंटीमीटर से 06 हजार वाट की ऊर्जा बाहर निकलती है। सूर्य से निकली ऊर्जा (प्रकाश) को धरती तक पहुंचने में 8 मिनट 22 सेकेेंड का वक्त लगता है, जो विद्युत-चुंबकीय तरंग है। यदि सूर्य का प्रकाश अपनी पूरी तीव्रता में पृथ्वी पर पहुंचे तो एक हजार किलोमीटर बर्फ की चादर एक घंटे में पिघल जाए। पृथ्वी से उसके केेंद्र की करीब 15 करोड़ किलोमीटर की दूरी और पृथ्वी के सघन वायुमंडल, उसके चुंबकीय क्षेत्र के कारण सूर्य की ऊर्जा का 12वां भाग ही पृथ्वी पर पहुंचता है। धरती पर आने वाली सूर्य की ऊर्जा 1.94 कैलोरी प्रति वर्ग सेंटीमीटर होती है।

सोनघाटी वासी है दुनिया के प्रथम आदि सूर्यपूजक :

(बिहार के डेहरी-आन-सोन (रोहतास) में सोनमाटी-प्रेस गली से दिखता सूर्यग्रहण)

भारत की सभ्यता ने आकाश में दिखने वाले बड़े गेंद के आकार के अति तेजस्वी पिंड सूर्य के बारे में सबसे पहले सोचना शुरू किया था। वैदिक काल के ऋषियों को सूर्य की रोशनी में सात रंग होने का ज्ञान था, तभी वैदिक साहित्य में यह उल्लेख है कि सूर्य देवता जिस रथ पर सवार होकर निकलते हैं, उस रथ को सात घोड़े खींचते हैं। प्राचीन भारतीय सभ्यता के लोग इस रहस्यमय पिंड की पूजा करते थे। भारत की सोनघाटी (बिहार) दुनिया का प्रथम सूर्यपूजक संस्कृति स्थल है, जहां की लोकपर्व छठ-पूजा सर्वविदित है। भारतीय वैदिक सभ्यता की प्रथम छंदबद्ध ऋचा (गेय मंत्र) गायत्री सूर्य को समर्पित है- ऊं भूर्भव: स्व: तत् सवितुर्वरेण्यम् भर्गो: देवस्य धीमहि यो न: प्रयोदयात्। इसके स्रष्टा (रचनाकार) विश्वरथ (राम की पूर्ववर्ती पीढ़ी के विश्वामित्र) सोनघाटी अंचल से जुड़े गाधिपुर (गाजीपुर) के राजा गाधि के पुत्र और पड़ोसी अयोध्या के राजा सत्यव्रत (त्रिशंकु) के मित्र थे।

फिर भी हजारों सालों से जारी है अंधविश्वास :

(24 अक्टूबर 1983 को आकाशवाणी के पटना केेंद्र से प्रसारित अंतरिक्ष विज्ञान की प्रथम भोजपुरी रेडियो वार्ता का सोनमाटी में हिन्दी रूपांतर)

बहरहाल, भले ही हजारों साल पहले की तरह सूर्यपूजा के लिए नर बलि और पशु बलि नहीं दी जाए, तब भी सूरज का उदय हमेशा पूरब में और अस्त पश्चिम में होगा। इंद्रदेव की पूजा चाहे नहींकी जाए, तब भी वर्षा और अनावृष्टि होगी, बाढ़ आएगी। पवनदेव की अर्चना नहो, तब भी हवा चलेगी और तूफान आएगा। इसलिए आधुनिक समय-समाज में सूर्य, चंद्रमा, पवन, इंद्र आदि को देवता मानने की प्रथा आम नहीं रह गई है, क्योंकि ये प्रकृति के, सृष्टि के, खगोल के नियमों का पालन करते हैं। खगोल गणना पूर्णत: वैज्ञानिक और सार्वभौंिमक है। जबकि ज्योतिष गणना (फलित) का वैज्ञानिक आधार नहीं है। भारत में फलित ज्योतिष का प्रवेश मौर्य साम्राज्य में सम्राट चंद्रगुप्त के यूनानी राजकुमारी से विवाह के बाद भारतीय-यूनानी संस्कृतियों के सम्मिश्रण के दौर में सवा दो हजार पहले हुआ। हजारों सालों से बतौर अंधविश्वास यह जानकारी समाज में प्रचलित-प्रसरित रही है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण राहु-केतु नामक दैत्यों के ग्रस लेने से होता है। जबकि भारत के खगोल गणितज्ञ-दार्शनिक आर्यभट्ट ने डेढ़ हजार साल पहले बताया था कि सूर्य या चंद्र ग्रहण किसी राहु या केतु के ग्रस लेने से नहीं, बल्कि सूर्य-पृथ्वी के बीच में चंद्रमा के आने से सूर्यग्रहण और सूर्य-चंद्रमा के बीच में पृथ्वी के आने से चंद्रग्रहण होता है। यूनान की सभ्यता में भी प्रकाश का देवता माने जाने वाले अपोलो के बारे में यूनानी दार्शनक एंटागोरस ने साहस के साथ कहा था कि सूर्य आग का बड़ा चट्टान है। बावजूद इसके धर्म के आवेष्ट में अंधविश्वास की धारा बतौर कारोबार जारी है।

(सौरमंडल की खगोलीय घटनाओं पर तस्वीर संयोजन : निशांत राज, प्रबंध संपादक, सोनमाटीडाटकाम)

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