सवाल : क्या रोजी-रोटी से अलग अब अपने वजूद की भी सोचेंगे बिहार के युवा?

बिहारियों की मेहनत, हिम्मत, जीवटता का अंदाजा तो हजारों किलोमीटर दूर पत्थरों-जंगलों के बियावान में जाकर मारिशस, फिजी और सूरीनाम को गुलजार बनाने वाले लोगों के रूप में देखकर लगाया जा सकता है। तब फिर गणतंत्र और राजतंत्र, दोनों का देश-दुनिया में बेहतरीन उदाहरण पेश करने वाले और नए वस्तुनिष्ठ चिंतन संपन्न बौद्ध धर्म, जैन धर्म को जन्म देने वाले बिहार प्रदेश की दुर्गति क्यों? दरअसल, त्रासदी यह हुई कि औपनिवेशिक काल में विदेशी तकनीक आधारित कारखानों के दबाव में सदियों में तैयार-विकसित हुई स्वावलंबी कारीगरी दक्षता धीरे-धीरे बेरोजगार होती गई और सिर्फ आबादी महज निहत्थी फौज भर बन रह गई। जहां राष्ट्रीय स्तर पर एक वर्ग किलोमीटर जमीन पर 382 लोगों के लिए भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़ा का दबाव हैं, वहींबिहार में एक किलोमीटर जमीन पर 1100 से अधिक लोगों का दबाव है। जाहिर है कि अंग्रेजों के राज से पहले शताब्दियों तक जिस बिहार की ओर रोजगार-कारोबार के लिए देश-दुनिया का रुख होता रहा, वह अब बेरोजगार जनसंख्या का दबाव झेल रहा है। आज बिहारी की धरती इसकी 20 करोड़ की अबादी के बोझ को उठाने अर्थात इस आबादी की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहींहै। इसीलिए बिहार से युवाओं का पलायन जारी है, जो अपनी जवानी और ऊर्जा दूसरे राज्यों की सरजमींपर खपाकर निशक्त-निरुपाय बुढ़ापा वापस बिहार में ही लौटकर काटने के लिए लाचार हैं। बिहारी रोजी-रोटी की तलाश में देश भर में भटक रहा है? कई राज्यों में बिहारी शब्द ही मजदूर होने के अर्थ का पर्याय बन गया है। मजदूर के लिए बिहारी शब्द से संबोधित होने वालों को श्रम बहुल राज्यों में बड़ी हिकारत से देखा जाता है, जहां यह शब्द (बिहारी) अप-भाषा का उपकरण है। सामाजिक तौर पर एकजुट होकर स्वाधीनता का संग्राम लडऩे वाले बिहार के समाज का एक वर्ग आज घृणा तो दूसरा वर्ग प्रतिशोध की भावना के साथ जी रहा है। इसमें संदेह नहींकि यहां की सियासत ने अपने वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए इस सामाजिक प्रवृत्ति के विस्तार में आग को हवा देने का काम किया है। यही वजह है कि सरकारी महकमा ज्यादा कामचोर, ज्यादा भ्रष्ट बन गया है, जिसका बिहार के आम लोगों से रिश्ता औपनिवेशिक शोषकों जैसा ही है। और, एक सच यह भी है कि यह प्रवृत्ति आजादी के बाद सामाजिक न्याय की हिस्सेदारी के गलत अराजक इस्तेमाल के कारण ज्यादा बढ़ी है। -संपादक

(इनपुट व तस्वीर : निशांत राज)

 

आखिर बिहारी ऐसा कब तक झेलता रहेगा?

– अनिल सिन्हा

दो साल पहले सोशल मीडिया (फेसबुक वाल) पुणे स्टेशन पर टिकट लेने गया था। आगे और पीछे खड़े दोनों लोग बिहार के थे। टिकट घर के बाहर भी काफी लोग बिहार के ही मालूम हो रहे थे मैथिली, भोजपुरी, अंगिका और वज्जिका बोलियों बोलने वाले। चार साल पहले गोवा में रास्ता भटक गया था तो पान की दुकान चलाने वाले जिस दुकानदार ने रास्ता बताया था, वह बिहारी ही था। सालों पहले जयपुर गया था, तब रिक्शा चलाने वाले शख्स ने तुरंत पहचान लिया और मुंगेर से आए हैं। मेरे एक मराठी मित्र बताते थे कि फाउंड्री इंडस्ट्री में उच्च तापमान पर काम करने वाले सारे मजदूर बिहार के हैं क्योकि कोई दूसरा इस काम को नही कर सकता। मित्र के मुताबिक यही हाल देश वेस्टर्न कोल फिल्ड का है। खदान में उतना नीचे उतरने की हिम्मत किसी और में नहींहै। इसलिए सिर्फ बिहार के मजदूर मिलते हैं।
खुद सोचें बेरोजगारी दूर करने के उपाय
मुबई, दिल्ली, सूरत, बड़ौदा, भोपाल, झांसी, इटारसी हर स्टेशन पर यही नजारा देखने को मिलता है और यही लगता है कि पूरी दुनिया में बिहारी ही भटक रहा है। बिहार से सटे उत्तर प्रदेश के इलाकों का भी लगभग यही हाल है। मजदूरी करने वाले ज्यादातर बिहार से ही होते हैं। आखिर बिहारी कब तक ऐसा झेलता रहेगा? क्या कोई ऐसा उपाय नही है कि मुबई या ऐसी ही किसी और जगह में गाली खाकर (यानी बिहारी कहलाकर) पेट भरने के बदले वह अपने ही क्षेत्र में इज्जत से जिए। मुझे लगता है कि बिहार के युवाओं को बेरोजगारी दूर करने के उपाय खुद सोचने चाहिए। इस मामले में सरकार पर भरोसा करने का समय खत्म हो गया है। अपने घर में इज्जत के रोजगार के लिए खाका तैयार करना, समाधान के लिए सोशल मीडिया पर शेयर किया जाना चाहिए और इस मामले में संबंधित विद्वानों से सलाह ली जानी चाहिए।

– अनिल सिन्हा, वरिष्ठ पत्रकार

 

सुनियोजित तरीके से खत्म होता रहा है घृणा और प्रतिशोध की पाठशालाओं में विभाजित बिहार

-डा. अनिल कुमार सिंह

बिहार की स्थिति समझने के लिए दोपहर (एक डेढ़ बजे) नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म (संख्या 14) का नजारा काफी है। बहुत लोगों ने यह दृश्य नहीं देखा होगा। प्लेटफार्म के आगे-पीछे साइड सैकड़ों लोग लाइन में लगे होते हैं। भीड़ इतनी जबरदस्त कि उसे संभालने और किसी अप्रिय घटना को रोकने के लिए पुलिस कई जवान तैनात रहते हैं। यह भीड़ बिहार के उन गरीबों की होती है, जो बिहार संपर्क क्रांति एक्सप्रेस के सामान्य (जनरल) डिब्बे में चढऩे आये होते हैं। नई दिल्ली से 2.30 पर जो ट्रेन खुलती है, उसके जेनरल डिब्बे में चढऩे भर कि जगह मिल जाये, इसलिए ये लोग 10-11 बजे से ही लाइन लगाना आरम्भ कर देते हैं। इनका गंतव्य सीवान, छपरा, सोनपुर, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, दरभंगा होता है। पुलिस की मौजूदगी के बावजूद उस प्लेटफार्म के करीब मार-पीट, भगदड़, लाठीचार्ज नियमित सामान्य बात है।

जेनरल डब्बों में शौचालय से पायदान तक इंच भर नहीं होती जगह
जेनरल डिब्बे की क्षमता करीब 100 लोगों की होती है, पर हर डब्बे में कम से कम 250 लोग अवश्य होते हैं। एक बेंच (लंबी सीट) पर चार की जगह आठ लोग बैठते हैं। फिर भी नौवां आकर यही कहता है कि थोड़ा घुसकिये जी, आगे-पीछे होकर बैठिएगा तो थोड़ी जगह बन जाएगी। शौचालय से पायदान तक इंच-इंच जगह भरी रहती है। यदि कोई एक बार कोच के भीतर पहुंच गया तो फिर शौचालय जाने के जद्दोजहद में ही आधा-एक घंटा निकल जाता है। यह स्थिति बिहार जाने वाली सभी ट्रेनों के जेनरल कोच में होती है, चाहे वह वैशाली एक्सप्रेस हो, विक्रमशिला एक्सप्रेस हो, सम्पूर्ण क्रांति एक्सप्रेस हो, स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस हो, महाबोधि एक्सप्रेस हो या अन्य कोई। यही नहीं, मुंबई, इंदौर, जालंधर, सूरत, अहमदाबाद, बेंगलुरू, पुणे से जो ट्रेन बिहार जाती है, उनमें भी ऐसी ही स्थिति होती है।
सरकारी नौकरी के अलावा और कुछ नहीं
बिहार में नौकरी नहीं है। आप बिहार सरकार की नौकरी नहीं कर रहे तो बिहार में आपके लिए कुछ नहीं है। उद्योग का लगभग नामोनिशान नहीं है। मजदूर, मैकेनिक ही नहीं, अकाउंटेंट, मैनेजर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक के लिए भी बिहार में कुछ नहीं है। खेतिहर मजदूर पंजाब, हरियाणा जाकर वहां के बड़े किसानों के यहां मजदूरी करते हैं। दिल्ली में रिक्शा चलाने वाले, कंस्ट्रक्शन लेबर, छिट-पुट मजदूरी करने वाले वाले अधिकतर बिहार के होते हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब आदि राज्य भी बिहार वासी कामगारों से भरे हुए हैं।

जाति की आग में दशकों से जलाया गया

बिहार को सुनियोजित ढंग से खत्म होता रहा है। सामंतशाही-राजशाही के हजारों सालों में जातिवाद के खांचे में बंटे बिहार में राजतंत्र से मुक्ति और आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद जाति आग में दशकों से जलाया गया। गुंडागर्दी, रंगदारी को बेलगाम होने दिया गया। उद्योगों, नौकरियों पर क्रूरता से प्रहार किया गया। रोहतास इंडस्ट्रीज, पीपीसीएल, केसीएल, चीन मिल एक-एक कर बंद होते रहे और राजनेता या तो रोम की नीरो की तरह वंशी बजाते रहे या जनता को गुमराह कर जातीय मलहरा, विरहा का राग अलापते रहे। बिहार के समाज को समरस होने का प्रयास करने के बदले घृणा और प्रतिशोध की पाठशालाओं में विभाजित किया जाता रहा। जनसंख्या की बहुलत और संसाधनों के अभाव वाला बिहार उभर नहीं सका।
सामाजिक न्याय और समाजवाद के नाम पर होता रहा सियासी छल
सामजिक न्याय और समाजवाद के नाम पर गरीब लोगों को अपने-अपने सियासी तरीकों से संदेश दिया गया कि सड़क-बिजली का तुम्हारे लिए क्या काम? सड़क पर गाडिय़ां अमीरों की चलती हैं। बिजली से मौज-मस्ती अमीरों के घर में होता है। यूनियन, गुटबाजी में सारे उद्योगों बंद करा दिए गए। उद्योगपति, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षक, स्किल्ड लेबर सब एक-एक कर बिहार छोड़ते चले गए। गांवों से अनवरत पलायन जारी है। रोड, बिजली अवश्य आई, पर नीतीश कुमार के राज में भी उद्योग नहींखुले। इस मुद्दे पर वे या उनके मंत्रिमंडल का कोई सदस्य गंभीरता से बात नहींकरता। इसीलिए आज बिहार में सरकारी नौकरी ही यहां बने रहने का बड़ा चारा (वजह) है। हालांकि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती।

अपनी मिटटी से दूर सिर्फ जीवनयापन की तलाश में कब तक दर-दर भटकते फिरेंगे?
नौकरी का सबसे बड़ा स्रोत निजी क्षेत्र है। गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटका, तमिलनाडु में निजी क्षेत्र बेहतर स्थिति में है, इसलिए बिहार के लोग छोटी सी बड़ी नौकरी करने वहां जाते हैं। बिहार में ऐसी धारणा बना दी गयी कि उद्योगपति लूटेरे होते हैं और उद्योग लगाने का मतलब आर्थिक डाका है। बिहार के सरकारी अधिकारियों का रवैया उद्योग के प्रति ऐसा ही है। बिहार के समाज की विडम्बना है कि धक्के खाते हुए बाहर के राज्यों में नौकरी करने जाएंगे, मगर अपने बिहार में उद्योग के लिए आवाज नहींउठाएंगे। जब तक बिहार नहीं उठेगा, यह देश नहीं उठ सकता। बहुत बड़ी आबादी बिहार में रहती है। सवाल है कि कब तक बिहार के लोग अपनी मिटटी से दूर सिर्फ जीवनयापन की तलाश में दर-दर भटकते फिरेंगे? शायद उत्तर यह हो सकता है कि छद्म सामाजिक न्याय और समाजवाद के नाम पर जातिवादी संगठित सियासत के जहर को पनपने नहींदिया जाए। मध्यम वर्ग, निम्न-मध्यम वर्ग और गरीब तबका ही पिसता रहा है। जो बिहार में अमीर हैं, उनकी जिंदगी में शायद ही दिक्कत आती है।

-डा. अनिल कुमार सिंह, असिस्टेंट प्रोफेसर,
लोक प्रशासन विभाग, राधा शांता महाविद्यालय, तिलौथू (रोहतास) 09431897247

 

इलियास हुसैन के वे लुभावने वादे, समस्याएं जस की तस

 डेहरी-आन-सोन (रोहतास)-सोनमाटी समाचार। डेहरी के विधायक मोहम्मद इलियास हुसैन ने 2015 का चुनाव विकास किया है, विकास करेंगे का नारा देकर जीता था। उनके वादों में डालमियानगर में प्रस्तावित रेल कारखाना को खुलवाने में प्रभावकारी सक्रिय भूमिका का निर्वाह करेंगे, फुटपाथी दुकानदारों को स्थायी रूप से बसाने के इंतजाम के लिए लड़ेंगे, इंजीनियरिंग कॉलेज खुलवाएंगे, कोलडिपो को उद्योग का दर्जा दिलाएंगे, उच्च कोटि की लाइब्रेरी बनाएंगे, एनीकट को पर्यटक स्थल बनाएंगे, किसानों के भलाई के लिये कार्य करेंगे जैसी बातें शामिल थीं। इन चुनावी घोषणाओं को अख़बार के पन्नों पर विज्ञापन देकर प्रसारित किया गया था।
चैंबर ऑफ कॉमर्स के डेहरी-आन-सोन के अध्यक्ष सचिदानंद प्रसाद का कहना है कि 10 सालों से राजनीतिक एजेंडे में हाशिए पर रहे डेहरी के लोगों ने उनका समर्थन किया था। आज तीन साल का समय गुजरने को है, इलियास हुसैन का कोई वादा पूरा नहीं हुआ है।

(वेब रिपोर्ट : डा. अनिल कुमार सिंह)

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