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(इतिहास/कृष्ण किसलय) : अंग्रेजी राज के प्रथम विद्रोही राजा नारायण सिंह/ आठ सदी पूर्व बटाने के तट पर पहुंचे थे पृथ्वीराज चौहान के वंशज

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अंग्रेजी राज के प्रथम विद्रोही राजा नारायण सिंह
-कृष्ण किसलय (समूह संपादक, सोनमाटी)

इस खोजपूर्ण आलेख का प्रकाशन भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की अग्रणी प्रकाशक संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया की साहित्य-संस्कृति की द्विमासिक पत्रिका पुस्तक संस्कृति (प्रधान संपादक प्रो. गोविंद प्रसाद शर्मा, संपादक पंकज चतुर्वेदी) ने इतिहास स्तंभ के अंतर्गत नवम्बर-दिसम्बर 2020 के अंक में लेखक के सचित्र परिचय के साथ किया है। इसके खोजकर्ता लेखक (कृष्ण किसलय) विज्ञान के इतिहास की चर्चित पुस्तक सुनो मैं समय हूं के रचनाकार, भारत की सोन-घाटी की सभ्यता-संस्कृति के अध्येता-अन्वेषक और सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार के सचिव हैं। यह इतिहास आलेख साभार प्रस्तुत है -प्रबंध संपादक, सोनमाटी
(तस्वीर : उपेन्द्र कश्यप/निशान्त राज)

(राजा नारायण सिंह)

आम ऐतिहासिक धारणा यही है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का आरंभ वर्ष 1857 में मेरठ की बैरकपुर छावनी (उत्तर प्रदेश) में मंगल पांडेय की अगुवाई में हुए सिपाही विद्रोह से हुआ, जिसका ही सशस्त्र संगठित विस्तार बिहार के जमींदार कुंवर सिंह और उनके भाई अमर सिंह ने किया। मगर दस्तावेजों और पुरातत्वों के तल से निकलकर अनावृत हुआ नए ऐतिहासिक तथ्य यह बता रहे हैं कि 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी की अंग्रेजी फौज द्वारा बंगाल के नवाब को हराकर फिरंगी राज की नींव डालने और युद्ध जीतकर 1765 में बंगाल प्रांत (पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और बांग्लादेश) की दीवानी भी मुगल बादशाह से हासिल कर लेने के बाद तुरंत ही फिरंगियों के विरुद्ध विद्रोह के स्वर उठने लगे थे। सबसे पहले बिहार की सिरिस-कुटुम्बा रियासत के राजा नारायण सिंह ने बगावत की आवाज बुलन्द की थी और उन्होंने सशस्त्र संघर्ष का ऐलान कर सोन नदी में अंग्रेजी फौज की जल समाधि दे दी थी। सिरिस-कुटुम्बा रियासत बिहार में अविभाजित भारत की 622 रियासतों में एक थी, जिसकी अपनी सरकार, सेना, खजाना, जमीन और रियाया (आबादी) थी। इस रियासत के राजा नारायण सिंह ने आजीवन अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं की और वह महाराणा प्रताप की तरह जंगल में रहकर अंग्रेजी फौज के साथ गुरिल्ला युद्ध लड़ते रहे। उन्हें फिरंगी राज को महसूल (लगान) देना मंजूर नहीं था। देशी रियासतों के अपने-अपने इलाके में बंटे होने, सियासत से जनता के अलग-थलग रहने और राष्ट्रीयता के अभाव में राजा नारायण सिंह का विद्रोह उनके जीवन काल में परवान नहीं चढ़ सका। फिर भी उनकी बगावत का ऐतिहासिक महत्व यह है कि उनका ही संघर्ष आगे विस्तार पाकर 1857 के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का प्रेरणा-स्रोत बना।

राजा के वंशधरों की अग्रेजी राज ने जब्त की थी संपत्ति :

राजा के विद्रोह के पीछे भले ही व्यापक राजनीतिक दृष्टि और भविष्य की कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं थी, मगर शोषक विदेशी हुकूमत के प्रति कूट-कूट कर भरी घृणा के गर्भ से ही स्वतंत्रता के संगठित संघर्ष का जन्म हुआ। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. कालीकिंकर दत्त ने अपनी पुस्तक (कुंवर सिंह, अमर सिंह) में कई सालों का अनुभव रखने वाले एक अंग्रेज सैन्य अफसर के पत्र के हवाले से बताया है कि बनारस (उत्तर प्रदेश) के महाराजा चेत सिंह का विद्रोह पड़ोसी प्रांत (बिहार) के विद्रोह की प्रतिक्रिया थी। इससे भी पता चलता है कि मेरठ, झांसी, कानपुर, जगदीशपुर और बिरसा-मुंडा के विद्रोह से पहले की सदी में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की विकट चिंगारी बिहार में ही भड़की थी। बिहार के पटना, गया, मुंगेर, औरंगाबाद, रोहतास, झारखंड के पलामू, चतरा और उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिलों में मौजूद पुराने दस्तावेज और जानकारी इस बात के प्रमाण हैं कि खून के आपसी रिश्तों में जुड़े सिरिस-कुटुम्बा, माली, शेरघाटी, जगदीशपुर, बनारस आदि रियासतों के जमींदारों द्वारा अंग्रेजी राज के बहिष्कार-विरोध की निरंतर दुर्घर्ष प्रवृत्ति ही सन सत्तावन के उत्कट विद्रोह के रूप में विकसित-परिणत हुई। फिर बिहार में जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह के नेतृत्व में संगठित विद्रोह खड़ा हुआ और बिहार-यूपी में व्यापक युद्ध हुआ। राजा नारायण सिंह की पत्नी गुलाब कुंवर भोजपुर जिला की थीं और कुंवर सिंह के पुरखों के परिवार से थीं। शेरघाटी के उप समाहर्ता एच. डेविड की अनुशंसा पर पटना के आयुक्त स्टार्टन ने कुंवर सिंह को सहयोग देने के आरोप में 11 मालदारों (भूस्वामियों) माली के भानुप्रताप सिंह, दर्शन सिंह, बरहड़ा के बालगोविन्द सिंह, उरनाडीह के जग्गू सिंह, मुनौरा के जगदम्बा सहेरी मुठानी के लालबहादुर सिंह, मिर्जापुर के महाबल सिंह, घोटा के शेख चौकोरी मुहौली के पिताम्बर सिंह, अयोध्या सिंह सिमरा के जगन्नाथ सिंह की संपत्ति जब्त करने का आदेश दिया था। इनमें से कई राजा नारायण सिंह के वंशधर थे।

2800 गांव थे सिरिस-कुटुम्बा रियासत में :

राजा नारायण सिंह के छोटे भाई जयनाथ सिंह कवि थे, जिनकी कविताएं उस समय की फारसी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं। उन्होंने राजा नारायण सिंह की प्रतिष्ठा, प्रशंसा और यशोगान में अनेक दोहे लिखे थे। उनकी एक कविता का अंश इस प्रकार है-
इत अंछा उत चिरकावां, सिरिस, कुटुम्बा, पंचवन, गोह।
अष्टविंशा ग्राम शत, राज करत नृप सोह।।
इत अंछा, उत पलमुआ, इत चिरकावां उत रोहतास।
नारायण सो करण की, सबही भये हतास।।

पवईगढ़ रियासत में छह परगने गया जिला के चिरकांवा, गोह, औरंगाबाद जिला के सिरिस, कुटुम्बा, अंछा और रोहतास जिला के सोन नद के पश्चिम तट के पंचवन क्षेत्र मकराईं (डेहरी-आन-सोन), तिलौथू, तुम्बा (तेलकप, अमझोर), बनजारी (अकबरपुर), बौलिया (दारानगर) थे। 2800 गांव वाले सिरिसा-कुटुम्बा रियासत का प्रशासनिक गढ़ (कचहरी) औरंगाबाद शहर के मौजूदा शाहपुर मुहल्ला में यादव कालेज के निकट शाहपुर में और आवासीय गढ़ औरंगाबाद शहर से आठ किलोमीटर दूर बटाने नदी के किनारे पवई गांव में था।

शुरू की रियासतों को ठेका पर देने की नई प्रथा :

12 जून 1757 को पलासी (कोलकाता-मुर्शिदाबाद के बीच) के युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर राबर्ट क्लाइब ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर भारत में अंग्रेजी राज की नींव रखी थी। इसके बाद 1764 में 23 अक्टूबर को बिहार के बक्सर जिले के चौसा के मैदान में दिल्ली के मुगल बादशाह शाह आलम, अवध के नवाब, दिल्ली सल्तनत के वजीर शुजाउद्दौला, रामनगर (बनारस) के राजा चेत सिंह और बंगाल के नवाब मीर कासिम की सेना ने संयुक्त रूप से युद्ध किया था। इस युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज की जीत हुई थी। ईस्ट इंडिया कंपनी की तिजोरी का दिवाला फ्रांसिसियों, डचों, मराठाओं और फिर हैदरी अली के साथ हुए युद्ध में निकल चुका था। कंपनी के बोर्ड आफ डायरेक्टर ने 20 अक्टूबर 1773 को बंगाल (बिहार, झारखंड, उड़ीसा) का प्रथम गवर्नर जनरल अपने सेनानायक वारेन हास्टिंग्स को बनाया, जिसने लगान वसूलने की पंचवर्षीय व्यवस्था का सूत्रपात किया। वारेन हेस्टिंग्स ने रियासतों को नीलामी के जरिये ठेका पर देकर वार्षिक किराया (लगान वसूली) का तरीका अख्तियार किया।
तब राजा ने ली फूटी कौड़ी भी नहीं देने की प्रतिज्ञा : उस समय सिरिस-कुटुम्बा रियासत की गद्दी (पवईगढ़) पर किशोर वय राजा नारायण सिंह का राज्याभिषेक हुआ था। तरुणाई उम्र में राजा बने नारायण सिंह ने नीलामी की ऊंची बोली बोलकर अपनी जमींदारी बचाई थी। बंगाल में 1769-73 का वह दौर लगातार अकाल का था। अकाल की भुखमरी के कारण लाखों लोग मौत के मुंह में समा चुके थे। राजा ने कंपनी सरकार से मालगुजारी माफ करने और राहत कार्य कराने की अपील की। कंपनी सरकार के रेवेन्यू कलक्टर ने ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड आफ डायरेक्टर से अपनी यह अनुशंसा की थी कि सिरिस-कुटुम्बा रियासत की हालत मालगुजारी वसूल करने लायक नहीं है, घास के अलावा कोई फसल नहीं हुई है। कलक्टर के पास कंपनी सरकार का फरमान आया कि घास अच्छी चीज है, उसे बिकवा कर मालगुजारी वसूल कीजिए। तभी से राजा नारायण सिंह विद्रोही बन बैठे। सिरिस-कुटुम्बा पहली रियासत थी, जिसने अंग्रेजों के पैशाचिक लगान वसूली प्रक्रिया का मुखर विरोध किया और सशस्त्र संघर्ष भी। राजा के मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत की बीज ऐसी पड़ी कि उन्होंने अंग्रेजों को फूटी कौड़ी भी नहीं देने की प्रतिज्ञा कर ली।

सोन में दे दी सैनिक और जंगी साजोसमान की जलसमाधि :

1781 के अगस्त महीने में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स रामनगर (बनारस), उत्तर प्रदेश के महाराजा चेत सिंह से टैक्स और जुर्माना वसूल करने कोलकाता से रवाना हुआ। उसने चतरा (झारखंड) स्थित फौजी छावनी के मेजर जेम्स क्राफोर्ड को पलटन लेकर बनारस पहुंचने का निर्देश दिया। जेम्स क्राफोर्ड ने अपनी पलटन के अग्रिम दस्ते को आगे रवाना कर दिया और खुद फौज के हिरावल (लड़ाकू) दस्ते के साथ पीछे-पीछे चला। बनारस जाने वाली सड़क (आज का ग्रैंडट्रंक रोड) के बीच स्थित तीन किलोमीटर चौड़ी पाट वाले सोन नद (एक तट पर बारून, दूसरे तट पर डेहरी-आन-सोन) को युद्ध के साजोसमान के साथ पार कराने के लिए नावों की व्यवस्था करने का आदेश मेजर क्राफोर्ड ने सिरिस-कुटुम्बा रियासत को भेजा। राजा नारायण सिंह ने गुप्त योजना बनाई और मल्लाहों द्वारा 05 मार्च 1982 के दिन अंग्रेजी पलटन के साजोसमान और सिपाहियों से भरी नावों को पानी से लबालब किसी सागर जैसे दिखने वाले सोन नद के पानी की बीच धारा में डुबवा दिया। तब तक मेजर जेम्स काफोर्ड हिरावल दस्ते के साथ शेरघाटी (गया जिला) तक पहुंच चुका था। घटना की जानकारी पाकर उसने रास्ता बदल दिया और रामनगर जाने के लिए बिहार के सीमांत कैमूर पहाड़ी पर स्थित रोहतास किला के निकट की तलहटी में बसे अकबरपुर के निकट सोन नदी पार कर तिलौथू होकर बूढऩ पहाड़ी का रास्ता अपनाया।
नेस्तानाबूत किया प्रशासनिक और आवासीय दुर्ग : राजा नारायण सिंह ने कैमूर पहाड़ की तलहटी में सोन में मिलने वाली दो बरसाती नदियों औसाने और तुतही के बीच बौलिया जंगल, तिलौथू-तेलकप के जंगल में पनाह लिया। कंपनी सरकार को राजा पर नजर रखने के लिए गया-औरंगाबाद जिले की सीमा पर शेरघाटी में स्थाई फौजी छावनी बनानी पड़ी थी और देहरी घाट में सेना का पड़ाव-स्थल बनाना पड़ा था। देहरी घाट आज सोन तट का सबसे बड़ा शहर डेहरी-आन-सोन है और अंग्रेजी सेना का पड़ाव स्थल इस शहर का मौजूदा पड़ाव मैदान है। ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार की प्रोविन्सियल रेवेन्यू कमेटी ने राजा नारायण सिंह की गिरफ्तारी का और रियासत की जमींदारी जब्त करने का आदेश दिया। कर्नल बार्कर फौज के साथ शाहपुर गढ़ (औरंगाबाद) पहुंचा। उसने सिरिस-कुटुम्बा रियासत के शाहपुर स्थित प्रशासनिक दुर्ग और फिर रियासत के पवई गांव स्थित आवासीय दुर्ग की फौजी छावनी को नष्ट कर दिया।

बंगाल के नवाब के बेटा को दिया मालगुजारी वसूलने का ठेका :

राजा द्वारा मालगुजारी भुगतान नहीं करने पर सिरिस-कुटुम्बा रियासत से लगान वसूलने के लिए कंपनी सरकार ने सजावल की नियुक्ति की। 20 अप्रैल 1781 को रेवेन्यू अफसर मैक्सवेल द्वारा पटना रेवेन्यू कमेटी को लिखे पत्र से जानकारी मिलती है कि सिरिस-कुटुम्बा रियासत पर 37651 रुपये बकाए थे। सजावल कुली खान रैयतों से माल (टैक्स) वसूल करने में सक्षम नहीं हुए। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1783 में बंगाल के नवाब अशरफ अली खां के बेटा बाबर अली खां को पवई रियासत से मालगुजारी वसूलने का ठेका डेढ़ लाख रुपये में दे दिया। बाबर अली खां भी पवई़ रियासत से माल वसूल करने में सफल नहीं हुए। राजा की जमींदारी छिन जाने के बाद सिरिस-कुटुम्बा रियासत के रैयतों (छोटी जोत के किसानों) ने भी अंग्रेजी सरकार को मालगुजारी नहीं दी। उस जमाने में मालगुजारी नहीं देना प्रजा (रैयतों) की अंग्रेजी राज के प्रति बहुत जबर्दस्त प्रतिक्रिया थी। तब वह जमाना था, जब रियासतों की लड़ाई में रैयतों की कोई सहभागिता नहीं होती थी और राजा को युद्ध की कमान खुद ही संभालनी पड़ती थी।

गुरिल्ला युद्ध करते थे लड़ाकू दस्ते, दो टूक कहा था बिहार (रियासत) को बख्श दें अंग्रेज :

पंचवन की गुफा में शरण ले रखे राजा नारायण सिंह ने बनारस के राजा चेत सिंह के श्वसुर पिताम्बर सिंह (टेकारी, गया), चेत सिंह के फौजदार बेचू सिंह और सासाराम परगना के आमिल (वित्त प्रमुख) कुली खां की मदद से तीन-चार सौ लड़ाकुओं को संगठित किया। ये लड़ाकू मौका देख अंग्रेजी फौज पर गुरिल्ला हमला करते थे। जब राजा नारायण सिंह ने रोहतास में कैमूर पर्वत भैरवां पहाड़ी के पास अंग्रेजी फौज को आगे बढऩे से रोक दिया और भयंकर मार-काट की थी। अंग्रेजों को यह अहसास हो गया कि राजा नारायण सिंह के स्वतंत्र रहते कंपनी सेना और प्रशासन चैन की नींद नहीं सो सकते। शेरघाटी के उप समाहर्ता चार्टर्स ने गवर्नर जनरल को यह रिपोर्ट भेजी कि राजा नारायण सिंह शांति भंग कर सकता है। अंग्रेजों ने राजा को छल से गिरफ्तार करने की रणनीति बनाई। उन्हें पटना में गवर्नर से समझौता-वार्ता के बहाने बुलाया गया। जंगल में डोली (पालकी) और घुड़सवार भेजकर राज-सम्मान देने का नाटक किया गया। मई 1783 को मेजर जेम्स क्राफोर्ड ने रेवेन्यू कमेटी से वार्ता के लिए उनके दो विश्वासपात्र कारिन्दों, 20 बेगारों और पांच घुड़सवारों के साथ डोली भेजी। राजा ने अपने भाइयों-पट्टीदारों से मंत्रणा करने के बाद पटना जाना तय किया। पटना में उन्हें महाराजा की उपाधि देने का लोभ भी दिया गया। मगर राजा की धमनियों में तो मुस्लिम शासकों से सदियों से टक्कर लेते आए पृथ्वीराज चौहान के वंशजों का रक्त बह रहा था। उन्होंने फिरंगियों से दो-टूक शब्दों में कहा, अंग्रेज बिहार (रियासत) को बख्श दें।

चला राजद्रोह का मुकदमा, ढाका जेल में काटी कालापानी की सजा :

अंग्रेजों ने राजा को गिरफ्तार कर लिया। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। 05 मार्च 1786 को उन्हें कालापानी की सजा सुनाई गई और राजबंदी के रूप में ढाका (बांग्लादेश) के बेगम हवेली जेल भेज दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी की रेवेन्यू कमेटी के प्रमुख डब्ल्यू ब्रूक द्वारा दानापुर छावनी (पटना) के कमांडिंग अफसर मेजर एलेक्जेंडर हार्डी को लिखे गए पत्र से पता चलता है कि राजा के साथ निजी गार्ड के रूप में गणेशी हरवाहा को भी ढाका जेल में रखा गया। राजा 1792 में जेल से रिहा किए गए। अंग्रेजों को सिरिस-कुटुम्बा रियासत की जमींदारी राजा नारायण सिंह को ही 16 हजार 45 रुपये के वार्षिक लगान पर सौंपनी पड़ी। जेल की यातनापूर्ण स्थिति में रहने के कारण दो साल बाद ही कार्तिक माह (नवम्बर) में 1794 में राजा की मौत हो गई। राजा की मौत के बाद सिरिस-कुटुम्बा रियासत की जमींंदारी का ठेका कोलकाता के श्यामबिहारी मित्र को सौंप दी गई, जिनके नाम पर कोलकाता में आज भी शाम (श्याम) बाजार है।
न किला की सुरक्षा हुई न इतिहास लिखा गया : न तो राजा नारायण सिंह के किला की सुरक्षा हुई और न ही उनकी प्रामाणिक जीवनी लिखी गई। पवईगढ़ की न तो आजादी के बाद की सरकारों ने, शासन-प्रशासन ने, न ही राजा नारायण सिंह के वंशजों ने और न ही समाज ने सुरक्षा की। खंडहर बन चुका किला जमींदोज हो चुका है। उसकी दरोदीवारें और नींव की आखिरी ईंटें भी नेस्तनाबूद होने के कगार पर है। गांव के लोग तो किला की नींव से सटी जमीन काटकर वहां से मिट्टी ले जाते रहे हैं। मिट्टी कटने से बने गड्ढे में किले की दीवार की नींव में सैकड़ों, हजारों सालों के परत-दर-परत जमा हुए प्राचीन बर्तनों के कटे-टूटे टुकड़े कभी सोन-घाटी के गौरव रहे पवईगढ़ की प्राचीन कहानी पर आंसू बहा रहे हैं। पवई का सदियों पुराना तालाब भर चुका है। तालाब निर्माण के वक्त बना प्राचीन मंदिर भी नष्ट हो चुका है और बीती सदी तक धूल-धुसरित टोपी की तरह पड़ा उसका गुम्बज जमीन में समा चुका है। बटाने नदी के किनारे विराने में लावारिस रहकर श्रद्धा के दो फूल से मोहताज रहा महज दो गज जमीन पर बना राजा का समाधि-स्थल भी जमींदोज हो चुका है।

आठ सदी पूर्व बटाने के तट पर पहुंचे थे पृथ्वीराज चौहान के वंशज

(पवईगढ़ पहाड़ी की तलहटी में पड़े प्राचीन पुरा अवशेष)

भारत की गंगा-घाटी से भी पहले सिंधु घाटी की तरह मानवीय गतिविधियों से गुलजार रही सोन-घाटी में पवईगढ़ अनार्य और आर्य संस्कृतियों के संघर्ष-मिलन के अंतिम स्थलों में से एक रहा है। यहां का ज्ञात इतिहास राजा नारायण सिंह से साढ़े पांच सौ साल पीछे जाता है। पवईगढ़ राजवंश की स्थापना 13वीं सदी में पृथ्वीराज चौहान के काका कान्हदेव के वंशज दो राजपूत भाइयों रायभान सिंह और हरभान सिंह ने की थी, जो मुस्लिम हमलावरोंं के दबाव से पलायन कर संवत 1305 (1249 ईस्वी) में सोन-घाटी के विस्तृत मैदानी क्षेत्र के वनाच्छादित कीकट देश (बिहार-झारखंड) में चले आए थे। यहां उन्होंने शिवपूजक चेर-खरवार (कोल-मुंडा कुल) के आदिवासी राजा को मारकर क्षत्रिय राजवंश की नींव डाली और सत्ता का केेंद्र पवईगढ़ में रखकर अपनी राज-सीमा का विस्तार किया। बड़े भाई रायभान सिंह पवई गांव में रहे और छोटे भाई हरभान सिंह कर्मा गांव चले गए। इनके बाद पवईगढ़ राजवंश में विष्णु सिंह प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने आदिवासी सरदार से पलामू (झारखंड) के घिरसिंडी क्षेत्र और परमार वंश के जमींदार के बिहार के सीमावर्ती नवीनगर क्षेत्र को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। विष्णु सिंह के समय पवईगढ़ के अधीन रामनगर बाजार (मौजूदा टंडवा गांव) से सवा सेर सोने की कीमत के बराबर राजस्व प्राप्त होता था। इनके ही राज-क्षेत्र में औरंगाबाद जिला के बारून प्रखंड में पुनपुन नदी के तट के रिऊर गढ़ को आदिवासियों से हथियाया गया था। जहां यह पूरा गांव ही आज उस प्राचीन आदिवासी गढ़ पर बसा हुआ है और जहां पवईगढ़ के रिश्तेदारों को बसाया गया था।

अंग्रेज कलक्टर के समय के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर से भी पता चलता है इतिहास :

अंग्रेज कलक्टर एलएसएस ओमल्ले (संपूर्ण बंगाल के कृषि निदेशक) के समय के गया डिस्ट्रिक्ट गजेटियर से पता चलता है कि रायभान सिंह के वंशज राजा विष्णु सिंह निसंतान थे। किंवदन्ति है कि राजा विष्णु सिंह की रानी पुष्पावती ने कुल की दूसरी शाख के नवजात शिशु को गोद ले रखा था, जिसका नाम था पृथ्वीपति। 1764 में विष्णु सिंह की मृत्यु के बाद पृथ्वीपति के राजतिलक की पूर्व-तैयारी निकटवर्ती मालीगढ़ के चित्रसारी किले में चल रही थी। पवईगढ़ और मालीगढ़ का रिश्ता उन दिनों भीतरी शत्रुता का था और दोनों वंशधरों के बीच षड्यंत्र होता रहता था। पवईगढ़ की शीर्ष सत्ता से जुड़े लोगों को पृथ्वीपति का राज्याभिषेक स्वीकार नहीं था। पूर्व योजना के तहत पवईगढ़ के दो राजभक्तों खुशहाल सिंह (तेन्दुआ, नवीनगर) और रहम सिंह (रहमबिगहा, कुटुम्बा) के नेतृत्व में चित्रसारी किले में पृथ्वीपति को तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया। पृथ्वीपति के ताजा रक्त से तिलक लगाकर चित्रसारी किले के बाहर बबूल के पेड़ के नीचे पवईगढ़ के किशोर राजकुमार नारायण सिंह का राज्याभिषेक किया गया, जो विष्णु सिंह के छोटे भाई जयनाथ सिंह के पोते थे। इस तरह खूरेंजी जद्दोजहद के बीच राजा बने नारायण सिंह मालगुजारी देने की असमर्थता के कारण सत्ताच्युत नहीं होना चाहते थे।

ढाई दशक पूर्व हुई पहल, मगर उपेक्षित ही रहा पवईगढ़ :

राजा नारायण सिंह के छोटे भाई जयनाथ सिंह के वंश में अंतिम जमींदार (1953 तक) वीरकेश्वरनारायण सिंह थे। इस वंश की 10वीं पीढ़ी के वरिष्ठ सदस्य स्वर्गीय ब्रजेश्वरनारायण सिंह (मुखिया) ने लेखक (कृष्ण किसलय) को बताया था कि उनके पिता वीरकेश्वरनारायण सिंह ने आयुक्त बनने का अंग्रेजी सरकार का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। स्वर्गीय ब्रजेश्वरनारायण सिंह के अनुसार, उनके पिता से बिहार सरकार के भूतपूर्व मंत्री अनुग्रहनारायण सिंह और भूतपूर्व मुख्यमंत्री सत्येन्द्रनारायण सिंह जैसी बिहार की दिग्गज राजनीतिक हस्तियां मशवरा करती थीं। राजा नारायण सिंह के वंश की 11वीं पीढ़ी के सदस्य नृपेश्वरनारायण सिंह औरंगाबाद जिला कोर्ट में अधिवक्ता हैं। इनका मानना है कि देश की आजादी के बाद जिला और राज्य के राजनेताओं ने राजा नारायण सिंह के प्रति चुप्पी साध ली, क्योंकि राजा की प्रतिष्ठा के कारण पवई जनमानस का तीर्थस्थल बन जाता तो अन्यों का महत्व कम हो जाता। वह बताते हैं, ढाई दशक पूर्व सोनमाटी, आर्यावर्त, नवभारत टाइम्स और सत्यकथा में रिपोर्ट/कहानी (संवाददाता/लेखक कृष्ण किसलय) प्रकाशित होने के बाद सांसद-साहित्यकार स्वर्गीय शंकरदयाल सिंह ने एक पहल जरूर की थी और जिला प्रशासन के स्तर पर भी पहल हुई थी, मगर पवईगढ़ उपेक्षित ही बना रह गया।

फारसी ग्रंथ शिर-उल-मुतखरीन में है राजा का जिक्र :

(ब्रजेश्वरनारायण सिंह)

प्रसिद्ध इतिहासकार डा. कालीकिंकर दत्त ने लिखा है, उज्जैन राजपूतों के बिहार आगमन का इतिहास आख्यानों-दंतकथाओं में इस तरह घुला-मिला हुआ है कि उसे अलग नहीं किया जा सकता और उस समय का सही विवरण भी अब उपलब्ध नहीं है। हालांकि स्वर्गीय ब्रजेश्वरनारायण सिंह ने इस लेखक (कृष्ण किसलय) को बताया था कि फारसी में इतिहास की किताब की शिर-उल-मुतखरीन में राजा नारायण सिंह का जिक्र है। अब यह जानकारी हासिल हुई है कि फारसी के इस ऐतिहासिक ग्रंथ को लिखने वाले सैयद गुलाम हुसैन खान जपला (झारखंड) के जागीरदार थे। यह फारसी ग्रंथ मुगल वंश का अंतिम प्रमाणिक इतिहास है। मुगलों का इतिहास लिखने की वजह से भी गुलाम हुसैन खान को सिरिस-कुटुम्बा रियासत के जपला (हुसैनाबाद) परगना की जागीरदारी मुगल बादशाह फर्खशियार ने दी थी। गुलाम हुसैन खान के पिता हाजी हिदायत अली खां ने पटना सिटी की हाजीगंज मस्जिद बनवाई थी। हिदायत अली खां पैंगम्बर मोहम्मद साहब के नाती के वंशधर थे, जो अरब से मुगल सल्तनत के दिल्ली दरबार में आए थे और उन्हें अजीमाबाद का नायब सूबेदार (लेफ्टिनेंट गर्वनर) बनाया गया था। सेवानिवृत्त होने के बाद हिदायत अली खां सिरिस-कुटुम्बा रियासत के बाशिंदा बन गए।

(कृष्ण किसलय भारत के विश्वविश्रुत सोन नद अंचल के स्थानीय इतिहास पर आधिकारिक कार्य करने वाले इंडियन साइंस राइटर्स एसोसिएशन द्वारा प्रोफेशनल साइंस जर्नलिज्म एवार्ड और अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित लेखक हैं। कृष्ण किसलय ने पवईगढ़ की तीसरी यात्रा वर्ष 2000 में की थी, तब सोनघाटी पुरातत्व परिषद के संयुक्त सचिव अवधेश कुमार सिंह और वैश्य समाज के वरिष्ठ नेता नंदलाल गुप्ता भी साथ थे। -प्रबंध संपादक, सोनमाटी)

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