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इतिहासदेशसोनमाटी एक्सक्लूसिव

…और खत्म हो गया मकरंद, बस यादें रह गईं उस आदिम बूढ़े की!

  comments on this newsreport in website Archeological Survey of India. by SMITA SHAH SETTY (Working in the feild of Molecular biology and genetic counselling for the past decade) :

Many different types of samples have been collected from some of these fast disappearing tribes from these remote places as well as from Andaman and Nicobar islands for DNA studies. Most of these samples are in the possession of foreign laboratories who have analyzed them but the results are not completely shared with us. It is an unfortunate situation. We have many DNA experts who are capable of doing extensive studies but it is not done. The reason being lack of government interest and the bureaucracy. It is one of the biggest loss of our heritage, history and culture. The results released by the Western laboratories are incomplete and twisted to suit the Western theories of Human evolution and migration. Time to recollect and safely preserve the samples from these precious heritage of ours so that in future we can analyse and prove our place in Human evolution and migration.

  • वाट्सएप पर एक प्रतिक्रिया कौशलेन्द्र प्रपन्न, वरिष्ठ लेखक-पत्रकार (नई दिल्ली) :–– बेहद सारगर्मित शोधपरक रिपोर्ट। निश्चित ही इस स्टोरी पर काम करने, खोज-बीन करने में आप और आपकी टीम को काफी मशक्कत करनी पड़ी होगी। सोनमाटी के मंच पर ऐसी चीजें आती रहें, यही कामना है।
  • google पर एक प्रतिक्रिया डेहरी-आन-सोन (बिहार) के वरिष्ठ पत्रकार SURENDRA TIWARY :– मकरकंद पर मुझे भी समाचार पत्र में लिखने का मौका मिला था।तब यह स्वस्थ वृक्ष था। अर्जुन बिगहा ढिबर पर बहुत कुछ करने की जरूरत है। पुरातत्व के काफी नजदीक है गांव।
  • नई सभ्यता की नींव रखने अंडमान से आए थे  सोनघाटी कैमूर के पुरखे,
  • अस्तित्व-संकट से जूझ रही प्राचीन कोरवां जनजाति !,
  • अघौरा पठार और सोनघाटी, जहां आदमी ने रखी अति आरंभिक सभ्यता की नींव, 
  • पुरातात्विक अवशेष मिनी ग्रामीण संग्रहालय में अवलोकनार्थ

डेहरी-आन-सोन (बिहार)-अवधेश कुमार सिंह। वह मकरंंद सोनघाटी की धरती से आखिर खत्म हो गया और उस आदिम बूढ़े पेड़ की याद भर रह गई। सदियों तक अनार्य संस्कृति की वाहक जनजाति के जीवन का हिस्सा बने रहे उस वृक्ष-वंश का अस्तित्व शायद पूरी तरह समाप्त हो चुका है। बिहार के रोहतास जिला के दरिहट पंचायत में सोनतट पर बसे गांव अर्जुन बिगहा के ढीबर (टीला) पर मौजूद रहा वह एकलौता बौना बूढ़ा पेड़ (मकरंद) हवा-पानी, आंधी-तूफान का झंझावत नहीं झेल पाने के कारण 2013 में धराशयी (झुक) हुआ और 2016 में जड़ से उखड़ सूखने लगा था।

 सोनघाटी पुरातत्व परिषद ने की थी खोज
अर्जुन बिगहा के जिस ढीबर (टीला) पर वह पेड़ था, उसके नीचे सोनघाटी की अति प्राचीन सभ्यता (गंगाघाटी से बहुत पहले की और सरस्वती-सिंधुघाटी सभ्यता के समकक्ष) का इतिहास दबा है, जिसे उत्खनन का इंतजार है। ढीबर के नीचे प्राचीन सभ्यता के अवशेष होने की खोज सोनघाटी पुरातत्व परिषद के सचिव कृष्ण किसलय व संयुक्त सचिव अवधेश कुमार सिंह ने 1998-2001 में की थी। सोनघाटी पुरातत्व परिषद की आरंभिक खोज की जानकारी होने पर रोहतास के इतिहास के शोधकर्ता डा. श्यामसुन्दर तिवारी ने 2010 मे अर्जुन बिगहा का दौरा कर इसे ताम्र-पाषाण कालीन होने का अनुमान लगाया है।

वह वृक्ष (मकरंंद) सैकड़ों सालों से अपने आकार में सीमित बना हुआ था। सौ साल से अधिक उम्र वाले रासबिहारी सिंह (मृत्यु 2015) बताते थे कि उनकी दादी के गांव में विवाह कर आने के वक्त वह पेड़ उसी आकार में था। उसके पत्ते पतझड़ में झड़ते, बसंत में उसकी शाखों से हरे नए पत्ते निकलते थे, पर उसके आकार में बदलाव होते नहीं देखा गया था। उसमें जुलाई-अगस्त में फल लगता था, जो औषधीय गुणों वाला था। बरसात में खेतों में काम करने वालों के पैर के तलवों में मिट्टी-पानी से सडऩ (इंफेक्शन) होने पर मकरंद के फल का रस लगाया जाता था।

सोन नदी के दोनों तटों पर हजारों सालों तक ग्रामीण सभ्यता और शहरी सभ्यता भी
सोनघाटी की प्रागैतिहासिक सभ्यता-संस्कृति के अध्येता वरिष्ठ विज्ञान लेखक कृष्ण किसलय ने आरंभिक अध्ययन- पर्यवेक्षण के आधार पर माना है कि सोन नदी के पूरब-पश्चिम दोनों तटों की तरफ हजारों सालों तक ग्रामीण सभ्यता थी और शहरी सभ्यता भी। बेहतर आवास-आहार के लिए कैमूर पहाड़़ का गुफावासी आदिम मानव समूह बाण्डा, इनरबिगहिया मान, तुतलवस्तु, रोहितवस्तु (बाद में रोहतासगढ़) के शिखर से नीचे उतरा तो ढलान पर रेहल, सरकी, सेनुआर, लेरुआं और फिर सोन के पश्चिम तट पर बांदू, तुंबा, तेलकप, तिलौथू, झारखंडी, मकराईं (डेहरी-आन-सोन), घरी, अर्जुन बिगहा, सुअरा, बुधुआं व सोन के पूरब तट पर कबराकलां, नाऊर, बारून, जानपुर, मरोवां होते हुए सोन-गंगा की संधि पर प्रसिद्ध सभ्यता-स्थल चिरांद में बसेरा बनाया था। शिकार, कृषि, युद्ध के विस्तार और संघर्ष में चिरांद पहुंचा मानव समूह गंगाघाटी की सभ्यता का हिस्सा बना, पर अर्जुन बिगहा, घरी का मानव समूह सदियों तक सोनघाटी सभ्यता का हिस्सा बना रहा। तब सोनघाटी का एक बड़ा केेंद्र झारखंड में सोन-कोयल संगम पर कबराकलां (जपला) में था।

शिकारी से किसान बनी पुरानी जनजातियों का वासस्थल
घरी से प्राप्त कठोर काले पत्थर के कुदाल (टूटी हुई अवस्था में) का अवशेष यही संकेत देता है कि सोनघाटी का यह स्थान शिकारी से किसान बने पुरानी जनजातियों का वासस्थल था। यह उपकरण (पत्थर के कुदाल) की उपयोगिता नहींरह गई थी, मगर वह इसके उपयोगकर्ताओं द्वारा डीहवार पर पूजे जाने के कारण सदियों तक सुरक्षित रह पाया। डीहवार गांव से बाहर का वह स्थान माना जाता है, जहां बाह्यï देवता का वास होता है। जाहिर है, जो जाति (मानव समूह) पत्थर के कुदाल का उपयोग करती थी, उसके देवता का सम्मान तो था, मगर वह पराजितों का देवता था। यानी कि वह किसान जाति किसी लड़ाकू जाति (तब क्षत्रिय या राजपूत नहीं) द्वारा पराजित हुई थी और उसका स्थान गांव से बाहर हो गया था। अर्जनु बिगहा के सोन तट से प्राप्त लौहसिंगन (गले हुए लौह अयस्क के अवशेष) यह बताता है कि जनजातियों द्वारा हजारों या सैकड़ों सालों बाद भारत भूमि पर वापस लौटीं अनार्य असुरों का यह वासस्थल बन चुका था। गंगाघाटी के आर्य-संस्कृति के लोगों का वासस्थल तो यह बाद की सदियों में बना। अभी तक यही माना जाता है कि लोहे का उपयोग असुरों ने आरंभ किया था।

पुरातात्विक अवशेष मिनी ग्रामीण संग्रहालय में अवलोकनार्थ
बहरहाल, सोन नद के तट पर आबाद अर्जुन बिगहा फिर से 1857 की क्रांति के आसपास बसा, जिसे अर्जुन सिंह नामक जमींदार ने बसाया था और अपनी जमींदार वाले हिस्से की जमीन इस गांव के आरंभिक बाशिंदों को रहने के लिए दी थी। अर्जुन बिगहा के ढीबर (टीले) और घरी से प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों को सोनघाटी पुरातत्व परिषद के संरक्षण में अर्जुन बिगहा के मिनी ग्रामीण संग्रहालय में सबके अवलोकनार्थ रखा गया है।

नई सभ्यता की नींव रखने अंडमान से आए थे कैमूर के पुरखे

कृष्ण किसलय के अनुसार, भारत की 72 अति आदिम जनजातियों में कैमूर पर्वत की कोरवां जनजाति और अंडमानद्वीप की जारवां सहित चार आदिम जनजातियों कां अस्तित्व संकट में हैं, जिनकी आबादी घट रही है। हिन्द महासागर के द्वीप अंडमान से कई सहस्राब्दी वर्ष पूर्व अंडमान-निकोबार से कई किस्तों में जनसमूह बाहर निकला था और हजारों सालों तक दक्षिण भारत में रहने के बाद कैमूर पठार (बिंध्य पर्वतश्रृंखला की एक कड़ी) पार कर मानव सभ्यता के अगले हजारों सालों के पड़ाव पर उत्तर भारत और फिर एशिया के सुदूर देशों की ओर निकल पड़ा था। कैमूर की गुफाओं में पन्द्रह-बीस हजार साल पूर्व के मौजूद शैलचित्र इसके साक्ष्य हैं, जिनका सर्वेक्षण सर्वप्रथम फरवरी 1999 में कर्नल उमेश प्रसाद के नेतृत्व में आए पर्वतारोही दल ने किया, जिसमें पुरातत्व विभाग बिहार के पूर्व निदेशक डॉ॰ प्रकाशचंद प्रसाद भी थे।

10-15 हजार साल पीछे अंडमान-निकोबार में ही अलग-थलग पड़ा रह गया वह चारों जनसमूह ही आज के भारतीय उपमहाद्वीप और पूरे एशिया के पुरखे के रूप में मौजूद हैं। हैदराबाद के कोशकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केन्द्र और अमेरिका के हावर्ड मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिकों के अध्ययन का निष्कर्ष है कि भारत में 61 फीसदी आबादी एएसआई (पैतृक दक्षिण भारतीय) रक्त वाली है। हालंकि भाषा और सभ्यता विकास की कडिय़ां लुप्त हो जाने के कारण आज संपूर्ण एशिया के मानव समुदाय से ग्रेट अंडमानी जनजातियों का कोई मेल नहींरह गया है।

अस्तित्व-संकट से जूझ रही प्राचीन कोरवां जनजाति!
कैमूर पहाड़ पर रहने वाली एक आदिम जनजाति कोरवां तो अंडमान की आदिम जनजाति की तरह अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है, जिसकी जनसंख्या वृद्धि लगभग अवरुद्ध है। जैविक दृष्टि से कोरवां जनजाति अंडमान-निकोबार की आदिम जनजातियों की करीबी मानी जा सकती है। जैविक विश्लेषणों, डीएनए परीक्षणों से यह तय हो चुका है किअंडमान के आदिवासी पूरे एशिया के मानव समुदाय के पूर्वज हैं। अंडमान की सबसे पुरानी चार मानव प्रजातियों के पुरखे 50-60 हजार साल पहले दक्षिण अफ्रीका की क्लासीस नदी घाटी से निकलकर भारत भूमि के अंडमान निकोबार द्वीप (हिन्द महासागर क्षेत्र) में पहुंंंचे थे, जो आज भी प्राकृतिक अवस्था (नंग-धड़ंग जंगली जीवन) में में ही रहते हैं।

अघौरा पठार और सोनघाटी
सोन नदी के ठीक किनारे खड़ा करीब दो हजार ऊंंचा और अति कठिन चढ़ाई वाला बिन्ध्य पर्वतश्रृंखला का बिहार में अघौरा पठार (कैमूर) 384 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है, जिस पर 168 गांव आबाद हैं। वर्ष 1991 की जनगणना में इस पठार की आबादी 34284 थी, जिनमें जनजाति आबादी 16796 थी। पठार के सरकी गांव में कोरवां जनजाति के सिर्फ 13 परिवार थे, जिनके लिए जिला प्रशासन ने परिवार नियोजन लागू नहींकरने का आदेश निकाल रखा था। पिछली सदी तक इस परिवार के लोग अपने को जिंदा रखने के लिए सखुआ, गेर के पेड़ों के बीज, चकवड़ (जंगली घास) भी खाते रहे हैं। इस पर पठार पर पिछली 20वीं सदी में वर्ष 1955 में मुख्यमंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह गए थे और 21वींसदी में 2018 (अप्रैल) में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार।

जहां आदमी ने रखी अति आरंभिक सभ्यता की नींव 

पठार पर एक गांव भुईफोर है। जाहिर है, यह जमीन फोड़कर अर्थात जमीन जोतकर खेती करने वाली आरंभिक किसान जाति के नाम पर है। भुईयां जाति आरंभिक हलधर (किसान) जाती है, जिस जाति के लोग हरवाहा होते थे। इसी जाति की महिलाएं अभी भी पलामू से रोपनी करने के लिए झारखंड के पलामू आदि से बुलाई जाती हैं। संभवत: भुईया जाति का विकास कैमूर पठार के भुईफोर गांव में हुआ हो। इस तरह यह जाहिर है कि कैमूर का पठार, सोन नदी की घाटी भारतभूमि का वह आदिम स्थान है, जहां आदमी ने अति आरंभिक सभ्यता की नींव रखी और जहां कृषि का विकास हुआ। हालांकि इस बात को अंतिम रूप से कहने के लिए अभी अनेक तरह के साक्ष्य की जरूरत है।

(तस्वीरें : निशांत राज)

One thought on “…और खत्म हो गया मकरंद, बस यादें रह गईं उस आदिम बूढ़े की!

  • Surendra Tiwari

    मकरकंद के वृक्ष के नष्ट हो जाने का दुखद समाचार मिला। मुझे भी इस वृक्ष के बारे में लिखने का मौका समाचार पत्र में मिला था। गांव के पुरातात्विक महत्व के बारे में भी लिखने का मौका भाई अवधेश जी के प्रेरणा से मिला था। अर्जुन बिगहा ढिबर पर अभी और अधिक जानकारी प्राप्त करने की जरूरत है।

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