(प्रसंगवश/कृष्ण किसलय) बिहार विधानसभा चुनाव : गठजोड़ ही सफलता का सूत्र

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बिहार विधानसभा चुनाव : गठजोड़ ही सफलता का सूत्र
कृष्ण किसलय (संपादक, सोनमाटी)

बिहार में राजनीतिक दलों के प्रसव-गृहों में सूबे की सियासत का भविष्य आकार ग्रहण कर रहा है। राज्य की राजनीति 21वीं सदी की रोशनी के दो दशक गुजरने के बावजूद रोटी और बेटी की तरह जाति के आंगन से बाहर निकल नहीं सकी है। मंडलवाद अर्थात आरक्षण के उभार के बाद 1990 से बिहार में सरकारें गठबंधन की ही बनती रही हैं। गठबंधन इसलिए बनता है कि जातियों का वोट एक-दूसरे के लिए ट्रांसफर हो सके। मंडलवाद से पहले जातियों की प्रतिबद्धता पार्टी विशेष के प्रति नहीं थी। मंडलवाद के बाद खेमे में बंटे राजनीतिक दलों में कोई भी जातीय जनाधार के कारण अकेले दम पर बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सका। प्रदेश में दो राष्ट्रीय दल भाजपा, कांग्रेस और दो सबसे मजबूत क्षेत्रीय दल राजद, जदयू हैं। भाजपा जदूय से तो कांग्रेस राजद से ऊर्जा पाती रही है। छोटे दलों को तवज्जो इसलिए दिया जाता है कि बड़े दलों की सीटें कम होने पर सरकार बनाने की गारंटी हो। राज्य में पार्टी ही नहीं, कोई नेता भी सर्वसमाज का नहीं हो सका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई भाषण शैली भी बिहार में 2015 में कारगर नहीं हो पाई। क्षेत्रीय दलों के धुर जातीय पैठ के कारण ही केेंद्र में सत्ता की अग्रणी बागडोर हाथ में रखने वाली भाजपा बिहार के गठबंधन (एनडीए) में उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के नेतृत्व में छोटे भाई की ही भूमिका में है। 2015 में भाजपा को 24.4 फीसदी, राजद को 18.3 फीसदी, जदयू को 16.8 फीसदी, कांग्रेस को 6.6 फीसदी और लोजपा को 4.8 फीसदी मत मिले थे।

पिछले चुनाव में भाजपा को 24.4 फीसदी मत

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू का जनाधार मुख्यत: कोइरी-कुर्मी, अन्य पिछड़ी जाति और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव (लालू प्रसाद यादव के छोटे पुत्र) की पार्टी राजद का जनाधार यादव जाति में है। भाजपा और कांग्रेस के प्रति सवर्ण मतदाताओं का झुकाव रहा है। दलित और मुसलमान मतदाता कश-म-कश की स्थिति में इसलिए रहे हैं कि उनका कोई बड़ा नेता नहीं रहा है। दलितों का कोई कांशीराम नहीं बन सका। रामविलास पासवान भी नहीं, क्योंकि वह जाति विशेष के नेता बन कर रह गए। मुसलमान मतदाता भाजपा के साथ नहीं हो सकते और उनका स्वाभाविक झुकाव कांग्रेस या सरकार बना लेने की क्षमता वाले क्षेत्रीय दल राजद के प्रति रहा है। राज्य में मुस्लिम मतदाता भागलपुर के दंगा से पहले कांग्रेस के समर्थक थे। मगर इसके बाद उनका रुख राजद की ओर हुआ और फिर उनके मतों का वजन हमेशा भाजपा को हराने वाले पलड़े पर ही रहा। जाति संख्या के हिसाब से भाजपा, राजद और जदयू का जनाधार करीब-करीब बराबर है। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 24.4 फीसदी, राजद को 18.3 फीसदी, जदयू को 16.8 फीसदी, कांग्रेस को 6.6 फीसदी और लोजपा को 4.8 फीसदी मत मिले थे।

गरीब सवर्णो में 10 फीसदी आरक्षण का आकर्षण

भाजपा ने सवर्ण गरीबों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर इस वर्ग के मतदाताओं को आकृष्ट करने का प्रयास किया है। पिछड़े वर्ग का प्रबल समर्थन भाजपा को अभी प्राप्त नहीं है। हालांकि भाजपा ने यादव मतदाताओं में सेंध लगाने के लिए उनके नेताओं को राज्य और केेंद्र दोनों स्तरों पर महत्व दिया है। तीन दशकों में 2020 में हो रहा बिहार विधानसभा का यह पहला चुनाव है, जिसमें लालू प्रसाद यादव की सक्रिय भूमिका नहीं होगी। मतदाताओं में जंगल राज की यादें अभी भी गहरी हैं, मगर मौजूदा जदयू-भाजपा-लोजपा राज के सुशासन नहीं रह जाने की मायूसी है। नीतीश कुमार से राज्य की जनता बहुत खुश नहीं है। फिर भी वह राज्य की राजनीति के समीकरण में इसलिए पारस पत्थर बने हुए हैं कि मतदाताओं के पास चुनने के लिए नीतीश कुमार से बेहतर विकल्प नहीं है। नीतीश कुमार के 15 सालों के शासन के बाद अनेक सवाल उठने लगे हैं। मतदाता दफ्तरों में अपनी सामान्य जरूरत-पूर्ति को लेकर निरकुंश भ्रष्टाचार के कारण उनके सुशासन पर सवाल उठाने लगे है।

तेजस्वी के सामने राजद का वजूद बचाने की चुनौती

यादवों के साथ पिछड़ों और मुस्लिमों का सबसे अधिक वोट बैंक रखने वाले राजद के नेता तेजस्वी यादव के नेतृत्व-क्षमता पर फिलहाल राज्य के मतदाताओं को भरोसा कम है। 2020 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव के लिए राजद का वजूद बचाने की लड़ाई है। इन्हें राजद के अंदर और गठबंधन में नेता के रूप में संपूर्ण स्वीकार्यता नहीं प्राप्त हुई है। तेजस्वी यादव इस बार अपने को अगली पीढ़ी के नेता के रूप में प्रस्तुत कर चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होने नब्बे दशक के दौरान लालू राज में हुई गड़बड़ी के लिए माफी भी मांगी है। वह मुस्लिम-यादव समीकरण से बाहर निकल कर बिहार के नेता के रूप में स्थापित होने की कोशिश में हैं। लालू प्रसाद यादव के संकटमोचक रहे रघुवंश प्रसाद सिंह का अवसान और मृत्यु-पूर्व उनका लालू प्रसाद यादव से मोहभंग होना मतदाताओं के मन को मथ रहा है। मतदान के बाद चुनाव परिणाम में यह देखना दिलचस्प होगा कि चारा घोटाला में रांची जेल की सजा काट रहे और रिम्स अस्पताल अधीक्षक के बंगले में रह रहे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का राजनीति में अभी कितना असर है? लालू यादव ने चुनाव के मद्देनजर ट्वीट किया है कि बिहार में बदलाव होगा। कहा है- उठो बिहारी, करो तैयारी, जनता का शासन अबकी बारी।

नीतीश कुमार ने खेला दलित कार्ड

नीतीश कुमार ने दलित मतादाताओं को लुभाने के लिए दलित कार्ड खेला है। दलित वोट बैंक के संतुलन को साधने के प्रयास में उन्होंने जीतनराम मांझी को लालू-तेजस्वी के खेमे से बाहर निकाला और बिहार कांग्रेस के चार साल से अधिक समय तक अध्यक्ष रहे महादलित समुदाय के अशोक चौधरी को जदयू का प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है। अशोक चौधरी का कहना है कि 1996 के बाद कांग्रेस का लालू प्रसाद यादव से गठबंधन होने से राज्य में कांग्रेस का ग्राफ निरंतर नीचे गिरता गया। इससे पहले दलितों को आकृष्ट करने के लिए 4 सितंबर 2020 को नीतीश कुमार ने अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की मानिटरिंग समिति की बैठक में अधिकारियों को एससी-एसटी परिवार के किसी सदस्य की हत्या होने की स्थिति में पीडि़त परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का प्रावधान बनाने का निर्देश दिया था। यह नीतीश कुमार का दलित कार्ड है। राजद छोड़कर फिर एनडीए का हिस्सा बने पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को रामविलास पासवान के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। रामविलास पासवान के पुत्र लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान लगातार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर आक्रामक रुख अपना कर ज्यादा सीटों के लिए दबाव बनाते रहे। भाजपा नीतीश कुमार को तो नाराज कर नहीं सकती। इसलिए यह माना जा सकता है कि वह एनडीए के पुराने घटक लोजपा को अपनी राह चलते हुए देख भर सकती है।

पुरानी है नीतीश-उपेन्द्र की आवभगत-अदावत की कहानी

नीतीश कुमार से उपेन्द्र कुशवाहा की अदावत और आवभगत की कहानी पुरानी है। समता पार्टी के समय लालू यादव के खिलाफ राजनीतिक जमीन तैयार करने में नीतीश कुमार की मदद उपेन्द्र कुशवाहा ने की थी। इसके एवज में पहली बार विधायक बनने के बावजूद 2004 में नीतीश कुमार ने उन्हें विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था। 2005 में उपेन्द्र कुशवाहा ने सुर बदल लिया। अक्टूबर 2005 में हुए चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने विपक्ष का नेता होने के नाते कुशवाहा को मिला बंगला पटना प्रशासन की मौजूदगी में खाली करवा लिया और 2007 में कुशवाहा को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया। इसके बाद उपेंद्र कुशवाहा छगन भुजबल की मदद से एनसीपी में गए। मगर कुछ ही दिन बाद उन्होंने राष्ट्रीय समता पार्टी बना ली।

मोदी लहर में भी तीनों सीट पर हुई जीत

दो साल बाद 2009 में उपेंद्र कुशवाहा फिर नीतीश कुमार के साथ हो गए तो 2010 में राज्यसभा में भेजे गए। उन्होंने 2010 में जदयू के राजगीर सम्मेलन में रामलखन महतो, श्याम रजक, बीमा भारती, श्रीकांत निराला को राजद से जदयू में लाए जाने पर सवाल उठा दिया। रामलखन महतो ने उन्हें विधानसभा चुनाव में हराया था। 2012 (दिसंबर) में मल्टी ब्रांड रीटेल में एफडीआई का जदयू के विरोध के बावजूद उपेंद्र कुशवाहा ने राज्यसभा में बिल के समर्थन में वोट दिया। इसके बाद वह 2012 में जदयू से अलग होकर 2013 में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बना ली। 2013 में नीतीश कुमार ने 17 साल की दोस्ती के बाद एनडीए से हटने का ऐलान किया तो उपेंद्र कुशवाहा भाजपा के साथ एनडीए का हिस्सा बन गए। रालोसपा ने 2014 की मोदी लहर में तीन लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की और उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री बन गए। रालोसपा को तीन लोकसभा सीटों पर ही चुनाव लडऩे का टिकट मिला था।

तेजस्वी के लिए लव-कुश वोट बैंक ट्रांसफर कराने में विफल

इसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और लालू यादव ने हाथ मिला लिया। भाजपा-लोजपा-रालोसपा का सूपड़ा साफ हो गया। कुर्मी-कोइरी मतों पर दावा करने वाले उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी 23 विधानसभा सीटों पर लड़कर दो सीट पर ही जीत हासिल कर सकी। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा को भी 40 सीटों में से दो सीट पर ही जीत मिली। महादलितों के नेता जीतनराम मांझी तो 20 में से सिर्फ अपनी ही सीट निकाल सके। 2015 के चुनाव परिणाम के बाद बिना वोट बैंक वाले नेता बन गए उपेंद्र कुशवाहा का केेंद्रीय मंत्री पद फिर भी बरकरार रहा। 2015 के विधानसभा चुनाव की तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा लव-कुश वोट बैंक तेजस्वी यादव के लिए ट्रांसफर कराने में सफल नहीं रहे। महागठबंधन मात खा गया।

किंगमेकर की भूमिका की संभावना भी

जहां रालोसपा का दबाव महागठबंधन में अधिक सीट पाने का रहा, वही चिराग पासवान का दबाव भी एनडीए से अधिक सीटे झटक लेने का। लोजपा की ओर से कहा गया है कि चिराग पासवान को मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर चुनाव मैदान में उतरने की रणनीति पर भी तेजी से विचार हो रहा है। चुनाव के बाद त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में लोजपा या रालोसपा किंगमेकर की भूमिका में होने के संभावना को भी टटोल रही हैं। इस तरह दोनों बड़े गठबंधनों में ऊहा-पोह की स्थिति हैं, तो दूसरी तरफ तीसरा मोर्चा भी ठीक आकार ग्रहण नहीं कर सका है। बड़ा भाई (लालू प्रसाद यादव) और छोटा भाई (नीतीश कुमार) के विरोध में संयुक्त जनतांत्रिक सेक्युलर गठबंधन (टूडीएसए) बना है, जिसके संयोजक पूर्व केेंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव हैं। यूडीएसए में मुख्य रूप से असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी आईएमआईएम है, जो 50 सीटों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है। मुकेश सहनी के नेतृत्व वाला दल वीआईपी ने भी महागठबंधन में महत्व नहीं मिलने के कारण विकल्प की तलाश शुरू कर दी है।

बतौर मुख्यमंत्री चेहरा उपेंद्र कुशवाहा बसपा के साथ

बिहार में 01 अक्टूबर से आरंभ एक सप्ताह की नामांकन अवधि से ठीक पहले रालोसपा प्रमुख पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने मायावती के बसपा और जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) के साथ हाथ मिलाकर एक और मोर्चा बना लिया। इस पर मुहर लगाते हुए बसपा प्रमुख मायावती ने कहा है कि अगर इस गठबंधन को बिहार के लोगों का आशीर्वाद मिला तो उपेंद्र कुशवाहा मुख्यमंत्री बनेंगे। इस तीसरे मोर्चा में पप्पू यादव (जनाधिकार पार्टी) और मुकेश सहनी (वीआईपी) के शामिल होने की चर्चा थी, लेकिन पप्पू यादव ने चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी, एमके फैजी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी और बीपीएल मातंग की बहुजन मुक्ति पार्टी के साथ अलग प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन (पीडीए) बना लिया। बसपा ने 25 साल पहले 1995 में ही उत्तर प्रदेश से सटे बिहार के सीमांत कैमूर जिला के चैनपुर और मोहनिया विधानसभा क्षेत्रों पर कब्जा जमाया था। इसके अगले चुनाव 2000 में चैनपुर, मोहनिया, रामपुर, धनहा, फारबिसगंज और फिर 2005 में भी भभुआ, दिनारा, बक्सर, कटिया विधानसभा क्षेत्रों पर अपना झंडा बुलंद किया। मगर बेहतर रणनीति के अभाव और बदले सियासी समीकरण में 2005, 2010 और 2015 के विधानसभा चुनावों में उसका कोई विधायक नहीं चुना जा सका।

दलित वोट बैंक खींचने की चुनावी चाल

बिहार में सभी 23 अनुसूचित जातियों की आबादी 16 फीसदी है। इनकी संख्या 1.70 करोड़ से अधिक है, जिनमें करीब 85 लाख मतदाता है। रविदास सबसे अधिक 46 लाख से अधिक, पासवान 45 लाख से अधिक और तीसरे स्थान पर मुसहर 26 लाख से अधिक हैं। इसके बाद सात लाख से अधिक पासी और सात-सात लाख के करीब धोबी, रजक, भुइयां हैं। 11 दलित जातियों की कुल संख्या 50 हजार के ही आस-पास होने के कारण संख्या के लोकतंत्रीय गणित में उनकी पूछ नहीं के बराबर है। दलित जातियां राज्य में फ्लोटिंग वोटर हैं, क्योंकि अन्य जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल पहले से तय हैं। रामविलास पासवान पासवानों के एकछत्र नेता हैं। एनडीए की ओर से जीतनराम मांझी मुसहर और अशोक चौधरी पासी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि राजद ने पासी जाति का ही प्रतिनिधित्व करने वाले रालोसपा के प्रदेश अध्यक्ष भूदेव चौधरी को एक सप्ताह पहले और दो माह पहले धोबी, रजक जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले पूर्व मंत्री श्याम रजक को जदयू से अपने पाले में कर लिया था। चिराग पासवान के एनडीए पर अधिक सीटों के लिए दबाव या अलग हो जाने पर किसी नए समीकरण की संभावना के मद्देनजर सबने अपनी-अपनी चुनावी चाल चली है।

लालू-राबड़ी और नीतीश के पास 30 साल रही सत्ता

1952 से गुजरे 68 सालों में 19 मुख्यमंत्रियों का कुल कार्यकाल 30 साल रहा है अर्थात एक मुख्यमंत्री को औसतन डेढ़ साल तक ही कार्य करने का अवसर मिला। जबकि 38 साल चार मुख्यमंत्रियों श्रीकृष्ण सिंह, लालू प्रसाद यादव, लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी और नीतीश कुमार के पास रही है। 1990-2005 तक लालू-राबड़ी और 2005-2020 तक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहे हैं। मंडलवाद के पहले सभी 23 मुख्यमंत्रियों में 12 सवर्ण, तीन पिछड़ा वर्ग से, दो दलित वर्ग से और एक मुस्लिम समुदाय से थे। मंडलवाद के उभार से जातीय समीकरण के कारण किसी सवर्ण का भविष्य में भी मुख्यमंत्री बनना या मुख्यमंत्री बन कर टिके रहना संभव नहीं रह गया है।

पहले चरण का मतदान 28 अक्टूबर को

पहले चरण के 71 सीटों के लिए नामांकन की अंतिम तिथि 08 अक्टूबर, नाम वापसी की अंतिम तिथि 12 अक्टूबर और मतदान की तिथि 28 अक्टूबर है। 71 सीटों में वर्ष 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में एनडीए के हिस्सा के रूप में जदयू ने 39 सीट और भाजपा ने 22 सीट पर जीत हासिल की थी, जिनमें जीतनराम मांझी, रामनारायण मंडल, संतोष कुमार निराला, जयकुमार सिंह, कृष्णनंदन प्रसाद वर्मा और प्रेम कुमार मंत्री बने। इन 71 सीटों में नक्सल प्रभावित दक्षिण बिहार के सीमावर्ती सोन नद अंचल के जिला रोहतास में डेहरी, काराकाट, सासाराम, नोखा, करगहर, दिनारा, चेनारी (सुरक्षित) सीट और औरंगाबाद जिला में नबीनगर, ओबरा, गोह, औरंगाबाद, कुटुम्बा (सुरक्षित) सीट हैं।

महिलाओं का मतदान पुरुषों से अधिक

2010 के चुनाव में महिलाओं ने पुरुषों से अधिक वोट डाला था। ऐसा राज्य में पहली बार हुआ था। तब से हर बार राज्य में महिलाओं का मतदान अधिक संख्या में होता रहा है। राज्य में 7.18 करोड़ से अधिक मतदाताओं में पुरुष मतदाता 3.79 करोड़ और महिला मतदाता 3.39 करोड़ हैं। सबसे अधिक 30-39 साल उम्र के 1.98 करोड़ मतदाता हैं। इसके बाद 20-29 साल उम्र वाले 1.46 करोड़, 40-49 साल उम्र वाले 1.47 करोड़, 50-59 साल वाले 97 लाख, 60-69 साल उम्र वाले 63 लाख और 70-79 साल उम्र वाले 31 लाख मतदाता हैं। इस बार कोविड-19 के कारण कम मतदान होने की उम्मीद की जा रही है। राज्य में 60 फीसदी से कम वोटिंग होती रही है। इस बार बूथ मैनेजमेट अहम होगा, जिसमें राजनीतिक प्रबंध कौशल की परीक्षा होगी।

देहरादून (दिल्ली कार्यालय) से प्रकाशित पाक्षिक चाणक्य मंत्र में पटना (बिहार) से कृष्ण किसलय की रिपोर्ट
संपर्क : सोनमाटी-प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यूएरिया, पो. डालमियानगर-821305, जिला रोहतास (बिहार) फोन 9523154607, 9708778136

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