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दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की शीर्ष अदालत ने सुरक्षित रखा है फैसला
– कृष्ण किसलय (संपादक, सोनमाटीडाटकाम)
सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना मामले में दोषी करार वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा माफी मांगने से इनकार करने के बाद इस प्रकरण में 25 अगस्त का अपना फैसला सुरक्षित रखा है। शीर्ष न्यायालय ने माना है कि प्रशांत भूषण का वर्तमान मुख्य न्यायधीश और चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के प्रति किया गया ट्वीट न्यायपालिका की कार्यशैली की स्वस्थ आलोचना के लिए नहीं है। 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ (न्यायाधीशों अरुण मिश्र, बीआर गावी, कृष्णा मुरारी) ने वीडियो कान्फ्रेेंसिंग के जरिये प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी होने का फैसला और फिर 20 अगस्त को बिना शर्त क्षमा याचना के लिए 24 अगस्त तक का समय दिया था।
सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी सक्रिय सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन के लिए जाना जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुचर्चित राष्ट्रीय संघर्ष में वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के साथ प्रशांत भूषण भी रहे थे। प्रशांत भूषण ने कहा है कि उन्होंने उन विचारों को अच्छी भावना के साथ व्यक्त किया है, जिन पर वह विश्वास करते हैं और जिससे संविधान के अभिभावक और जनता के अधिकारों के रक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट को उसकी दीर्घकालिक भूमिका के भटकाव से रोका जा सके। पाखंडपूर्ण क्षमायाचना उनकी अंतरात्मा के और एक संस्थान के लिए अपमान-समान होगा।
इस प्रकरण के प्रसंग में देश के सैकड़ों सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, नौकरशाहों, वरिष्ठ अधिवक्ताओं, पत्रकारों ने कहा है कि न्यायप्रणाली के कार्य पर चिंता करना नागरिकों का मूलभूत अधिकार है। प्रशांत भूषण से पहले कई न्यायाधीश भी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर सुरक्षित भाषा में चिंता जता चुके हैं। बेशक सुप्रीम कोर्ट के पास न्यायालय की अवमानना का अमोघ अस्त्र है। न्यायालय की अवमानना के अधिनियम (1971) में छह महीने तक की कैद या दो हजार रुपये जुर्माना अथवा दोनों की सजा का प्रावधान है।
लोकतंत्र और स्वस्थ आलोचना तो संपूर्ण मानवीय गरिमा के लिए आवश्यक तत्व हैं। अपने समूचे स्वरूप में अनियंत्रित, अपरिष्कृत होने के बावजूद सोशल मीडिया का उपयोग क्या अभिव्यक्ति की आजादी के लिए नहीं हो रहा और क्या नहीं होना चाहिए? सवाल यह भी है कि व्यापक जनहित में क्या वास्तविक आलोचना नहीं होनी चाहिए? जटिल सामाजिक संरचना के मद्देनजर अति महत्वाकांक्षी सरकारों और उन्मादी मीडिया वाले दौर में सुप्रीम कोर्ट देश में अंतिम आशा है। देश के शीर्ष न्यायालय के समाने अपनी संस्थात्मक गरिमा और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा की भी अति गंभीर जिम्मेदारी है। बहरहाल, अब यह जिज्ञासा बनी हुई है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होता है?
”मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट मौलिक अधिकार के प्रोटेक्शन की आखिरी उम्मीद है। इस कोर्ट से लोगों की उम्मीद बंधी होती है। बतौर कोर्ट आफिसर मुझे लगता है कि भटकाव हो रहा है तो मैं बेहतरी के लिए आवाज उठाता हूं, सुप्रीम कोर्ट या किसी जस्टिस का कद नीचा करने के लिए नहीं”। -प्रशांत भूषण
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पुलिस महानिदेशक ने दिया आदेश : मामला वेब-पोर्टलों, यू-ट्यूब चैनलों पर रोक के निर्देश का
पटना/डेहरी-आन-सोन (कार्यालय प्रतिनिधि निशांत राज)। बिहार पुलिस मुख्यालय ने डीआईजी (मानवाधिकार) द्वारा जारी 05 अगस्त का आदेश वापस ले लिया, जिसमें राज्य के पुलिस अधीक्षकों को आरएनआई और पीआईबी से पंजीकृत नहीं हुए न्यूज वेब-पोर्टलों और यू-ट्यूब चैनलों पर रोक लगाने का निर्देश था। वेब पत्रकारों के संगठन वेब जर्नलिस्ट एसोसिएशन आफ इंडिया ने मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक से पुलिस मुख्यालय द्वारा जारी निर्देश-पत्र को रद्द करने की मांग की। प्रकरण के संज्ञान में आने के बाद पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे ने इस निर्देश को वापस लेने का आदेश दिया। इसके बाद अपर पुलिस महानिदेशक ने 05 अगस्त के निर्देश को वापस लेने का नया निर्देश 12 अगस्त को जारी किया।
12 अगस्त को जारी निर्देश-पत्र में कहा गया है कि नेशनल प्रेस यूनियन के दावा की वैधता की जांच जरूरी होने के कारण 05 अगस्त का निर्देश-पत्र वापस लिया जाता है। दरअसल नेशनल प्रेस यूनियन ने मुख्यमंत्री से पत्र के जरिये वेब-पोर्टलों और यू-ट्यूब चैनलों की वैधता पर सवाल उठाते हुए रोक लगाने की मांग की थी। इस पत्र को मुख्यमंत्री कार्यालय ने पुलिस मुख्यालय को अग्रसारित किया, जिस आधार पर डीआईजी (मानवाधिकार) ने पुलिस अधीक्षकों को जांचकर कार्रवाई करने और की गई कार्रवाई से राज्य पुलिस मुख्यालय को अवगत कराने का निर्देश-पत्र जारी किया।
चूंकि बिहार सरकार वेब पत्रकारों को एक्रीडिशन भी दे रही है, इसलिए 05 का निर्देश-पत्र हैरानी में डालनेवाला था। जबकि सोशल मीडिया के बारे में भी न्यायालय की टिप्पणी है कि सोशल मीडिया पर रोक अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक जैसी है। देश में अभी वेब-पोर्टल और यू-ट्यूब चैनल के लिए गाइडलाइन निर्धारित नहींहोने और संबंधित कानून के नहीं होने से सरकार से अनुमति लेने या रजिस्ट्रेशन कराने का प्रावधान नहीं है। हालांकि की गई शिकायत आरंभिक तौर पर पुलिस के बजाय सरकार के जनसंपर्क विभाग से संबंधित था।
(यह रिपोर्ट बिहार के वरिष्ठ टीवी पत्रकार प्रवीण बागी
की फेसबुक वाल की पोस्ट के आधार पर)