देशान्तर
मी-टू : अमेरिका से निकली आवाज अब गूंज रही भारत में भी
इन दिनों मी-टू शब्द पूरी दुनिया में चर्चा में है। मी-टू शब्द का प्रयोग सबसे पहले 2006 में अमेरिकी सोशल एक्टिविस्ट टैराना बर्क ने यौनउत्पीडऩ के खिलाफ अश्वेत महिलाओं को जागरूक बनाने के अभियान में किया थ। इसे वैश्विक रूप पिछले वर्ष एक्ट्रेस ऐलिसा मिलानो द्वारा हॉलिवुड प्रोड्यूसर हार्वी वाइंस्टाइन के खिलाफ यौनउत्पीडऩ का आरोप सार्वजनिक होने के बाद मिला।
– समूह संपादक, सोनमाटी मीडिया समूह
समाज में पुरुषों ही नहीं, महिलाओं की सोच भी दकियानुस : डा. सरिता सिंह
स्त्री-पुरुष संबंध की जैविक, प्राकृतिक, दार्शनिक, सामाजिक व्याख्या भले ही सभ्यता के हजारों सालों से जारी रही हो और मनुष्य जाति अंतरिक्ष युग में पहुंच चुकी हो, मगर सच यही है कि समाज में पुरुषों ही नहीं, बल्कि महिलाओं की सोच भी आदिकाल से दकियानुस और स्त्री को उपभोग की वस्तु मानने की रही है। इसीलिए टाइम मैगजीन ने वर्ष 2017 का पर्सन आफ द इयर किसी व्यक्ति को नहीं, ताकतवर पुरुष के स्त्री पर बल प्रयोग के खिलाफ मी-टू अभियान को बनाया।
ताकतवर वैश्विक अभियान बन गया मी-टू
ट्विटर, फेसबुक पर दुनिया भर के देशों की महिलाओं के इस मुहिम में शामिल होने से यह एक ताकतवर वैश्विक अभियान में तब्दील हो गया है। इस दौरान कई सिलेब्रिटी बेनकाब हुईं और कई पर कानूनी कार्रवाई हुई। इसमें भारत की महिलाओं की सहभागिता पीड़ा बांटने के रूप में रही है।
भारत में सुप्रीम कोर्ट ने की थी पहल, 2013 में संसद ने बनाया कानून
भारत में 1997 में राजस्थान के बहुचर्चित भंवरी देवी कांड की सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए गाइडलाइन दी थी। 2013 में संसद द्वारा कार्यस्थल पर महिला का यौन शोषण, रोकथाम, निषेध व निवारण कानून बनाया गया। भारतीय दंड संहिता में धारा-354 शामिल कर प्रावधान किया गया कि किसी महिला को उसकी मर्जी के बगैर छूना, यौन इच्छापूर्ति की मांग करना, यौन इच्छ प्रेरित आपत्तिजनक टिप्पणी करना, अश्लील फोटो-वीडियो-साहित्य दिखाना-भेजना आदि के मामलों में एक से 7 साल तक की जेल और जुर्माने की सजा हो सकती है। किसी महिला की जानकारी के बगैर तस्वीर खींचना-शेयर करना भी अब अपराध है।
-डा. सरिता सिंह,
सेवानिवृत्त अध्यापिका
स्वागत है आपबीती बयान कर रही महिलाओं का : सुषमा सिन्हा
अपना दर्द बोल रहीं स्त्रियों का समर्थन-स्वागत है। कई सच कड़वे होने के साथ कठोर भी होते हैं, जिन्हें पचाने में समाज के बीमार लोगों को तकलीफ होती है। मेरी समझ से दुनिया में कोई भी स्त्री ऐसी नहीं है, जिसके साथ स्त्री होने के कारण कभी कोई अनुचित, अमर्यादित व्यवहार न हुआ हो। चाहे वह वाणी, नजर, स्पर्श, मार या जबरदस्ती हो। स्त्रियां स्त्री होने की कीमत कई-कई तरह से चुकाती हैं। सैकड़ों सालों से हमारे बंद समाज में, जहां स्त्रियों के लिए निषेध का अधिक आग्रह हो, ऐसी बात बत पाने के लिए बहुत ही हिम्मत की जरूरत होती है। समाज ने स्त्रियों को इतना भीरू बना दिया है कि जब वह घर में किए गए अनाचार के विरुद्ध भी आवाज नहीं उठा पातीं है, तब घर ससे बाहर हुए हादसों के लिए वह किसको आवाज दें, कौन सुनेगा उसकी?
यह राहत की बात है कि आपबीती बताने का प्लेटफॉर्म मी-टू के रूप में सामने आया है पिछले ही दिनों अखबार में खबर थी कि एक पिता नौ-दस साल की बच्ची को मोबाइल पर अश्लील वीडियो दिखाकर उसके साथ गलत हरकत करता था। बच्ची तो अपनी बात तब कह पाएगी, ज उसे समझ-हिम्मत आएगी। इस बात को याद करते हुए वह अपनी जिंदगी में न जाने कितनी बार मरेगी? जिन्हें यह सब सुनकर तकलीफ हो रही है और जो तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि ऐसी बातें बताने के लिए बहुत हिम्मत की जरूरत होती है। गर्व की बात है कि स्त्रियां घुटने टेकने के बजाय आपबीती बयान कर रही हैं।
– सुषमा सिन्हा
वरिष्ठ वित्त अधिकारी,
झारखंड सरकार, रांची
उम्मीद की जानी चाहिए कि तैयार होगा बदलाव का स्थाई माहौल : डा. सरिता शर्मा
सभी स्त्रियां दूध की धुली हैं, ऐसा भी नहीं है। मगर सार्वजनिक जीवन में दावे से कह सकती हूं कि सौ में 90 पुरुष स्त्रियों के इनकार को इकरार और उनका फायदा उठाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। छेड़छाड़ की घटनाओं को चुप रहकर सहना हमें बचपन से सिखाया गया है।
मी-टू अभियान ने एक बदलाव की शुरुआत की है। अब देखना है कि यह कितना लंबा और स्थाई बन पाता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब ऐसे बदलाव का माहौल तैयार होगा, जिसमें दुष्कर्म या छेड़छाड़ करनेवाले की इज़्ज़त जाती मानी जाएगी। जिसके साथ ऐसा हुआ है, वह महिला नहीं। अब स्त्री की शालीनता, व्यावहारिक कौशल, माधुर्य, भावुकता, उसके सौहाद्र्रपूर्ण व्यवहार को उसकाआमंत्रण या स्वीकृति समझना बन्द करने का समय आ गया है।
-डा. सरिता शर्मा,
दिल्ली