-कृष्ण किसलय-
भारत मेंं पांच साल के अंतराल पर होने वाला चुनाव लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मगर यह इतना अधिक खर्चीला और पेंचीदा हो गया है कि इसमें आम जनता की भूमिका सिर्फ मतदान भर की रह गई है। सच्चाई यही है कि देश की आम जनता कभी भी लोकतंत्र की सक्रिय हिस्सेदार नहींहो सकती। चुनाव को प्रभावित करने और जीतने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। अखबारों-चैनलों-पत्रकारों को खरीदने का वैध-अवैध तरीका तो पहले से ही अपनाया जाता रहा है। अब चुनाव कन्सलटेन्ट का नया धंधा भी सामने आ गया है, जो अरबों रुपये लेकर प्रोपेगेंडा करता है, फेक न्यूज गढ़ता है।
चुनाव कालेधन के बल पर
सेंटर फार मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट से पता चलता है कि 2014 के चुनाव में सभी दलों द्वारा 30 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए थे, मगर रिकार्ड में सिर्फ तीन हजार करोड़ रुपये ही दिखाए गए। जाहिर है, चुनाव कालेधन के बल पर हो रहा है। चुनाव के अत्यधिक खर्चीला होने के कारण ही सांसद-विधायक प्रश्न पूछने की कीमत लेने और राजनीतिक दल टिकट बेचने लगे हैं। बेशक, सियासत आज कारोबार में तब्दील हो चुका है। दलों और प्रत्याशियों द्वारा एक लोकसभा सीट पर पांच से 50 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, जिस पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग भी सक्षम नहींहै। राजनीतिक कार्यकर्ता तो कब के हाशिये पर जा चुके हैं। आम जनता निरुपाय है। जनता को पांच साल में सिर्फ मतदान का अधिकार मिलता है, वह भी मतदाता रजिस्टर में नाम दर्ज होने या मतदाता पहचानपत्र होने पर। पिछले चुनावों में निर्वाचित प्रतिनिधियों को मिले मतों के आंकड़ों को देखें तो चुनाव की यह विद्रूपता भी सामने आती है कि हमारे सांसद कुल मतों का लगभग 15 फीसदी पाकर ही संसद में जाते रहे हैं। अर्थात एक अर्थ में वह जनता के 15 फीसदी हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। ग्रामीण अंचलों के मतदाताओं का तो एक मनोविज्ञान यह भी रहा है कि वे दलों-नेताओं के झांसे में आकर मतदान कर देते हैं।
जवाबदेही मतदाता की ही कि कौन है उचित उम्मीदवार
अब जरूरत राजनीति और नेता को भला-बुरा कहने, एक-दूसरे पर दोषारोपण की प्रवृति से उबरने और जाति, दल, परिवार, पड़ोस की लालच से बचने की है। दरअसल लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन प्रतिनिधि चुनने की जवाबदेही मतदाता की ही है। यह तो तय है कि चुनाव जनता की अंतरमत-समूह-धारा ही लड़ती है, भले ही सतह पर प्रत्याशी और राजनीतिक कार्यकर्ता लड़ते हुए दिखते हों। वस्तुत: मतदाताओं को ही अपने विवेक से तय करना है कि लोक की बेहतरी के लिए कौन उचित उम्मीदवार हो सकता है? किसकी जीत से सत्ता-शासन भरोसेमंद बन सकता है? देश और समाज को बेहतर लोकतंत्र की ओर कौन ले जा सकता है? आप जिसे चुनने जा रहे हैं, वह पांच सालों के लिए आपके क्षेत्र का भाग्य निर्माता साबित होगा। इसलिए नीर-क्षीर विवेक से आप अपना विधाता बनिए।
तथ्यपूर्ण आलेख।