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(सभ्यता-यात्रा/कृष्ण किसलय) : भारत के अति प्राचीन इतिहास का भूगोल सोनघाटी

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भारत के अति प्राचीन इतिहास का भूगोल सोनघाटी
-कृष्ण किसलय (संपादक : सोनमाटी)

(06 जून 2000 को विश्वनाथ प्रसाद सरावगी की अध्यक्षता में स्थापित की गई सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार)

सोनमाटी (प्रिंट) में प्रकाशित और सोनमाटीडाटकाम (ग्लोबल वेबपोर्टल) में प्रसारित यह सामग्री लेखनाधीन पुस्तक-योजना की पूर्व-पीठिका (ब्लू प्रिंट) है। इसके लेखक कृष्ण किसलय सोन नदी अंचल के स्थानीय पुरातत्व-इतिहास के अध्येता-अन्वेषक, सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार के सचिव और नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया से प्रकाशित विज्ञान के इतिहास की चर्चित पुस्तक ‘सुनो मैं समय हूं’ के रचनाकार हैं। सोनघाटी पुरातत्व परिषद, बिहार ने दो दशक पहले यह अवधारणा रखी थी कि सोन-घाटी की प्रागैतिहासिक सभ्यता गंगा घाटी ही नहीं, प्राचीन सिंधु घाटी से भी पूर्ववर्ती हो सकती है। 21वीं सदी के गुजरे दो दशकों में नई खोज, नए अनुसंधान और नई जानकारी ने इस अनुमान को प्रमाण के साथ पुख्ता किया है कि वास्तव में भारत की विश्वविश्रुत सोन-घाटी आदमी (होमोसैपियन) के अतीत का आईना है, आदमी की सभ्यता की आदिभूमि है और भारत के अति प्राचीन इतिहास का भूगोल है सोनघाटी पुरातत्व परिषद द्वारा चिह्नित सोन नदी तट के ताम्रपाषाण कालीन स्थल कबराकलां (झारखंड) में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण उत्खनन कर रहा है, जबकि सोन तट के दूसरे महत्वपूर्ण स्थल अर्जुनबिगहा (बिहार) को उत्खनन की प्रतीक्षा है।
-निशान्त राज, प्रबंध संपादक, सोनमाटी। संपर्क : सोनमाटी-प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यू एरिया, डालमियानगर-821305, जिला रोहतास (बिहार) फोन 9955622367, 9523154607, 9708778136। तस्वीर संयोजन और पुरा-सर्वेक्षण इनपुट : अवधेश कुमार सिंह, भूपेंद्रनारायण सिंह, उपेन्द्र कश्यप, अंगद किशोर, तापस कुमार डे, निशांत राज, सरोज पांडेय, राकेश पांडेय।

(ड़ेढ़ सदी पहले डेहरी-आन-सोन, बिहार के देहरीघाट एनिकट में निर्माणाधीन विश्वविश्रुत सोन नहर प्रणाली)

भारत देश के दक्षिण (भारत) और उत्तर (भारत) के बीच में स्थित कैमूर-बिंध्य-सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला समूह से गुजरने वाली सोन नदी की घाटी हजारों सालों तक अंडमान से हड़प्पा तक आदमी (होमोसैपियन) की सभ्यता-यात्रा-क्रम का विश्व का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है। 20-30 हजार सालों की यात्रा में अंडमान से सोनघाटी, फिर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया के छोर मिस्र के निकट तक पहुंचने वाला यायावर होमोसैपियन (आदमी) वन्यजीव जैसा ही था। मगर होमो (मानव) कुल की यह सैपियन (बुद्धिमान) प्रजाति कायाकल्प और बौद्धिक विकास करने वाले परिवर्तन के दो उपकरणों से लैस हो गई। पहला, आग पर नियंत्रण और दूसरा एक-दूसरे से बेहतर संवाद करने की बोली-भाषा। इससे आदमी वन्यजीवन से मुक्त हुआ और अपने को पृथ्वी पर नए अवतार के रूप में स्थापित किया। मध्य प्रदेश के शहडोल जिला के अमरकंटक से निकलकर छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और झारखंड की सीमा से गुजरते हुए बिहार के पटना जिला में गंगा नदी में संगम करने वाली नदी सोन का ऊपरवर्ती पर्वतांचल सतपुड़ा, मध्यवर्ती बिंध्य, निम्नवर्ती कैमूर पठार मानवीय गतिविधियों से तब से सक्रिय रहा है, जब से इतिहास का कोई लेखा नहीं। तब से, जब प्राचीन यूनान का अस्तित्व नहीं था और रोम अभी भविष्य के गर्भ में था। तब यूरोप के पुरखे जंगलों में ही रहते थे। भारतीय वाग्मय में नद की संज्ञा प्राप्त देश की तीन सबसे चौड़ी नदियों में से एक सोन की घाटी वह जगह है, जहां भारत की सरस्वती, सिंधु, गंगा नदियों के तट से पहले, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, राखीगढ़ी से पहले और दुनिया की अति प्राचीन सभ्यताओं इजिप्ट (नील नदी, मिस्र), मेसोपोटामिया (दजला-फरात नदियों का दोआबा, इराक) से भी पहले आरंभिक मानव सभ्यता का बीजारोपण हुआ।

कैमूर की गुफाओं में लिव-इन-रिलेशनशीप की नींव :

(सोन नदी, डेहरी-आन-सोन, बिहार के निकट कैमूर पर्वत के अंतिम शैलाश्रय पर वर्ष 2000 में कृष्ण किसलय)

भारतीय भूभाग को उत्तर-दक्षिण में बांटने वाली कैमूर-बिंध्य-सतपुड़ा पर्वतश्रृंखला की सोन घाटी क्षेत्र से प्राप्त पुरा-अवशेष और पुरातात्विक साक्ष्य आदमी द्वारा विश्व की आदि-सभ्यता की नींव रखने के प्रमाण हैं। पृथ्वी पर हिमयुग के चरम काल में अफ्रीका से भोजन और बेहतर वास की तलाश में निकला आदिमानव (होमोसैपियन) 60-70 हजार साल से पहले हिंद महासागर में स्थित अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह में पहुंच चुका था। फिर वहां से हजारों सालों के अंतराल पर कई किस्तों में दक्षिण भारत, उत्तर भारत और पूरे एशिया में विस्तृत हुआ। आदमी ने बिंध्य-कैमूर की गुफाओं में हजारों सालों तक शरण ली थी। आधुनिक शब्दावली के लिव-इन-रिलेशनशीप की नींव आदिमानव (होमोसैपियन) ने कैमूर-बिंध्य की गुफाओं में रखी थी। आदिमानव-युगल द्वारा गुफाओं में हिमयुग के समाप्त होने के पहले के बनाए गए आदिम शैलचित्रों का ही सांस्कृतिक प्रतिबिंबन है वर-वधू के प्रथम मिलन का कमरा चित्रांकित करने की वर्तमान पारंपरिक लोककला कोहबर। सोनघाटी (जलग्रहण क्षेत्र) के मिर्जापुर जिला (उत्तर प्रदेश) में एक गुफा का नाम ही कोहबर है, जहां आदिमानवों के रहने की आदिम चित्रकारी मौजूद है। गुहा चित्र से भित्ति चित्र में परिवर्तित हुई कोहबर अंकन की आदिम संस्कृति को झारखंड की लोककला के रूप में जियोग्राफिक इंडिकेशन टैग प्राप्त हो चुका है।
15-20 हजार साल पहले हिमयुग खत्म हुआ, अपेक्षाकृत गर्मी बढऩी शुरू हुई तो कैमूर की कंदराओं में नंग-धड़ंग रहने वाला आदमी (होमोसैपियन) बाहर निकला। गुफाओं के बाहर की पारिस्थितिकी (जल-वायु) आदमी (होमोसैपियन) के वास के अनुकूल हो चुकी थी। पानी के चुआं (जलस्रोत), झरना या पर्वतीय तलहटी की नदी के निकट उसने अपना नया बसेरा बनाया। आदमी ने सोनघाटी के अंचल में तन ढंकने की तमीज सीखी और सीखा दूसरे परिवार-समूह के साथ समाज बनाकर रहने का तरीका। उस दौर में पृथ्वी पर आदमी (होमोसैपियन) की आबादी बमुश्किल से कुछ हजार की संख्या में बच रही थी। संभवत: आदमी दूसरे महादेशों के मुकाबले गर्म अफ्रीका और एशिया महादेश की भारतभूमि पर ही बचा रह गया था, क्योंकि करीब 75 हजार साल पहले इंडोनेशिया (सुमात्रा द्वीपसमूह) के टोबा द्वीप ज्वालामुखी विस्फोट के कारण आदमी सहित अन्य जीव, वनस्पति प्रजातियां बड़े पैमाने पर नष्ट हुई थीं। वह 20 लाख सालों में सबसे बड़ा भयानक ज्वालामुखी विस्फोट था, जिससे पृथ्वी पर दशकों तक धूल-धुंध छाया रहा और अगले हजारों सालों तक पृथ्वी का पर्यावरण असंतुलित हो गया था। सोनघाटी में आदमी ने अपनी प्रजाति (होमोसैपियन) के अस्तित्व की रक्षा की और अपने को नए शक्तिशाली अवतार में स्थापित भी किया।
मध्य प्रदेश के अमरकंटक जहां से सोन नद का उद्गम है, उसके ठीक सामने विपरीत दिशा में दूसरी पर्वत चोटी से नर्मदा नदी का उद्गम है। 2019 में प्रोफेसर स्टीफेन ओपेन हाइजर ने आकलन कर बताया कि टोबा ज्वालामुखी विस्फोट के बाद आदमी (होमोसैपियन) चंद हजार की संख्या में ही अफ्रीका, पूर्वी एशिया और भारतीय भूभाग पर बचा रह गया था। इससे पहले 2009 में थामस किवसिल्ड ने बताया था कि भारत मानव (होमोसैपियन) के प्रसार का केेंद्र बना। नर्मदा नदी घाटी के हथनौरा में महिला खोपड़ी मिलने के बाद भारतभूमि पर मानव-उत्पति के होने की बहस 1982 से जारी थी, क्योंकि महिला खोपड़ी में मस्तिष्क का आकार बड़ा होने से उसे होमोसैपियन माना गया। हालांकि अन्य कारणों से यह स्थापित नहीं हुआ कि होमोसैपियन का उद्भव भारत में हुआ।

उन्नत बोली के विकास के साथ आग पर नियंत्रण भी सोनघाटी में :

(डेहरी-आन-सोन में जयहिंद परिसर में सोनघाटी पुरातत्व परिषद के बिहार और झारखंड की कार्यकारिणी सदस्य)

आग का आविष्कार सोनघाटी क्षेत्र में भी हुआ। महाभारत में शोणभद्र (सोन), सिंधु, पंचनद को अग्नि-उत्पति स्थल कहा गया है। ऋग्वेद के 218 सूक्तों में देवता के रूप में अग्नि का जिक्र हुआ है और महाभारत के वनपर्व में वैदिक संदर्भ के साथ शोणभद्र (सोन) को अग्नि-उत्पति स्थल बताया गया है। महाभारत का श्लोक है- ‘तुंगवेणा, कृष्णवेणा, कपिला, शोण एवं च’ (वन पर्व, अध्याय 22)। यह शोण (सोन) कहां है? इस बात की जानकारी ब्रहमांड पुराण के श्लोक (4-29) से मिलती है- ‘काशीत: प्राग्दिग्भागे प्रत्यक शोणानदादपि, जाह्नवी बिंध्योर्मध्ये देश: करुष: स्मृत:’। महाभारत के इस श्लोक से जाहिर है कि महाभारत काल का शोण ही आज का सोन है। सोन किनारे के डेहरी-आन-सोन से पश्चिम-दक्षिण करीब 30 किलोमीटर दूर सिंदुवार या सेनुआर में सीमित क्षेत्र में करीब ढाई मीटर गहराई तक के उत्खनन में राख और जली हुई लकड़ी के कोयला के टुकड़े पाए गए हैं, जो जमीन के भीतर गोल, अंडाकार और आयताकार गड्ढों में थे। इन गड्ढों में जली हुई मिट्टी की पतली दीवारें पाई गईं हैं। इससे पता चलता है कि सिंदुवारवासी नियंत्रित तकनीक के जरिये आग का इस्तेमाल करते थे और चकमक (पत्थर) या अरणी (लकड़ी) रगड़कर आग पैदा करने के अति आरंभिक तरीके से आगे निकल चुके थे।
आदमी ने खुले जंगल में रहने के लिए आग जलाने की तकनीक के साथ समूह में रहने, एक-दूसरे का सहयोग करने के लिए बच्चों जैसी सांकेतिक बोली से उन्नत बोली, एक जगह बने रहने के लिए झोंपड़ी बनाने, वानिकी, खेती के हुनर आदि का विकास किया। कैमूर पर्वत पर आदिम जनजाति कोरवा आज भी मौजूद हैं, जिनकी बोली में जीवाश्म की तरह बचे रह गए आदिम शब्दों और उनकी लोककथाओं के जरिये आदमी (होमोसैपियन) के भूतकाल को टटोला जा सकता है। नवभारत टाइम्स, पटना में प्रकाशित विशेष रिपोर्ट (कृष्ण किसलय) के अनुसार, कैमूर पर्वत पर 20वीं सदी में भारत की इस लुप्तप्राय श्रेणी (पीवीटीजी) की जनजाति के 13 परिवार बचे हुए थे। तब परिवार नियोजन अनिवार्य था, मगर राजकीय आदेश निकालकर कैमूर के कोरवा समुदाय की अस्तित्व रक्षा के लिए नसंबदी की अपरिहार्यता खत्म कर दी गई थी। यह सोनघाटी के जलग्रहण क्षेत्र के कैमूर पर्वत पर घने जंगल में रहने वाली वनवासी जाति है, जो द्रविड़ों, शब्बरों, उरांवों से पूर्ववर्ती बाशिंदा है। यह पर्वतवासी समुदाय इतना पिछड़ा रहा है कि कैमूर पर्वत के पूरब और उत्तर दोनों तलहटियों के निकट बड़ी और छोटी (नैरो-गेज) पटरी पर रेलगाडिय़ां चलने के बावजूद इन वनवासियों ने कोई 40 साल पहले रेलगाड़ी नहीं देखी थी। यह जानकारी कैमूर के वनवासी कल्याण से आधिकारिक रूप से जुड़े विपिनविहारी सिन्हा (भूतपूर्व उद्योग मंत्री) द्वारा सोनमाटी को दी गई थी। झारखंड राज्य के गढ़वा जिला के रंका के सघन जंगल (साल वन) में बसे वृक्षाश्रित, पेड़-पूजक कोरवा समुदाय इन्हीं (कैमूर पर्वतवासी) के वंशधर हैं, जो भोजन और बेहतर वास की तलाश में या विस्थापन के अन्य कारण से कैमूर पठार से उतरकर सोन नदी पार कर गए थे। इसी आदिम समुदाय के नई सदी के वंशज हीरामन कोरवा ने करीब चार हजार शब्दों को संग्रह कर कोरबा भाषा शब्दकोष तैयार किया है। इस शब्द-कोश (संग्रह) की चर्चा प्रधानमंत्री अपनी ‘मन की बात’ में सार्वजनिक तौर पर कर चुके हैं।

7000 साल पहले 10 मीटर ऊपर था श्रीलंका का समुद्र मार्ग :

(बांदू की सोनधारा में रक्ष-संस्कृति का दसशीशानाथ मंदिर)

20 हजार वर्ष पहले जब पृथ्वी बर्फ से लदी-फदी थी, तब समुद्र का जलस्तर आज से 120 मीटर नीचे था और श्रीलंका, अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह भूमि मार्ग से जुड़े थे। ऊंचे हिमालय पर बर्फ अधिक सघन होने से उससे निकलने वाली सिंधु, सरस्वती, गंगा, यमुना नदियों में पानी कम आता था। जबकि उस कालखंड में बिहार के डेहरी-आन-सोन में तीन मील चौड़े पाट वाली सोन नदी में पानी समुद्र की तरह लहराता था, जो आदिवासियों की जीवन-रेखा थी। 7000 वर्ष पहले दक्षिण भारत को श्रीलंका से जोडऩे वाला द्वीपीय जलमार्ग (आदम पुल) समुद्र से 10 मीटर ऊपर था और यह 1480 ईस्वी तक समुद्र में डूबा नहीं था। अगर महाकाव्य रामायण की कथा से इतिहास तत्व को ग्रहण करें तो रक्ष संस्कृति के उन्नायक रावण का प्रताप सोन नदी घाटी (दक्षिण कोसल) तक था, जहां का सामंत उसका भांजा शंबूक था। बिहार के जिला रोहतास के सीमांत पर्वतीय नौहट्टा प्रखंड के बांदू में दसशीशानाथ शिवलिंग के रावण द्वारा स्थापित होने की लोककथा प्रचलित है, जो दरअसल रक्ष संस्कृति के वंशधरों का धार्मिक उपक्रम हो सकता है। ऊर्जा संचार उपक्रम के रूप में लिंग-प्राण-प्रतिष्ठा बहुत प्राचीन है। तब मंदिर-स्थल ऊर्जा के स्थान थे, जहां आज की तरह प्रार्थना नहीं, आह्वान होता था। रावण पुलत्स्य/अगस्त्य कुल का था। रावण पद-क्रम था। ऋग्वेद काल के देवासुर संग्राम की कथा में भी रावण मौजूद है।
सोन नदी तट के सबसे बड़े शहर डेहरी-आन-सोन (प्राचीन देहरीघाट) से 50 किलोमीटर दूर सोन नदी के पश्चिम तट पर स्थित बांदू के ठीक सामने पूरब तट पर सोन-कोयल नदियों के संगम पर नवपाषण काल का कबराकलां गांव है। श्रीलंका से कैलाश पर्वत (हिमालय) जाने वाले भारतीय उप महाद्वीप के एक अति प्राचीन मार्ग में पडऩे वाले कैमूर पठार की पूर्वी तलहटी में स्थित बांदू गांव (रोहतास) का यह शिवलिंग स्थल सोन के मार्ग बदलने के कारण उसकी धारा में जा चुका है और नदियों के किनारों से गुजरने वाला भारत का वह अति प्राचीन मार्ग अब लुप्त-अव्यवहृत हो चुका है। सोन नदी का प्रवाह पूरब से पश्चिम होता गया है। मौर्य काल में सोन नदी पटना के कंकड़बाग से गुजरकर दीघा घाट में गंगा से मिलती थी। सोन की धारा बदलने की चर्चा स्कंद पुराण में भी है। सर्वेक्षक डा. फ्रांसिस बुकानन के बांदू में पहुंचने के समय तक बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल से हजारों लोग पूजा करने पहुंचते थे। इसी स्थान से कैमूर और छोटानागपुर पठारों के बीच बहती हुई सोन नदी उत्तराभिमुख हो झारखंड (पलामू, गढ़वा) और बिहार के (रोहतास, औरंगाबाद) के मैदानी इलाके में प्रवेश करती है।
रोहतास जिला के बौलिया-दारानगर के निकट बांदू-उली के सोन घाट से झारखंड में प्रवेश का रास्ता था, जहां एक प्राचीन छोटी पहाड़ी नदी सोन में संगम करती थी। आज भी खरवार राज के वंशधरों का प्राचीन गांव खैरवा खुर्द बांदू के निकट है और सोन के उस पार का गांव खैरवा कलां है। डा. फ्रांसिस बुकानन ने लिखा है- ‘बांदू गांव में सोन नदी में दोरिसवारा शिव (लिंग) के स्थान पर कोई मंदिर नहीं, पत्थर है। इसके निकट शिलालेख हैं’। बुकानन ने अपनी रिपोर्ट में 11 खरवार राजाओं की वंशावली का जिक्र किया है। अंतिम राजा (महानृपति) का नाम उदय चंद्र था। ईस्ट इंडिया कंपनी के कोर्ट (बोर्ड) के आदेश पर चिकित्सा अधिकारी रहे डा. फ्रांसिस बुकानन अपने दल के साथ 25 दिसम्बर, 1812 को बांदू पहुंचे थे। हालांकि डा. बुकानन के पहले 1766 में फ्रांसीसी अभियंता लुई फेलिक्स द ग्लास ने यह टिप्पणी की थी- ‘अभेद्य वनाच्छादित प्रदेश, न सड़क, न पगडंडी, सोन तट के इलाके का सर्वेक्षण करना नितांत असंभव है’। जिस खरवार राजवंश के शासन के अधीन कैमूर पर्वत से पूरब सोन नदी पार पलामू, गढ़वा तक का पूरबी हिस्सा था, वह खरवार राजवंश सोन के पश्चिमी हिस्से के चेर-वंश के अंतर्गत था। चेर-वंश ((चेराध्रि) के गढ़वाल या गहरवार या गहड़वाल राज का अंतिम राजा हरिश्चंद्र था।

यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यताओं को थी सोन नदी की जानकारी :

(कबराकला से उत्खनन में प्राप्त रिंगवेल)

बिंध्य पर्वतश्रृंखला में अवस्थित विश्व धरोहर सूची में शामिल भीमबेटका के गुफा चित्रों की खोज पिछली सदी में हो चुकी थी। इसे सबसे पहले ब्रिटिश खोजी डब्ल्यू किनाइन ने 1888 में कैमूर के आदिवासियों की सूचना के आधार पर चिह्नित किया था। इसी पर्वतश्रृंखला के पूरबी सिरे कैमूर पठार पर गुफा चित्रों की सर्वप्रथम खोज 1999-2000 (दिसंबर-जनवरी) में लेफ्टिनेंट कर्नल उमेश प्रसाद के नेतृत्व में दानापुर सैन्य छावनी की ट्रैकिंग टीम ने की थी। उस टीम के साथ बिहार पुरातत्व निदेशालय के निदेशक डा. प्रकाशचरण प्रसाद भी थे। सेना की ट्रैकिंग टीम ने सोन नदी के पश्चिम किनारे पर डेढ़ हजार फीट से अधिक ऊंची एकदम खड़ी रोहतासगढ़ चोटी से बिंध्याचल तक सर्वेक्षण किया था। करीब 480 किलोमीटर लंबी और अधिकतम 80 किलोमीटर तक चौड़ी बिंध्य-कैमूर पर्वतश्रृंखला का उत्तर-पूर्वी सिरा देहरीघाट (डेहरी-आन-सोन) के निकट खत्म होता है और पश्चिमी सिरा राजस्थान में चितौड़ गढ़ के निकट तक जाता है। सोन तट पर स्थित प्राचीन देहरीघाट (डेहरी-आन-सोन) बिंध्य पर्वत के दोनों ओर के भू-भागों का प्रवेश-द्वार था और दोनों ओर अलग-अलग देश थे। सोन की जानकारी यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यताओं को थी, जिसे यूनानवासी एनराबाओस और रोमवासी सोआ कहते थे। ईसा से तीन सदी पूर्व सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार के यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने सोन को भारत की नदियों में तीसरा स्थान दिया था। ईसा बाद के ग्रीक भूगोलवेत्ता क्लाउडियस टालेमी ने सोन का जिक्र किया है। वाल्मीकि रामायण में सोन की चर्चा है। महाभारत में कृष्ण, भीम, अर्जुन के सोन पार करने का उल्लेख है। ऋग्वेद में कीकट (सोन के पूरब) के एक मुखिया राजा की चर्चा है। इस तरह जाहिर है कि सोन अति प्राचीन काल से मानवीय गतिविधियों का ज्ञात केेंद्र रहा है।
प्राचीन काल में सघन जंगल होने के कारण पानी और पहचान के लिए नदी तट, नदी संगम और जलप्रपात वाली पर्वतीय तलहटी से होकर ही स्थल-मार्ग गुजरते थे। भारतीय उपमहाद्वीप के अति प्राचीनतम पथ पर अवस्थित सोनघाटी क्षेत्र को अलग-अलग कालखंडों में अनेक प्राचीन आदिवासी समूह ने बसेरा बनाया, जो सूर्य पूजक, वृक्ष पूजक, अग्नि पूजक, धरती पूजक, मातृदेवी पूजक, लिंग पूजक थे। बिंध्य-कैमूर क्षेत्र की आर्य-पूर्व संस्कृति के आदिवासियों की प्रसिद्ध नेतृत्वकर्ता, युद्ध-दक्ष मातृदेवियां बिंध्यवासिनी, मुंडेश्वरी, चंडी, काली आदि बाद में आर्य-संस्कृति में शामिल हो गईं, उसका अभिन्न हिस्सा बन गईं। सोनघाटी वैदिक कालीन या वैदिक काल से पूर्व ज्ञात कीकट-करुष क्षेत्र रहा है। बिहार-झारखंड में सोन नदी के पूरब कीकट और पश्चिम में करूष देस था। इसी सोनघाटी क्षेत्र से पश्चिम एशिया के सुदूर छोर तक हजारों सालों में अनेक स्तरों पर संस्कृति का संचरण हुआ।

सोनघाटी से मिस्र सभ्यता तक पहुंची सूर्यपूजा की संस्कृति :

(सूर्यवंशियों का रोहतासन मंदिर)

ऋग्वेद की एक शाखा के ऋषि जरथुष्ट्र ने यहूदी धर्म-पंथ की स्थापना की थी। पौराणिक कथा है कि असीरिया (ईरान) के असुरों ने यहूदियों को गुलाम बनाया तो आर्य राजा करुष ने इन्हें मुक्त कराया था। यहूदी (पारसी) समाज आज भी अग्नि-पूजक समाज है। इसका यही अर्थ है कि करुष के शासकों का प्रसार और वर्चस्व ईरान तक था। आर्य-शासक दशरथ की बेटी नेफरिती, अमिनोफिस से शादी कर, मिस्र की महारानी बनी तो शाही परिवार अख्नातून (सूर्य) की पूजा करने लगा। विधवा होने पर इसी नेफरिती ने हित्ती (आर्य) शासक सुपलियमा को पत्र लिखा था कि अपना एक बेटा भेज दो, विवाह करूंगी। मिट्टी की पकी हुई प्लेट पर लिखा (उकेरा) गया पुरातात्विक खोज में प्राप्त हुआ वह पुरा-पत्र (कम-से-कम 4000 साल पुराना) बर्लिन म्यूजियम में रखा हुआ है।
वास्तव में ऋग्वेद का देवता मित्र (सूर्य) ही ईरानियों का मिथ्र है। बहुत बाद में हजारों साल बाद भारतीय उपमहाद्वीप में सूर्य-पूजा की नई विधि अपनाई गई और मंदिर बनाए गए। महाभारत काल में कृष्ण के पुत्र शाम्ब द्वारा मुलतान चेनाब नदी के निकट शाम्बपुरा में पहला मंदिर बनाने का उल्लेख मिलता है। मुलतान के इस सूर्यमंदिर का जिक्र भारत आने वाला प्रथम यूनानी योद्धा स्काईलेक्स ने किया है, जो ईरान के सम्राट दारा (प्रथम) का सेनापति था। ढाई हजार साल पहले इतिहासकार होरोटोडस ने इसका उल्लेख किया है। मुलतान के सूर्यमंदिर में शाम्बपुर यात्रा उत्सव मनाने का उल्लेख ह्वेनसांग, अलबरूनी और अलमसूदी ने भी किया है। बेबीलोन में 3800 साल पहले जिस आर्य शाखा (कस्सी जाति) का शासन था, उसके देवता सुरियस (सूर्य) थे। ऋग्वेद में बताया गया है कि सूर्य जिस रथ पर बैठकर आकाश की यात्रा करता है, उसे सात घोड़े खींचते हैं। संभवत: इंद्रधनुष के सात रंगों के कारण सात घोड़ों की कल्पना की गई थी। ऋग्वैदिक लोग साल भर को महीनों में बांट चुके थे, क्योंकि द्वादशादित्य (बारह आदित्य यानी सूर्य) की चर्चा ऋग्वेद में है । सिंधुघाटी की सभ्यता में भी सूर्योपासना स्वस्तिक चिह्न के रूप में मौजूद है।
सोनघाटी का लोकपर्व छठ सूर्य-पूजा का व्रत है। अति प्राचीन काल से ही निर्जल-निराहार रहकर व्रत-साधना के कारण सोन के इलाके को व्रात्य (यानी यज्ञ-रागी नहीं) क्षेत्र कहा गया है। सूथनी, ओल, शकरकंद, अदरख, हल्दी, कोहड़ा (कद्दू), केला, बैर, नारियल, ईख आदि जैसी छठ पूजा की खाद्य सामग्री से भी यही संकेत मिलता है कि यह स्थानीय मूल (सोन-घाटी) का और कृषि-पूर्व संस्कृति के अति प्राचीन लोगों का पर्व है। कोहड़ा तो आज भी शादी-विवाह की अपरिहार्य सब्जी है, जिससे संबंधित एक कहावत सोनघाटी इलाके में खूब प्रचलित है। झारखंड की सूरजाही (सूर्य-पूजा) में देवता को प्रसन्न करने के लिए सफेद बकरा की दी जाने वाली बलि आदमी के शिकारी जीवन की परंपरा-अवशेष है। कुड़मालि आदिवासी लोककंठ में खोरठा गीत है- ‘एतो जदी जान तलो सूरूज देवा अइता गो, एगो चरक पाठा रखतलो जोगाये गो’। सोनघाटी में गाए जाने वाले छठ लोकगीत में सूर्य-श्रद्धा के अति आरंभिक तत्व शब्दों के रूप में मौजूद हैं- ‘केरवा जो फरेला घवद से ओह प सुगा मंडराय, उ जे खबरि जनइबो अदिक से सुगा देले जुठिआय, उ जे मरबो रे सुगा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय, उ जे सुगनी जे रोवे ले विरह से अदित होहू न सहाय…’। और, इस लोकगीत में भी- ‘काच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाय…’।
सूर्य स्तुति के छंदबद्ध मंत्र (गायत्री) के सर्जक कवि विश्वमित्र (विश्वरथ) हैं, जिनसे जुड़ी सतयुग यानी ऋग्वैदिक काल की एक पौराणिक कथा सोनघाटी से पश्चिम स्थित अयोध्या के सूर्यवंशी राजा सत्यव्रत (त्रिशंकु) को सशरीर स्वर्ग भेजने के प्रयास की है। रोहतास किला परिसर में रोहतासन मंदिर है, जिसके बारे आज भी यह लोकोक्ति प्रचलित है कि इसे ऋग्वैदिक सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व ने स्थापित किया था। इस पौराणिक कथा का यह अर्थ लगाया जाना चाहिए कि इस मंदिर को सूर्यवंश के वंशधरों ने बनाया था। रोहिताश्व के ही पितामह (दादा या बाबा) राजा सत्यव्रत थे, जो अयोध्या के राजा राम के पूर्वज थे। सत्यव्रत को द्रविड़ देश का राजा वैवस्वत मनु भी कहा गया है। वैवस्त मनु के 10 पुत्रों में दो पुत्र इक्ष्वाकु और करुष थे। इक्ष्वाकु का क्षेत्र अयोध्या और करूष का क्षेत्र सोनघाटी, दक्षिण कोसल था। त्रिशंकु यानी सत्यव्रत के मित्र विश्वामित्र यानी विश्वरथ द्वारा रचा गया मंत्र भारतीय वाग्मय की श्रुति परंपरा में नई सृष्टि थी, क्योंकि ऋग्वैदिक सूक्त-सृजन के हजारों वर्ष में इससे पहले किसी ऋषि ने छंदबद्ध गेय मंत्र नहीं रचा था। सूर्य को समर्पित 24 अक्षरों का यह मंत्र हजारों सालों से आज तक जनकंठ में बसा हुआ है- ‘तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्’।

भारत में बूटधारी सूर्य का पहला मंदिर देवमार्कण्डेय में :

(देवमार्कण्डेय के प्राचीन मंदिर का रेखाचित्र)

जब सोनघाटी का आदिमानव (होमोसैपियन) विचारवान मनुष्य की तरह सोचना शुरू किया तो सदियों के चिंतन में उसे यह महसूस हुआ कि सूर्य जीवनदाता है। उसने अपने जीवनदाता के प्रति आभार व्यक्त करने का तरीका ईजाद किया। इसीलिए सोनघाटी (बिहार-झारखंड-छत्तीसगढ़) सूर्यपूजा के लोकपर्व छठ की आदि-भूमि है। सूर्य उपासना का दुनिया का यह ऐसा सर्वप्राचीन केन्द्र है, जहां बिना पुरोहित, बिना यज्ञविधि और बिना शास्त्रीय विधान के ही छठ-व्रत होता है। छठ-व्रत में डूबते सूर्य की पूजा होती है। शायद डूबते सूर्य की पूजा की वजह आदिम वन्य जीवन का वह डर है, जब सूर्य के डूबते ही जिंदगी खतरे में पड़ जाती थी। यह समझ तो थी ही कि सूर्य से ही दिन का उजाला होता है और सर्दी से रक्षा भी होती है। सूर्य-पूजा के पीछे यह आशंका भी होगी कि कौन जाने सूर्यास्त के बाद फिर कभी सूर्योदय हो ही नहीं। पत्थर उत्कीर्ण करने की कला के विकास होने पर भारत में पहली सूर्य प्रतिमा सोनघाटी में डेहरी-आन-सोन से 20 किलोमीटर उत्तर सोन नदी के किनारे देवमार्कण्डेय गांव में ईसा प्रथम सदी में स्थापित हुई थी।
वर्ष 1963 में प्रकाशित पुस्तक ‘दि एंटीक्वारैन रिमैन्स इन बिहार’ में इतिहासविद डा. डीआर पाटिल ने बताया है कि देवमार्कण्डेय के सूर्य मंदिर का स्थापत्य गुप्तकाल में निर्मित देववरुणार्क (औरंगाबाद, बिहार) के सूर्य मंदिर की उदीच्य (यूनानी) स्थापत्य शैली से मिलती-जुलती है। 1812 में सर्वेक्षण करने देवमार्कण्डेय पहुंचे डा. फ्रांसिस बुकानन को सूर्यमंदिर स्थल से एक प्रस्तर-पट्टिका मिली थी, जिसकी लिखावट से उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि ईसा से 63 वर्ष पहले आदिवासी राजा फुदीचंद चेरो की रानी गोभावनी ने इस मंदिर को बनवाया। डा. फ्रांसिस बुकानन के 70 साल बाद 1881 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रथम महानिदेशक अलेक्जेंडर कनिंघम और पुराविद एचबीडब्ल्यू गैरिक आरा (भोजपुर) से भाप चालित स्टीमर पर सवार होकर विश्वप्रसिद्ध सोन नहर से 10 घंटे की यात्रा कर देवमार्कण्डेय पहुंचे थे। उन्होंने देवमार्कण्डेय टीला में जमींदोज सूर्य मंदिर की खुदाई कराई। फ्रांसिस बुकानन द्वारा देखा गया प्रस्तर-लेख तो उन्हें नहीं मिला, मगर उन्होंने यह माना कि देवमार्कण्डेय के सूर्य मंदिर की स्थापत्य शैली देववरुणार्क सूर्य मंदिर से पूर्ववर्ती (पुरानी) है। कनिंघम ने यहां से 2 फीट 4 ईंच ऊंची बूटधारी सूर्य मूर्ति खोजी थी और एचबीडब्लयू गैरिक ने देवमार्कण्डेय में तब मौजूद प्राचीन मंदिर के अवशेष का रेखाचित्र बनाया था।
सोनघाटी के आदिवासियों ने सूर्य-पूजा की शुरुआत 10-12 हजार साल पहले की होगी। सूर्यपूजा की लोकसंस्कृति की यात्रा सोनघाटी के यायावर आदिवासियों के साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, ईरान, इराक होते हुए एशिया के अंतिम छोर तक, मिस्र तक पहुंची। हजारों सालों की हजारों किलोमीटर की सांस्कृतिक यात्रा (आवागमन) में सभ्यताओं के संघर्ष-सम्मिलन में सूर्यपूजा की पद्धति ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप-आकार ग्रहण की और दो हजार वर्ष पहले अपनी आदिभूमि सोनघाटी में शक शासकों के साथ बूटधारी सूर्य-प्रतिमा प्रतिष्ठापन के पुरोहित वाले शास्त्रबद्ध कर्मकांड से लैस होकर वापस लौटी। यह तथ्य है कि सूर्यपूजक शकों के राज में शकद्वीप से पुरोहित बुलाए गए थे। बिहार के शकद्वीप (ईरान) से आए सूर्य-पूजा के पुरोहित मग ब्राह्मण यहां के बाशिंदा बन गए। सोनघाटी में आज मग या शक ब्राह्मण सकलदीपी कहे जाते हैं। ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर शक-द्वीपी ब्राह्मण थे। मिहिर का अर्थ सूर्य है, जो तब का बड़ा सम्मान था। शक ब्राह्मणों द्वारा ओढ़ी जानेवाली इस्तबक (कढ़ाईदार सिल्क चादर) को सोन-घाटी वासी महाकवि-नाटककार वाणभट्ट ने अपने ग्रंथ हर्षचरित में स्तवरक कहा है।

आरंभिक समाज व्यवस्था स्थापना के समय के ऋषि थे अगस्त्य :

(भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा चिह्नित प्राचीन नाऊरगढ़, औरंगाबाद)

भारतीय वाग्मय में ऋग्वेद के एक आरंभिक मंत्रद्रष्टा महर्षि अगस्त्य (पुलत्स्य) को सप्ततारा समूह के ऋषि श्रेणी में रखा गया है। महर्षि अगस्त्य विचारवान बनना शुरू हुए मनुष्य (होमोसैपियन) के समय के ऋषि हैं। वह स्वायंभाव मनु अर्थात भारतभूमि पर आरंभिक समाज व्यवस्था की स्थापना के समय की ऋषि परंपरा के हैं और वशिष्ठों, विश्वामित्रों की ऋषि परंपरा के पूर्ववर्ती हैं। इसीलिए उन्हें वशिष्ठ का बड़ा भाई बताया गया है। महाभारत काल में वेदों को संहिताबद्ध करने वाले महर्षि वेदव्यास (कृष्ण द्वैपायन) ने ऋग्वेद संहिता के प्रथम मंडल में 27 प्रार्थना मंत्रों (165-191) के रचनाकार के रूप में अगस्त्य को स्थान दिया है। दक्षिण भारत की प्राचीनतम भाषा तमिल का पितामह कहे जाने वाले महर्षि अगस्त्य से जुड़ी यह लोककथा सोनघाटी क्षेत्र में प्रचलित है कि दक्षिण से बिंध्य पर्वत पारकर हिमालय (उत्तर) की ओर यात्रा पर जाते समय उन्होंने बिंध्य को झुके रहने का आदेश दिया, तब से वह झुका हुआ है। भूवैज्ञानिक जानकरी की दृष्टि से इसका अर्थ है कि बिंध्य निष्क्रिय पठार (कम ऊंचाई का पहाड़) था और हिमालय का ऊपर उठना जारी था। आज यह जाना जा चुका है कि हिमालय और बिंध्य के बीच टेसिथ सागर था। करोड़ों साल पहले अफ्रीका से टूटा भू-प्लेट (श्रीलंका से अफगानिस्तान तक भारतीय उपमहाद्वीप) धीरे-धीरे तिब्बत-चीन के भू-प्लेट से आ टकराया। टेसिथ सागर का तल हिमालय के रूप में ऊपर उठता गया, जो आज भी हर साल दो ईंच ऊपर उठ रहा है।
अगस्त्य और बिंध्य की पौराणिक कथा से जाहिर है कि ऋग्वेद की रचना अगस्त्य-पद-परंपरा के समय आरंभ हो चुकी थी। दूसरा अर्थ यह है कि दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर विचारशील सुसंस्कृत मानव समुदाय का प्रवजन हुआ। खगोल-गणना बताता है कि सप्तऋषि समूह का अगस्त्य तारा 7200 वर्ष पूर्व सोनघाटी क्षेत्र (कैमूर-बिंध्य-छोटानागपुर) के ऊपर आकाश में था। संभवत: उसी समय सप्तऋषि तारा समूह में से एक का नाम अगस्त्य के सम्मान में रख दिया गया होगा। प्राचीन शब्द ति-र-मि-ड़ आज का तमिल है, जो संस्कृत भाषा में द्रविड़ शब्द बनकर समाहित हुआ। यही तिरमिड़ यानी द्रविड़ सोनघाटी में अपना ठिकाना बनाने के बाद राखीगढ़ी होते हुए सरस्वती-सिंधु घाटी में पहुंचे थे। सिंधुघाटी में द्रविड़ों के बाद सैंधव सभ्यता वाली जाति का वर्चस्व बढ़ा, जिसने द्रविडों को अनासा:, मृघ्रवाचा:, शिशनदेवा कहा। 1915 में पुराविज्ञानी शरतचंद्रराय ने स्थापना दी थी कि कैमूर-बिंध्य पर्वत पर 4000 साल से पहले द्रविड़ भाषी उरांव किष्किंधा (कोंकण क्षेत्र) से पहुंच चुके थे और ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्ध काल तक उनकी सत्ता थी। दरअसल भारत के प्रमाणपूर्ण सिद्ध इतिहास से पहले के अलिखित या स्थापत्य साक्ष्य से विहीन आद्य और प्राग इतिहास को जानने-समझने के लिए वेद की ऋचाओं, महाकाव्यों, पौराणिक कहानियों, लोककथाओं, लोकगीतों को भी टटोलना होगा और उनसे, पुराने समय से, भरसक तर्कसम्मत इतिहास तत्व ग्रहण कर नए प्राप्त साक्ष्यों से, दूसरे देशों की पुरातात्विक खोजों से भी संगति बैठानी होगी। क्योंकि, संस्कृति स्थानीय होकर भी उसका प्रसार तो एक-से दूसरी जगह अर्थात वैश्विक (एक से दूसरे भूभाग) ही होता है।

धातु का प्रयोग नहीं, मगर चाक चलाना जानते थे सिंदुआर वासी :

(सिंदुआर से प्राप्त नव पाषाण काल की पुरा-सामग्री)

कैमूर पहाड़ से निकलने वाली छोटी नदी कुदरा की पर्वतीय तलहटी में स्थित सिंदुवार या सेनुवार टीला से नवपाषाण काल से कुषाण काल तक के पुरा सामग्री प्राप्त हुई हैं। कोई पांच हजार साल पहले बांस और सरकड़ों की मिट्टी की लेप वाली झोंपडिय़ों में रहने वाले सिंदुवार वासी जौ, बाजरा, कोदो, खेसारी, मूंग, मटर, चावल की खेती करना जानते थे। वह चाक पर बने मिट्टी के बर्तन का और मछली फंसाने के लिए तांबे की बंसी (कांटा) का भी इस्तेमाल करते थे। मगर खेती करने वाले प्राचीन सिंदुवारवासी के इनसे भी सदियों पुराने पुरखे चाक से बर्तन बनाना नहीं जानते थे और उनके पास धातु के सूक्ष्म उपकरण नहीं थे, क्योंकि जमीन की गहराई में हस्तनिर्मित मृदभांड और हड्डी के सूक्ष्म उपकरण (सूई आदि) प्राप्त हुए हैं। कोई पांच हजार साल पहले खेती करने वाले सिंदुवारवासी के सदियों बाद के वंशधर अपने घरों में शंख, कौड़ी और एंगेट पत्थर से सजावटी सामग्री कुटीर उद्योग की तरह निर्मित करते होंगे, क्योंकि सीमित उत्खनन के बावजूद ऐसी पूर्ण-अर्द्ध निर्मित वस्तुएं बड़ी संख्या में मिली हैं। डा. वीरेंद्र प्रताप सिंह ने अपने उत्खनन के फुट-नोट में लिखा था- ‘दक्षिण बिहार के इस भौगोलिक क्षेत्र (सेनुवार) में फेयान्स स्लैग (उद्योग) की उपस्थिति से सेनुवार का महत्व बढ़ जाता है। बिहार के उत्तरी भाग में चिरांद नामक स्थान पर नव पाषाण कालीन अवशेष प्राप्त हुए थे, जिसके प्रसार, सन्निवेश आदि के विषय में समुचित शोध के अभाव में ज्ञान अत्यल्प ही बना रहा’।
सिंदुवार या सेनुवार का सीमित उत्खनन 1985-86, 1986-87 और 1989-90 में वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के प्रो. (डा.) वीरेंद्र प्रताप सिंह ने किया था। सिन्दुवार उत्खनन ने इस धारणा को पुख्ता बनाया कि सोन-गंगा संगम पर स्थित भारत का बहुख्यात नव पाषाणकालीन चिरांद तक आदमी (होमोसैपियन) कैमूर-बिंध्य और सोन के ऊपरी हिस्से ही अपनी सभ्यता-यात्रा आरंभ कर पहुंचा था। आदमी के कैमूर पर्वत से उतरने और कैमूर की उपत्यका में प्रवाहमान सोन नदी के दोनों किनारों पूरब में औरंगाबाद जिला के नाऊर, रिऊर, जम्होर, पवईगढ़, कुटुम्बा, लारी (अरवल जिला), सोन-कोयल संगम पर कबराकलां आदि और पश्चिम में रोहतास जिला के रोहतासगढ़, सकास, सिंदुवार, बांदू, तुम्बा, तुतला (तिलौथू), लेरूआ, देहरीघाट, अर्जुनबिगहा, घरी, लिलारी, करूर (भोजपुर जिला) आदि चिरांद तक पहुंचने से पहले के सांस्कृतिक प्रसार के पग-क्रम हैं। 784 किलोमीटर लंबी सोन नदी के बिनिगांव (भोजपुर) के निकट गंगा नदी में मिलने के स्थान के उस पार सारण जिला में प्रागैतिहासिक गांव चिरांद है, जहां सोनघाटी के लोग कैमूर पहाड़ से उतरकर उत्तर की ओर सोन नदी के किनारे-किनारे अपना स्थान बदलते हुए सोन-गंगा संगम (चिरांद) तक पहुंचे थे। देश-दुनिया का नवपाषाण काल का प्रथम ज्ञात-स्थल है।

सोनघाटी में 74000 वर्ष पूर्व पहुंच चुका था होमोसैपियन :

(कैमूर की तलहटी में सकास से उत्खनन में मिले नरकंकाल)

अंतरराष्ट्रीय शोध का नया साक्ष्य यह बता रहा है कि होमोसैपियन अफ्रीका से 74 हजार से पहले भारतभूमि पर आ चुका था और सोनघाटी के मध्य भाग में मौजूद था। अर्थात धारदार माइक्रो लिथ (सूक्ष्म पत्थर औजार) बनाने के मध्य पाषाण युग से पहले भोथरा पत्थर औजार के पुरा पाषाण काल में भी होमोसैपियन (मौजूदा आदमी) का पुरखा सोनघाटी का बाशिंदा था। यह निष्कर्ष मार्च 2020 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. माइकल पेट्रोगेलिया, डा. माइकल होसल्म, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के डा. एके दुबे, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. जेएन लाल आदि द्वारा मध्य सोनघाटी के ढाबा, घाघरिया, बघोर, रामपुर में उत्खनन के बाद सामने आया है। भूविज्ञानी मार्टिन विलियम और एम क्लार्क ने दुनिया का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट कराया था कि जब सुमात्रा के टोबा ज्वालामुखी के भयानक विस्फोट के बाद अन्य जीव प्रजाति सहित आदमी (होमोसैपियन) भी बड़े पैमाने पर नष्ट हो गए, तब होमोसैपियन भारत में कैसे बचा रहा? टोबा ज्वालामुखी विस्फोट गुजरे 20 लाख सालों में सबसे भयानक था। सोनघाटी के मध्य भाग के उत्खनन में टोबा विस्फोट का राख भी पाया गया और उस राख की परत के नीचे पाषाण युग के पत्थर के औजार भी पाए गए हैं।
डीएनए अध्ययन के हिसाब से एक आरंभिक निष्कर्ष यह है कि अफ्रीका से 60-70 हजार वर्ष पहले निकले मानव-समूह के वंशधरों ने हड़प्पा संस्कृति स्थापित की। सरस्वती-सिंधु घाटी सभ्यता काल के सबसे बड़े केेंद्र राखीगढ़ी (हरियाणा) से प्राप्त 4200 वर्ष पूर्व की महिला के कंकाल के डीएनए परीक्षण के बाद निष्कर्ष निकाला गया है कि अंडमान से अफगानिस्तान तक के बाशिंदों के जीन 4-5 हजार पहले से 10-12 हजार साल पहले तक एकसमान रहे हैं। हड़प्पा और राखीगढ़ी के कंकालों से यह गुत्थी सुलझाई जानी बाकी है कि भारतभूमि में आदमी की आंत में कितने हजार साल पहले दूध पचाने की क्षमता पैदा हुई? अर्थात, आदमी शिकारी से दूध पीने वाला पशुपालक कब बना? जैसा कि 2007 में अनेक देशों की 51 प्राचीन जनजाति समूह के डीएनए परीक्षण से एक बार फिर पुष्टि हुई कि वास्तव में आदमी (होमोसैपियन) अफ्रीका से ही पूरी दुनिया में विस्तृत हुआ। इस परीक्षण में पाया गया कि पूर्वी अफ्रीका के एक आदिवासी-समूह की महिला कम-से-कम 58 हजार साल पहले बैक्टर-पायलोरी जीवाणु से संक्रमित थी। यह जीवाणु (बैक्टर-पायलोरी) आज भी आदमी के पेट में बना हुआ है, जो अल्सर रोग होने का एक कारक है।
इसी तरह रोहतास जिला के कैमूर पर्वत की तलहटी के गांव सकास से प्राप्त नरकंकालों के विस्तृत अध्ययन से यह पुख्ता तौर पर निश्चित किया जा सकेगा कि सोनघाटी या कैमूर-बिंध्य की उपत्यका में कब, किस तरह की मानवीय गतिविधियां थीं? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के डा. विकास कुमार सिंह के निर्देशन में डा. रवीन्द्रनाथ सिंह की टीम ने सकास में 2017 से कई बार सर्वेक्षण के बाद 2019 में उत्खनन का कार्य संपन्न किया, जहां से 06 नरकंकाल बरामद किए गए। प्रथम दृष्टि में नरकंकालों को चार हजार साल से अधिक पुराना माना गया है। लखनऊ के बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट आफ पैलियो साइंसेस के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. नीरज राय ने डीएन परीक्षण के लिए सभी नरकंकालों का नमूना संग्रह किया है। पुणे स्थित डेक्कन कालेज आफ पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट के पुुरा-जंतु वैज्ञानिक प्रो. पीपी जोगलेकर ने भी 2019 में सकास में स्थल सर्वेक्षण किया था।

यूरोप वासी एशियाइयों के वंशज और अंडमान वासी एशियाइयों के पुरखे :

(अर्जुनबिगहा, रोहतास के टीले में जमींदोज है प्राचीन सभ्यता)

डीएनए अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि आज की अधिसंख्य यूरोपीय जनजातियां प्राचीन एशियाई शिकारी जनजाातियों के वंशज हैं, जो 15-20 हजार साल पहले मध्य एशिया के रास्ते यूरोप की ओर निकल गई थीं। दो दशक पहले ब्रिटेन की विज्ञान पत्रिका ‘कंरट बायोलाजी’ में मध्य एशिया और यूरोप की प्राचीन जनजातियों (होमोसैपियन) के 1007 पुरुषों के वाई-क्रोमोसोम का अध्ययन प्रकाशित हुआ था। यह शोध वर्ष 2002 में नार्वे विश्वविद्यालय (ओस्लो) के डा. एरिक हेगलबर्ग के नेतृत्व में भारत, अमेरिका और न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों ने किया था। इसमें भारत के अंडमान द्वीप की तीन अति प्राचीन जनजातियों के रक्त-बाल का डीएनए का अध्ययन भी शामिल था। अंडमान के घने जंगलों में पूरी तरह प्राकृतिक अवस्था (नंग-धड़ंग) में रहने वाली पृथ्वी की इन तीनों अति प्राचीन जनजातियों (होमोसैपियन) के बाल और रक्त के नमूनों का संग्रह वर्ष 1906-1908 में ब्रिटिश वैज्ञानिक रेडक्लिफ ब्राउन ने किया था। डीएनए अध्ययन से यह भी तय किया जा चुका है कि अंडमान की प्राचीन जनजातियां पूरे एशिया में सबसे पुरानी हैं। इसका अर्थ है कि अंडमान के आदिम बाशिंदे समूचे एशियावासियों के पुरखे हैं। अंडमान के जंगल में नंग-धड़ंग रहने वाली पृथ्वी की चार अति प्राचीन जनजाति (होमोसैपियन) समुदाय में से किसी को भी आग जलाने नहीं आता। इससे पता चलता है कि इन जनजातियों के अफ्रीका से आकर अंडमान में ठहरने के बहुत बाद किसी कालखंड में आदमी (होमोसैपियन) ने आग का आविष्कार किया।

सोनघाटी वासियों की डीएन समानता चेंचू जनजाति के निकट :

(हीरामन कोरवा शब्द-संग्रह के साथ)

हर संतान के डीएनए में माता से माइटो-कांडियल और पिता से वाई-क्रोमोसोम स्थानांतरित होता है, जिनमें निश्चित दर से बदलाव होता है। इस वैज्ञानिक आधार पर सोनघाटी के कुड़ुख भाषियों (शब्बरों, उरांवों आदि), कोरवा भाषी के डीएनए की समानता दक्षिण भारतीय द्रविड़ भाषी प्राचीन चेंचू जनजाति (आंध्र प्रदेश) से सबसे अधिक पाई गई है। इनकी अधिक समानता झारखंड की प्राचीन जनजाति (कोरवा, बिरहोर आदि) और उड़ीसा की प्राचीन जनजाति जुआंग से भी है। दक्षिण भारत के द्रविड़ (उरांव) सभ्यता-यात्रा-क्रम में हजारों वर्ष के कई चरणों से गुजरते हुए सोनघाटी से पश्चिम भारत में सरस्वती-सिंधु की घाटी में पहुंचे, जहां इनका बाद में किसी पुरानी जनजाति से रक्त मिश्रण हुआ। भाषा विज्ञान के आधार पर अनुमानत: रक्त मिश्रण मौजूदा असुर-मुंडारी भाषा-भाषियों के पुरखों से हुआ।
कोई 70 हजार साल पहले आदमी (होमोसैपियन) के भारत भूमि पर अफ्रीका से प्रथम पलायन की लोककथा (अंडमान की एक पुरानी कहानी) प्रख्यात भाषाविद डा. अन्विता अब्बी ने अंडमान में 21 जनवरी 2006 की रात लिपिबद्ध की थी। उस लोककथा को ग्रेट अंडमानी बोली (बो) बोलने वाले नाओ जुनियर (मृत्यु 2009) ने सुनाई थी। इस तरह भाषा, पौराणिक गाथा, धार्मिक संस्कार, संस्कृति, लोकगीत, लोक साहित्य, लोक संगीत, विज्ञान की विभिन्न शाखाओं (भू, नृ, जीव, पुरातत्व, पर्यावरण, खगोल आदि) के नजरिये से यही तस्वीर सामने आती है कि मानव सभ्यता की अति आरंभिक धारा सोनघाटी क्षेत्र में पल्लवित-पुष्पित हुई और हजारों सालों में यही से प्रसरित होकर हजारों मील दूर पृथ्वी की विभिन्न दिशाओं में पहुंची। चाहे हम प्राग-इतिहास, आद्य-इतिहास और सिद्ध-इतिहास के अलग-अलग काल में मनुष्य-समूह को जिस नाम से जानते हों, मगर ध्रुव सत्य यही है कि जीवित कोष से ही प्राणी पैदा होता है। सभी मानव जातियां एक ही कुल-खानदान से ही निकली हुई हैं। पूर्ववर्ती मनुष्य-जाति (होमोसैपियन) से ही परवर्ती मनुष्य-जाति (होमोसैपियन) का विकास हुआ है। इसीलिए भूतकाल के किसी भीषण बाढ़ या आकस्मिक भू-परिवर्तन या पर्यावरण परिवर्तन के कारण हुए जल-प्रलय से अपने वंशधरों को नाव से सुरक्षित बचाने और अपना वंश चलाने की आदिम कथा एशिया, यूरोप की सभी प्राचीन सभ्यताओं में मौजूद हैं।

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