7. तिल-तिल मरने की दास्तां (किस्त-7)

डालमियानगर पर,तिल तिल मरने की दास्तां धारावाहिक पढ़ा। डालमियानगर पर यह धारावाहिक मील का पत्थर सिद्ध होगा। यह धारावाहिक संग्रहणीय है।अतित के गर्त में दबे हुए, डालमियानगर के इतिहास को जनमानस के सामने प्रस्तुत करने के लिए आपको कोटिश धन्यवाद एवं आभार प्रकट करता हूं। आशा है आगे की प्रस्तुति इससे भी अधिक संग्रहणीय होगी। 

 –अवधेशकुमार सिंह, कृषि वैज्ञानिक, स.सचिव,सोनघाटी पुरातत्व परिषद,बिहार 

– by Awadesh Kumar Singh e-mail


on FaceBook  kumud singh  — हम लोग 10 वर्षों से मैथिली मे अखबार निकाल रहे हैं..उसमें आपका ये आलेख अनुवाद कर लगाना चाहते हैं…हमने चीनी और जूट पर स्टोेरी की है..डालमियानगर पर नहीं कर पायी हूं…आप अनुमति दे तो लगाने का विचार था…

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7. तिल-तिल मरने की दास्तां (किस्त-7)

डालमियानगर कारखाना परिसर की स्थापना से पहले भी पांच प्रमुख कारणों से देश-दुनिया में प्रसिद्ध था बिहार का डेहरी-आन-सोन,
इसके उपनगर (डालमियानगर) का नाम था रोहतास नगर,            डालमियानगर के कारण पनप नहींसके नासरीगंज के कारोबार,                            पहले थे हरिहरगंज में कागज निर्माण के कई मिनी कारखाने

डेहरी-आन-सोन (बिहार) – कृष्ण किसलय। आज इस बात की जानकारी रखने वाला कोई जीवित नहींहै कि डालमियानगर का नाम पहले रोहतास नगर रखा गया था, जो बाद में डालमियानगर के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया, क्योंकि प्रसिद्ध देहरी घाट (डेहरी-आन-सोन) से 40 किलोमीटर दूर कैमूर पहाड़ पर प्राचीन काल का विराट किला रोहतासगढ़ बहुत मशहूर था और इस इलाके के लोगों के सांस्कृतिक जीवन से गहराई से जुड़ा हुआ था।

हालांकि वर्ष 1933 तक डालमियानगर कारखान परिसर की स्थापना से पहले डेहरी-आन-सोन पांच प्रमुख कारणों से देश व दुनिया में जाना जाता था और जिन कारणों से इसकी चर्चा होती थी, उनमें से एक था इसी स्थान (देहरी घाट) पर पेशावर (पाकिस्तान) से कोलकाता को जोडऩे वाला से भी आगे तक (तक्षशिला से ताम्रलिप्ति तक) प्राचीन काल का दक्षिणापथ (ग्रैंड ट्रंक रोड या अब नेशनल हाइवे-2)। यह मौर्य काल से चला आ रहा यह राजपथ पहले सोन नदी के भीतर होकर गुजरता था। सोन के बेसिन में ढाई मील लंबा पत्थरों का रास्ता (काज-वे) था, जिससे होकर ही वाहनों (रथ, बैलगाड़ी, हाथी, घोड़े, ऊंट और बाद में मोटरगाड़ी) को पार करना होता था। पांच सौ साल पहले शेरशाह ने नदी के इस रास्ते का जीर्णोद्धार किया था।

सबसे लंबा सड़क पुल, एशिया का सबसे बड़ा रेलवे ब्रिज 
तब सोन नदी पर 1965 में चालू हु्आ उस वक्त का देश का सबसे लंबा सड़क पुल (जवाहर सेतु) नहींथा, मगर सोन नदी पर वर्ष 1900 में चालू हुआ 93 पाये का 10052 फीट लंबा रेलवे ब्रिज (तब दुनिया का दूसरा और एशिया का सबसे बड़ा ब्रिज) डालमियानगर की स्थापना से 33 साल पहले बन चुका था। उस समय डेहरी-आन-सोन के सोन नदी पर बना रेलवे ब्रिज से 475 फीट अधिक लंबा टे-ब्रिज ही दुनिया में सबसे लंबा (10527 फीट) पुल था। इस रेलवे ब्रिज और देश के सबसे लंबे मार्ग ओल्ड जीटी रोड के सोन नदी के भीतर (बेसिन) से होकर गुजरने के अलावा डेहरी-आन-सोन की उस समय की प्रसिद्धि के दो और बड़े कारण थे विश्वविश्रुत सोन नहर प्रणाली और सिंचाई यांत्रिक कर्मशाला।

देहरी घाट से निकली विश्वविश्रुत सोन नहर प्रणाली, चलते थे पांच हजार जलपोत
उस समय सिंचाई विभाग सबसे महत्वपूर्ण सरकारी विभाग हुआ करता था, जिसके अधीन देहरी घाट से दक्षिण एनिकट से निकली सोन नहरें विश्वविश्रुत थीं। देहरी घाट के प्रसिद्ध होने का प्रमुख कारण एनिकट में विशाल बोट यार्ड भाप इंजन से चलने वाली स्वचालित छोटी स्टीमरों (नावों) का पड़ाव और प्रस्थान स्थल का होना था। उस वक्त सोन नदी की दोनों तरफ से निकाली गईं मुख्य नहरों में यात्री व माल वाहक भाप से चलने वाली करीब पांच हजार स्टीमरें (लोहे की नावें) चलती थीं। इन पांच हजार जलपोतों के आवागमन से एनिकट मिनी बंदरगाह जैसा दिखता था। और यहां था पत्थर, लकड़ी और लोहे के विभिन्न उपकरण बनाने वाला सिंचाई विभाग का तब देश में सबसे बड़ा यांत्रिक कारखाना, जो इस स्थान के मशहूर होने की चौथी प्रमुख वजह थी।

1782, 1889 में बिना युद्ध मारे गए अंग्रेज फौजी
सोन नदी के बेसिन मार्ग (काउज-वे) के 18 फीट चौड़े और करीब चार किलोमीटर लंबे पत्थर के पुल को छोड़कर सोन नहर, सिंचाई यांत्रिक कार्यशाला, बोट यार्ड और रेलवे-ब्रिज भारत के आधुनिक काल में अंग्रेजी सरकार द्वारा बनाए गए थे। और, अंग्रेजों द्वारा इन सबको बनाने की वजह थी 1859 के विद्रोह की घटना, जिसमें अंग्रेजों की 77वीं रेजीमेंट (बटालियन) के फौजियों को पीछे से हमला कर मार डाला गया था। 1782 के बाद बिना युद्ध लड़े अंग्रेजों के लिए यहां यह दूसरा बड़ा नुकसान था, जो सोन नदी से जुड़ा हुआ था। 1782 में अंग्रेजों का मुखर विरोध करने वाले देश में अंग्रेजी राज के प्रथम विद्रोही राजा नारायण सिंह ने अंग्रेजी फौज के तीन सौ लोगों से भरी नावों को सोन नदी में देहरी (पश्चिम में) और बारुण (पूरब में) के घाटों के बीच डुबो दिया था। 1857 और उससे भी पहले से अंग्रेजों के विरुद्ध लगातार जारी स्थानीय जमींदारों व आम जनता साझे विद्रोह के क्रम में 1889 में मारे गए अंग्रेज फौजी अफसरों की कई कब्रें आज भी डेहरी-सासाराम के बीच ओल्ड जीटी रोड के दक्षिण किनारे पर अदमापुर गांव के निकट और अन्य स्थान पर देखी जा सकती हैं।

प्राचीन काल में नागवंशियों का गढ़ सोनघाटी
हालांकि भारतीय महाद्वीप में नद की संज्ञा प्राप्त तीन बड़ी नदियों सोन, सिंधु व ब्रह्म्ïापुत्र में से एक सोन पर स्थित प्रसिद्ध देहरी घाट अति प्राचीन काल के दक्षिणा पथ का प्रवेश-द्वार होने के कारण देश भर में जाना जाता था, जहां का झारखंडी मंिदर (एनिकट) तब एक अति महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल था और जहां कार्तिक पूर्णिमा व मकरसंक्रांति के अवसर पर इसके पाश्र्व स्थल में (घने जंगल को काटकर अंग्रेजी सेना के लिए पड़ाव मैदान बनने तक) बहुत बड़ा मेला लगता था। वहीं मेला बाद में देश-काल-परिस्थिति के कारण सिकुड़कर माहवारी व फिर हफ्तावारी बाजार में बदलते हुए डिहरी बाजार के रूप में तब्दील हो गया। सोन नदी पर होने की वजह से ब्रिटिश सरकार ने देहरी घाट रेलवे स्टेशन का नाम डेहरी-आन-सोन कर दिया।
अंग्रेजों के आगमन के बाद तक सघन जंगल
अंग्रेजों के आगमन से पहले तक डेहरी-आन-सोन के इलाके मेंं इतना सघन जंगल था कि दिन में भी यात्रा करना कठिन था और हाथी पर सवार होकर यात्रा कर ही इस जंगल के हिंसक पशुओं से बचा जा सकता था। अत्यंत घने जंगल की वजह से ही 1812 में सामाजिक-सांस्कृतिक सर्वेक्षण करने वाले सर्वेयर डा. फ्रांसिस बुकानन देहरी घाट के रास्ते होकर रोहतास किले तक नहीं गए थे। डा. बुकानन के देहरी घाट से नहींगुजरने की दूसरी वजह यह थी कि अति प्राचीन नागवंशी जातियों का दिकुओं (दूसरी जातियों या गैर आदिवासी-वनवासियों-आदिवासियों) के प्रति विरोध का तीखा तेवर विरल आबादी वाले इस क्षेत्र में उस समय तक बरकरार था। डेहरी-आन-सोन के पश्चिमी पाश्र्व में मौजूदा गांव तेंदुआ, भेडिय़ा का नामकरण भी 19वींसदी घनघोर जगंल होने का साक्षी है। इससे यह भी जाहिर है कि इस क्षेत्र के आज वनहीन होने की वजह डालमियानगर के बाद तेजी से हुआ औद्योगिकीकरण और जनसंख्या वृद्धि भी है।

अति प्राचीन दक्षिणापथ का प्रवेशद्वार था देहरी घाट
डेहरी-आन-सोन आधुनिक भारत के इतिहास में पूरब (भारतीय) और पश्चिम (अंग्रेजी) की सभ्यताओं का ही संघर्ष व संधि स्थल नहींबना, बल्कि यह क्षेत्र प्राचीन और मध्य काल में भी भारतीय उप महाद्वीप व इससे बाहर के विभिन्न जाति या मानव समूहों का संघर्ष व संधि स्थल रहा है। आर्यावर्त (उत्तर भारत का एक प्राचीन नाम) से दक्षिणापथ (दक्षिण भारत का एक प्राचीन नाम) में आने-जाने के इस प्राचीन मार्ग के कारण ही सोन नदी के इस स्थल का नाम देहरी घाट था। देहरी का अर्थ दरवाजा या प्रवेशद्वारा होता है। बौद्ध धर्मावलंबियों के इस गढ़ में इस धर्म के तिरोहित हो जाने के बाद हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा अपना लिया गया झारखंडी मंदिर इसी देहरी घाट (डेहरी-आन-सोन) के ठीक किनारे स्थित भारत की आदिम या अति प्राचीन जाति नागवंशियों का पूजा-स्थल था। प्राचीन काल में नागवंशियों का आधिपत्य सोनघाटी क्षेत्र से गंगाघाटी क्षेत्र तक विस्तृत था। वे वहींनागवंशी थे, जिनकी वीरता के कारण कृष्ण को मथुरा (उत्तर प्रदेश) छोड़कर द्वारिका (गुजरात) में बसना पड़ा था। नागवंशियों के प्राचीन प्रताप का सबूत आज भी हिमालय की तलहटी में बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के नगीना में मौजूद एक अन्य झारखंडी मंदिर है, जो लुप्तप्राय व अल्पज्ञात स्थिति में है।
नासरीगंज-हरिहरगंज था औद्योगिक हब
जब उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया और जयदयाल डालमिया 1931-32 में डेहरी-आन-सोन (जिसका उपनगर डालमियानगर बना) पहुंचे थे, तब डेहरी-आन-सोन से बड़ी जनसंख्या वाला गांव इससे 25 किलोमीटर दूर सोन नदी के किनारे आबाद नासरीगंज था। वर्ष 1921 में नासरीगंज की आबादी 5332 थी और देहरी (डेहरी-आन-सोन) की आबादी 3245 थी। नासरीगंज (महाल) 1867 से ही पूरी तरह अंग्रेजी राज के अधीन था और अंग्रेज सरकार के अधीन इस स्टेट मेेंं लघु उद्योगों का हब हरिहरगंज मेें था, जो नासरीगंज महाल से सटा इसी का हिस्सा था। हरिहरगंज में डालमियानगर के चीनी मिल स्थापित होने से पहले 42 बड़े कोल्हू (चीनी बनाने के मिनी कारखाने), कागज बनाने के 21 लघु उद्योग और सोन नहर के पानी की धारा से चलने वाला अपने वक्त का दूर-दूर के गांवों तक मशहूर तेल-दाल मिल था। 1872 में हरिहरगंज के हस्त कागज कारखानों में 10 विभिन्न क्वालिटी के 1293 रीम कागज तैयार किए गए थे, जो बनारस के बैंकों में इस्तेमाल के लिए बेचे गए थे। 1870 में श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल) में देश का पहला मशीन निर्मित कागज कारखाना लगने के बाद हरिहरगंज सहित अन्य जगहों पर हस्त निर्मित कागज का महत्व घटने लगा था। उस समय हरिहरगंज में सात हजार बुनकरों के परिवार थे, जिनके पास 7950 लूम (करघा) थे।
बिहियां में लगा लोहे का पहला कोल्हू मिल
हालांकि दो यांत्रिक अभियंताओं थामसे और माइले ने 1874 में ईख पेरने का लोहे का रोलर मिल का आविष्कार किया था और बिहियां गाव (भोजपुर जिला) में लोहे का पहला रोलर मिल लगा था, जिसके बाद सोनघाटी के इस इलाके में ईख की खेती और चीनी के कारोबार का विस्तार हुआ। थामसे और माइले संभवत: सिंचाई यांत्रिक कर्मशाला के ही अभियंता थे, क्योंकि लोहे के रोलर वाली पहली कोल्हू मिल की बिहियां में लगाने की वजह यही हो सकती है।
बहरहाल, 1933 में डालमियानगर में बड़े चीनी मिल के चालू होने और फिर इसके विशाल औद्योगिक परिसर में बदल जाने के कारण नासरीगंज-हरिहरगंज के लघु उद्योगों का ह्रास होता चला गया। यह कैसी विडम्बना है कि जिस डालमियानगर की वजह से पुराने जमाने के नासरीगंज-हरिहरगंज की औद्योगिक पहचान खत्म हो गई, उसी डालमियानगर के एशिया प्रसिद्ध विशाल आधुनिक कारखाने पारिस्थितियों की बली चढ़कर खत्म हो गए।
(आगे भी जारी बिहार के सबसे बड़े और देश-दुनिया के प्रमुख उद्योगसमूह रोहतास इंडस्ट्रीज, डालमियानगर की स्थापना से मृत होने तक की कहानी)

 

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