9.तिल-तिल मरने की दास्तां (किस्त-9

बिहार के डालमियानगर गोली कांड के पांच महीने बाद रोहतास इंड़स्ट्रीज के कर्मचारियों ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भेजा पत्र, न्यायाधीश पीएन भगवती ने उसे ही माना रिट पिटीशन और केन्द्र व राज्य सरकारों को जारी की नोटिस,

वरिष्ठ अधिवक्ता आरके गर्ग ने न्यायालय में रखा तर्क कि हजारों-लाखों की रोजी-रोटी छिनना कत्ल जैसा जघन्य कांड, अचानक हुई आरके गर्ग की सड़क दुर्घटना में मौत, इसके बाद मामले ने ले लिया कोर्ट में अलग मोड़,

अशोक जैन ने शपथपत्र देकर न्यायालय व रोहतास इंडस्ट्रीज से छुड़ा लिया अपना पिंड

डेहरी-आन-सोन (बिहार) – कृष्ण किसलय। जब 19 सितम्बर 1984 को (09 जुलाई 1984 के तीन महीने बाद) प्रबंधन की ओर से दूसरी बार रोहतास इंडस्ट्रीज में पूर्ण तालाबंदी की नोटिस टांगी गई, तब डालमियानगर के कारखानों को चालू करने की मांग का मजदरों का आंदोलन स्वत:स्फूर्त परवान चढऩे लगा था और एक महीने बाद 20 अक्टूबर को आंदोलनकारी कर्मचारियों ने डेहरी-आन-सोन रेलवे स्टेशन पर रेल यातायात ठप कर दिया था। पुलिस ने पहले लाठी चार्ज किया तो आंदोलनकारियों की ओर से जबर्दस्त प्रतिकार किया गया। भीड़ को तितर-बितर करने की आड़ लेकर पुलिस ने गोलियां चलाईं। पुलिस की फायरिंग में दो नवयुवक द्वारिका प्रसाद व दुखी राम मारे गए। द्वारिका प्रसाद कागज कारखाना के कर्मचारी हरिहर साह का और दुखी राम डेहरी-आन-सोन के मोहन बिगहा के श्यामकिशोर राम का पुत्र था।
गोली कांड के पांच महीने बाद रोहतास इंड़स्ट्रीज के 30 कर्मचारियों ने बकाए वेतन, प्राविडेंट, ग्रेच्यूटी आदि के भुगतान के लिए 08 अप्रैल 1985 को डालमियानगर डाकघर से उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नाम एक आवेदन (रजिस्टर्ड लेटर) भेजा। मुख्य न्यायाधीश वाईबी चंद्रचूड़ ने उस आवेदन को लोक परिषद के अध्यक्ष पीएन भगवती को अग्रसारित कर दिया, जिसे ही न्यायाधीश पीएन भगवती ने रिट पिटीशन (याचिका) मान लिया। सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार कार्यालय में डालमियानगर के कर्मचारियों की वह याचिका (रिट पिटीशन) 12 अगस्त 1985 को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध हुई। सुप्रीम कोर्ट द्वारा डालमियानगर के कर्मचारियों की ओर से निशुल्क अधिवक्ता बहाल कर केेंद्र सरकार और राज्य सरकार को नोटिस जारी की गई।

कर्मचारियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आरके गर्ग ने न्यायालय में यह तर्क रखते हुए इस मामले की बहस को आगे बढ़ाया कि रोहतास इंडस्ट्रीज के प्रबंधन ने हजारों-लाखों के जीवन की रोजी-रोटी छिनकर कत्ल करने जैसा जघन्य कांड किया है। मगर अचानक आरके गर्ग की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। आरके गर्ग की आकस्मिक मौत के कारण भी इंदिरा गांधी हत्याकांड के व्यवधान की तरह रोहतास इंडस्ट्रीज के कोर्ट में विचारधीन मामले ने अलग रूप ले लिया।

सुप्रीम कोर्ट मेंं प्रबंधन की तालाबंदी को अवैध घोषित होने का विषय ही बदल गया। यही नहीं, पूर्ण तालाबंदी की नोटिस निकालने के बाद कंपनी प्रबंधन द्वारा करोड़ों रुपये का कारखानों में तैयार माल को निजी जेब में रख लेने का मामला भी कोर्ट में दब गया। दो महीने बाद 02 अक्टूबर 1985 को उच्चतम न्यायालय ने कर्मचारियों के बकाए भुगतान का मामला (याचिका) कारखाना चलाने के विषय में बदल गया। चार महीनों बाद 05 फरवरी 1986 को सुप्रीम कोर्ट ने रोहतास इंडस्ट्रीज के प्रबंधन को यह निर्देश दिया कि वह कर्मचारियों की बाकी रकम का भुगतान दो-दो महीनों के अंतराल पर तीन किस्तों (15 मार्च, 15 मई व 15 जुलाई) करे। मगर 03 मार्च 1986 को सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई की तारीख पर कंपनी प्रबंधन की ओर से न्यायालय में यह कहा गया कि 1967 से बंद पड़े डालमियानगर परिसर स्थित रोहतास शुगर मिल के कबाड़ (कारखाने) को और डालमियानगर परिसर में तैयार पड़े माल (फिनिश्ड प्रोडक्ट) को बेचकर कर्मचारियों के बकाए के भुगतान का आदेश दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी प्रबंधन की यह मांग खारिज कर दी।

कंपनी जज के न्यायालय में  दायर हुई याचिका
इसके बाद 18 मार्च को कर्मचारियों की ओर से रोहतास इंडस्ट्रीज के प्रमोटर (निदेशक मंडल के अध्यक्ष) अशोक जैन और कंपनी के अन्य निदेशकों के विरुद्ध अवमानना का आवेदन कोर्ट में दाखिल किया गया, जिस पर सुनवाई की तारीख 30 जुलाई 1986 निर्धारित हुई। इसी बीच अजीत कुमार कासलीवाल नामक कारोबारी ने पटना उच्च न्यायालय के अधीन कंपनी जज के न्यायालय में यह याचिका दायर की कि तालाबंद रोहतास उद्योगसमूह के कारखानों में समापन (लिक्विडेशन) की प्रक्रिया पूरी कर आपूर्तिकर्ताओं के बकाए का भुगतान किया जाए।

पटना के कंपनी जज ने रोहतास इंडस्ट्रीज के मामले के सुप्रीम कोर्ट में चल रहे होने के कारण समापन की प्रक्रिया शुरू नहींकी, पर शासकीय समापक को रोहतास उद्योगसमूह की संपत्ति का आकलन करने का कार्य सौंप दिया। संपत्ति आकलन के आरंभ में यह जानकारी सामने आई कि कंपनी प्रबंधन ने तालाबंदी करने के बाद 90 फीसदी तैयार माल बेच दिया है। उधर, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के तीन साल बाद अगस्त 1988 में अशोक जैन ने यह शपथपत्र दायर कर न्यायालय और रोहतास इंडस्ट्रीज से अपना पिंड छुड़ा लिया कि अर्थाभाव के कारण वह डालमियानगर के कारखानों को चलाने में असमर्थ हैं।

बिहार सरकार के स्वामित्व में
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 24 अक्टूबर 1989 को 15 करोड़ रुपये में डालमियानगर के कारखानों को बिहार सरकार के स्वामित्व में सौंप दिया और यह निर्देश दिया कि बिहार सरकार 15 करोड़ रुपये बिहार योजना मद से भी अर्थात 30 करोड़ रुपये लगाकर कारखानों के पुनर्वास का कार्य करे। 1980-81 की रोहतास इंडस्ट्रीज की वार्षिक रिपोर्ट में रोहतास इंडस्ट्रीज की बुक वैल्यू 16 करोड़ 93 लाख 66 हजार 461 रुपये दिखाई गई थी, जिसे ही सुप्रीम कोर्ट ने आधार माना था। बिहार में उस समय कांग्रेस की सरकार जा चुकी थी और १० मार्च 1990 को लालू प्रसाद की सरकार आई थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बिहार सरकार ने अपने नियंत्रण में वरिष्ठ आईएएस अधिकारी संजय श्रीवास्तव को पुनर्वास आयुक्त के रूप में नियुक्त किया था।

1991 में आंशिक उत्पादन आरंभ

डालमियानगर के सिर्फ चार कारखानों (सीमेंट, एस्बेस्टस, वनस्पति व स्टील फाउंड्री) में एक-चौथाई (करीब तैंतीस सौ) कर्मचारियों को विभिन्न चरणों में काम पर बुलाया गया। 14 जनवरी 1991 को आंशिक तौर पर सबसे पहले एस्बेस्टस कारखाने में उत्पादन आरंभ हुआ। इसके बाद सीमेंट, वनस्पति और फिर स्टील फाउंड्री में भी आंशिक उत्पादन ही शुरू हुआ। 10 साल पहले (वित्त वर्ष 1981-82) के मुकाबले वर्ष 1991-92 में एस्बेस्टस कारखाने में 28 फीसदी, वनस्पति कारखाने में 12 फीसदी और स्टील फाउंड्री में 05 फीसदी उत्पादन ही हुआ था। सीमेंट कारखाने में इस साल (1991-92 में) उत्पादन ही नहींहुआ। अगले वित्त वर्ष 1992-93 में एस्बेस्टस कारखाने में 23 फीसदी, वनस्पति कारखाने में 22 फीसदी, स्टील फाउंड्री में 08 फीसदी और सीमेंट कारखाने में 05 फीसदी उत्पादन हुआ था। इसके अगले वर्ष 1993-94 में एस्बेस्टस कारखाने में 07 फीसदी, वनस्पति कारखाने में 03 फीसदी और सीमेंट कारखाने में 07 फीसदी ही उत्पादन हुआ। डालमियानगर के सबसे बड़े कारखाने कागज प्लांट को चला पाना तो संभव ही नहीं हो सका।

गोइठा (उपले) में घी की तरह सूख गए 40 करोड़ रुपये 
सुप्रीम कोर्ट ने कार्यशील पूंजी के अभाव को दूर करने के उद्देश्य से 10 करोड़ रुपये की पूंजी बतौर उधार (कर्ज) भी केेंद्र सरकार से राज्य सरकार को दिलाई। कुल 40 करोड़ रुपये की रकम खर्च कर पुनर्वास आयुक्त कारखानों को नो प्राफिट नो लास की स्थिति में भी नहींला सके। क्योंकि, सरकारी प्रबंधन के पास निजी उद्यमी जैसा अनुभव व बाजार की साख नहींथी और प्रबंधकीय विशेषज्ञता-क्षमता का भी अभाव था। राज्य सरकार के स्तर पर कंपनी संचालन की जो समिति बननी थी, उसे लालू प्रसाद की सरकार ने नहींबनाई और 40 करोड़ रुपये गोइठा (उपले) में घी की तरह सूख गए।

लालू सरकार कारखानों को चलाने में अक्षम

लालू प्रसाद सरकार की कारखानों को चलाने के लिए करीब तीन साल की कसरत फलदायक नहीं हो सकी। अंतत: बिहार सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में कारखानों को चला पाने में अक्षम होने का आवेदन दिया गया। इसके बावजूद उच्चतम न्यायालय की ओर से डालमियानगर के कारखानों को चलाने के लिए एक आखिरी कोशिश की गई। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए निजी क्षेत्र को आमंत्रित करने का फैसला किया।
(बिहार के सबसे बड़े और देश-दुनिया के एक प्रमुख उद्योगसमूह रोहतास इंडस्ट्रीज, डालमियानगर की स्थापना से मृत होने तक की कहानी आगे भी जारी)

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