विचार : सिर्फ अंकों से ही तय नहीं होती जिंदगी में सफलता की उड़ान (चंडीदत्त शुक्ल)/ कविता : कहो चीन! (अभिषेक अभ्यागत)

(चंडीदत्त शुक्ल)

इस बार भी 10वीं-12वीं के परीक्षा-परिणाम आने के बाद बेहतर अंक लाने वाले विद्यार्थियों के परिवारों में खुशी तो अंक-पैमाना में पीछे रह गए विद्याथियों के घरों में थोड़ी मायूसी का भी माहौल देखा गया। दरअसल सिर्फ अंकों से जीवन-परिणाम तय नहीं होता और ये नंबर ही जिंदगी को नंबर-वन नहींबनाते। अंकों की होड़-दौड़ में पीछे रहने के कई कारण होते हैं। एक कारण तो पाठ्यक्रम के रूप और पढ़ाई से अधिक रुचि अन्य विद्या-विधा में होना है। परीक्षा में कम अंक लाने वाले विद्यार्थियों के मनोनुकुल क्षेत्र में कड़ी मेहनत कर सम्मानजनक शिखर पर पहुंचने के अनेक उदाहरण हैं। इसी के मद्देनजर दैनिक भास्कर अहा! जिंदगी में प्रकाशित मुंबई से वरिष्ठ लेखक-पत्रकार चंडीदत्त शुक्ल (फीचर संपादक) की आवरणकथा ‘सोनमाटी’ के पाठकों के लिए सोन-धारा स्तंभ में साभार प्रस्तुत है।

पिछले सप्ताह हर ओर हाई स्कूल और इंटरमीडियट की परीक्षाओं में 90 फीसदी या इससे अधिक अंक हासिल करने वाले विद्यार्थियों को बधाई देने की होड़ देखी गई। यह अस्वाभाविक भी नहींहै। अभिभावक के साथ समाज भी बच्चों की सफलता पर ख़ुश होता ही है। लेकिन क्या आपने सोचा कि जिन सोशल कम्युनिटीज पर लोग अधिक सफल बच्चों की मार्कशीट की तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं, वहीं कम अंक लाने के बाद अवसादग्रस्त बच्चों के गलत कदम उठा लेने की भी खबरें हैं।
संपूर्ण मेधा नहीं उच्च अंक :
पिछले कुछ वक्त से एक संदेश तो काफी वायरल हो रहा है- ‘मार्कशीट तो कागज का टुकड़ा है, कुछ वक्त बाद यह दराज में रखने और बर्थ सर्टिफिकेट की तरह इस्तेमाल करने के सिवा किस काम आएगाÓ? कागज के टुकड़े के लिए क्या किसी के जिगर के टुकड़े की भावना से खिलवाड़ किया जा सकता है? यकीनन नहीं। अकादमिक परीक्षा में बच्चे अच्छे नंबर हासिल करने के लिए जी-जान लगाते हैं। उनके श्रम और सफलता को दरकिनार करना न्यायोचित नहीं है, उसे कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। एक स्तर तक औपचारिक शिक्षा पूर्ण होनी ही चाहिए। आज के प्रतिस्पर्धी समय में ‘मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथÓ जैसी स्थिति होने पर बगैर पढ़े सिर्फ हुनर और ज्ञान की बदौलत कामयाबी और सम्मान पाने की कल्पना नहीं की जा सकती। फिर भी यह सच है कि डिवीजन का दबाव किसी छात्र की संभावना को सीमित कर देना भर है। उच्च अंक किसी की संपूर्ण मेधा का पैमाना नहीं हैं। कई बच्चे पूरी कोशिश के बावजूद वांछित सफलता हासिल नहीं कर पाते। वे दोषी नहीं हैं। बस अंकों की होड़-दौड़ में जरा पीछे रह गए। इसके बहुतेरे कारण हो सकते हैं। मुमकिन है कि ऐसे छात्र-छात्राओं को परीक्षा की व्यवस्था ही समझ में न आती हो। संभव है, उनकी रुचि पढ़ाई से अधिक अन्य विद्याओं-विधाओं में हो। बाज दफा ऐसा हुआ ही है कि परीक्षाओं में कम अंक लाने वाले बच्चे जीवन में सम्मानजनक ऊंचाई तक पहुंचे हैं।
मौजूद हैं अनेक उदाहरण :
उज्जैन के सर्जन डा. दिनेश यादव नौवीं में थर्ड डिवीजन से किसी तरह उत्तीर्ण हुए थे। परिजनों ने उन्हें खेती के काम में लगा दिया। दिनेश यादव ने खराब परीक्षा परिणाम को ही अपने लिए चुनौती मान लिया। वह आज सफल सर्जन हैं। डा. यादव का मानना है कि कुछ असफलताओं से जीवन में प्रगति के रास्ते बंद नहीं हो जाते। असफलता आगे बढऩे के रास्ते तैयार करती है। गुजरात के आईएएस अधिकारी नितिन सांगवान ने बारहवीं की अपनी मार्कशीट ट्वीट कर जानकारी दी कि केमिस्ट्री में उन्हें 70 में 24 अंक मिले थे। यानी उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक 23 अंक से सिर्फ एक नंबर ज्यादा। सांगवान ने बताया कि इन अंकों से मेरी जि़ंदगी की निर्णायक दिशा तय नहीं हो गई। मैंने कड़ी मेहनत जारी रखी। छत्तीसगढ़ के आईएस अधिकारी (2009 बैच) अवनीश शरन के तो दसवीं में सिर्फ 44.5 फीसदी अंक आए थे।
बापू भी तो हुए थे अनुत्तीर्ण !
सोचिए, सांगवान और शरन अगर अंकों के फेर में उलझ जाते तो उनका व्यक्तित्व कैसे रंग-रूप में ढल पाता? गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई और बैंकिंग के क्षेत्र में उपलब्धियों के कीर्तिमान बनाने वाली इंदिरा नूई का आकलन भी यदि अंकों पर आधारित उपलब्धि के प्रमाण के रूप में होता तो उन्हें औसत से जरा-सा ही बेहतर माना जाता। शुरुआती अवरोधों के बाद सफल रही शख्सियतों के उदाहरण छोड़ दें तो भी कई लोग ऐसे हुए, जिन्होंने पूरे देश के विचारों की दिशा ही बदल दी। महात्मा गांधी इनमें अव्वल थे। राजकोट के शिक्षाविद जेएम उपाध्याय ने अपनी पुस्तक में लिखा है- ‘बापू तीसरी क्लास में 238 दिनों में सिर्फ 110 दिन स्कूल गए। एकबार अनुत्तीर्ण भी हुएÓ। आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोगÓ के विलायत की तैयारी खंड में बापू खुद बयान करते हैं कि भावनगर के शामदास कालेज में वे असहज महसूस करते थे और जब कुटुंब के पुराने मित्र और सलाहकार मावजी दवे ने उनसे पूछा- क्यों, तुझे विलायत जाना अच्छा लगेगा या यहीं पढ़ते रहना? तब बापू के शब्दों में- ‘मुझे जो भाता था, वही वैद्य ने बता दिया, मैं कालेज की कठिनाई से डरा हुआ था। मैंने कहा, मुझे विलायत भेजें तो बहुत ही अच्छा है। मुझे नहीं लगता कि मैं कालेज में जल्दी-जल्दी पास हो सकूंगाÓ।
व्यंग्य नहीं है सही रास्ता दिखाना :
स्पष्ट है कि पहले परदेस, फिर देश में संपूर्ण बदलाव की मशाल जलानेवाले गांधी जी के व्यक्तित्व की ऊर्जा किसी मार्कशीट पर दर्ज नम्बरों पर आश्रित नहीं थी। कम नंबर पाने वाले बच्चों को मां-पिता की फटकार का सामना क्यों करना पड़ता है? इसे समझना मुश्किल नहीं है। अक्सर अभिभावक अपनी अधूरी इच्छा और खंडित सपने को बच्चों के कंधे पर रखकर पूरा करना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी संतान असफल हो। मगर वे भूल जाते हैं कि हार के लिए भी हरदम तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जीवन फूलों की सेज नहीं है। अभिभावकों की बात तो दीगर है, पड़ोसी और नाते-रिश्तेदार भी कम अंक लाने वाले बच्चों पर व्यंग्य कसते हैं। हालांकि उनका तर्क होता है, हमें बच्चे के भविष्य की चिंता है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि अपमानजनक तरीके से व्यंग्य कर किसी को सही रास्ता नहीं दिखाया जा सकता। ऐसा करने वालों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि कहीं तुलना कर वे अपने मन की कुंठा मासूम बचपन पर तो उड़ेल नहीं रहेठ? ऐसे लोग परिचितों के बच्चों की रचनात्मक उपलब्धियों का बखान नहीं करते। कविता, पेंटिंग, गायन जैसी विधाओं में उल्लेखनीय प्रदर्शन को उत्साहित नहीं करते। जीवन को झुलसाने वाली कटु आलोचना का आखिर क्या मतलब है? किसी एक कालखंड के परिणाम से शेष जीवन की दिशा तय नहीं हो सकती, चाहे परिणाम किसी परीक्षा का ही क्यों नहीं हों।
विफलता को मानें प्रस्थान बिंदु :
आज की असफलता कल की कामयाबी का प्रस्थान बिंदु भी हो सकती है। आवश्यक यह है कि नई पीढ़ी जिंदगी की जद्दोजहद से जूझने के लिए तैयार रहे। खुद को विवेकवान बनाए, हालात से जूझने की काबिलियत खुद में पैदा करे। नई चीजें जानने और अमल में लाने को उत्सुक रहे। अच्छी बात है कि नौकरी और पढ़ाई में चयन के उच्च प्राप्तांक के पारंपरिक मानदंड अब धीरे-धीरे बदल रहे हैं। आईआईटी में दाखिला लेने के लिए इस साल से ही 12वीं में 75 फीसदी अंक हासिल करने की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है।
बहरहाल, सबकी उपलब्धि और मेहनत का सम्मान बना रहे, यही कामना है!

————-0———–

– कविता –
कहो चीन !

कहो चीन,
अब कौन-सा झूठ कहोगे
कह दो, जो कोरोना जैसी
वैश्विक महामारी में कहा था
कि तुम्हारे लैब से
नहीं लीक हुआ है
कोविड-नाइनटीन।
हां, ठीक रहेगा यह झूठ
कि चीन में बाढ़ से
होने वाली तबाही
जो मीडिया दिखा रही है
वह तुम्हारे देश चीन का नहीं है।
हजार-हजार घरों से
निकलने वाली लाशें
तुम्हारे देश की जनता की नहीं हैं।
सत्ताइस राज्य जो पूरा जलमग्न हैं
वे तुम्हारे देश के
राज्य नहीं हैं।
जैसे हजार झूठ
वैसे ही एक झूठ और सही
क्या फर्क पड़ता है तुम्हें चीन !

  • अभिषेक कुमार अभ्यागत
    डेहरी-आन-सोन, जिला रोहतास (बिहार)
    फोन ८४०९६३६९२३

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