सोन-घाटी में जीवंत हैं नेताजी की स्मृतियां
लेखक : कृष्ण किसलय
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया की साहित्य और संस्कृति की द्विमासिक पत्रिका -“पुस्तक संस्कृति” ने- लेखक स्वर्गीय कृष्ण किसलय के द्वारा 21 अप्रैल 2021 को भेजे गये आलेख का प्रकाशन जुलाई-अगस्त 2021 ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस विशेषांक’ पर प्रकाशित किया गया है। दुर्भाग्यवश वरिष्ठ कलमकार श्री कृष्ण किसलय का 6 जून 2021 को स्वर्गवास हो गया। यह विशेषांक आलेख निशांत राज द्वारा प्रस्तुत है।
भारत के स्वाधीनता संग्राम के सबसे उत्कट और सबसे अग्रणी सेनानी आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती के 125वेंवर्ष पर उनसे जुड़ी आठ दशक पुरानी अनेक गुमनाम, अल्पज्ञात स्मृतियां बिहार के सोन नद के पूरबी किनारे पर स्थित औरंगाबाद जिला और पश्चिमी किनारे पर स्थित रोहतास जिला के इतिहास-पटल पर भी उभर आई हैं। वह 82 साल पहले 9-10 फरवरी 1939 को औरंगाबाद (तब गया जिला) के चौरम गांव (दाउदनगर-बारून रोड) में सुभाष आदर्श उद्योग मंदिर परिसर में पहुंचे थे, जहां कांग्रेस का चतुर्थ गया जिला राजनीतिक सम्मेलन हुआ था। कार्यक्रम में पहुंचने के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस कोलकाता से पावरगंज (अब अनुग्रहनारायण रोड) रेलवे स्टेशन आए और वहां से कोई 22 किलोमीटर का सफर हाथी पर पूरा कर चौरम पहुंचे थे। इस आयोजन से जुड़ी कई स्मृतियां कोलकाता संग्रहालय में सुरक्षित हैं, जिनमें चौरम से जवाहरलाल नेहरू को लिखा गया पत्र भी है। चौरम सम्मेलन के आयोजकों में एक करमा खुर्द गांव के कुमार बद्रीनारायण सिंह द्वारा विद्यालय के लिए दी गई जमीन आज भी धरोहर है, जिसके परिसर में नेताषी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित करने की तैयारी है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने चौरम सम्मेलन के बाद औरंगाबाद के एसएन सिन्हा कालेज के निकटवर्ती गांव और जम्होर डाकबंगला (अनुग्रहनारायण रोड) में भी बैठक कर नौजवानों के दिल-दिमाग में आजादी का बिगुल फूंका था। चौरम में नेताजी के आगमन-संबोधन का तत्काल असर यह हुआ था कि करमा खुर्द (दाउदनगर) के जमींदार कुमार बद्रीनारायण सिंह, करपी (अरवल) के जमींदार दुर्गा प्रसाद सहित कई जमींदारों ने सैकड़ों एकड़ जमीन दान (लगानमुक्त) कर दी।
स्वामी सहजानंद सरस्वती थे नेताजी के बड़े आदर्श :
चौरम में गया जिला राजनीतिक सम्मेलन की अध्यक्षता देश में किसान आंदोलन के प्रणेता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की थी और कुमार नरेंद्र देव जैसी हस्ती ने किसानों-मजदूरों, स्वतंत्रता के दीवानों को संबोधित किया था। स्वामी सहजानंद सरस्वती 1934 के भूकंप के बाद मालगुजारी में राहत देने के मुद्दे पर रुख अनुकूल नहींहोने के कारण कांग्रेस से अलग हो गए थे। तब 1936-39 के बीच किसान महासभा के सम्मेलनों में कांग्रेस सम्मेलन से कहींअधिक भीड़ जुटती थी। स्वामी सहजानंद सरस्वती के प्रति सुभाषचंद्र बोस का अनुराग ऐसा था कि हरिपुरा कांग्रेस सम्मेलन में सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा टेरेबल (आतंकी) स्वामी कहे जाने पर कांग्रेस अध्यक्ष रहे सुभाषचंद्र बोस ने कड़ी आपत्ति की थी। दरअसल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में भारत में जन-जागरण और जनमत-निर्माण के दो प्रमुख केेंद्र थे, महात्मा गांधी के नेतृत्व वाला साबरमती आश्रम और स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व वाला बिहटा (पटना) का सीताराम आश्रम। मतभेद होने पर कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाषचंद्र बोस ने 22 जून 1939 को आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की और स्वामी सहजानंद सरस्वती के साथ कईसभाएं कर अपने इस क्रांतिकारी राजनीतिक मंच से स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाई। 02 जुलाई 1940 को देशद्रोह के आरोप में अपनी गिरफ्तारी से पहले सुभाषचंद्र बोस ने सहजानंद सरस्वती के साथ मेजर रिजवी की अध्यक्षता में 1940 में एक बड़ी आमसभा बिहार के रोहतास जिला में सोन नदी के तट पर स्थित डेहरी-आन-सोन के पड़ाव मैदान में की थी, जिसमें उन्होंने तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दो का आह्वान किया था। उस आमसभा का अल्प उल्लेख भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और रोहतास जिला नामक पुस्तक (लेखक गोरखनाथ विमल, प्रकाशक बृजबिहारी दुबे) में किया गया है। इसके बाद स्वामी सहजानंद सरस्वती गिरफ्तार किए गए तो फारवर्ड ब्लाक ने 28 अप्रैल को आल इंडिया सहजानंद डे घोषित किया था। फारवर्ड ब्लाक पत्रिका (अप्रैल 1940) में सुभाषचंद्र बोस ने लिखा- देश में यदि कोई क्रांति करने की, आंदोलन करने की क्षमता रखता है तो वह है सहजानंद सरस्वती। रामगढ़ में समझौता विरोधी सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष सहजानंद सरस्वती के रूप में आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक का मित्र, मार्गदर्शक मिला है। बड़ी संख्या में उनके किसान महासभा के लोग फारवर्ड ब्लाक से जुड़े हैं। भारत छोडऩे के बाद बर्लिन रेडियो से प्रसारित उनका एक ब्राडकास्ट भी सहजानंद सरस्वती को संबोधित था, जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वामी सहजानंद सरस्वती हमारी भूमि में एक नाम है, जो लाखों का नायक है।
नेताजी के संबोधन ने जगपति को बनाया आजादी का दीवाना :
नेताजी के चौरम सम्मेलन संबोधन से पड़ोस के गांव खंराटी (ओबरा प्रखंड, दाउदनगर अनुमंडल) के निवासी जगपति कुमार (पुत्र सुखराज बहादुर सिन्हा) के मन-मस्तिष्क में स्वाधीनता का बीजारोपण ऐसा हुआ कि जगपति कुमार ने तीन वर्ष बाद 11 अगस्त 1942 को सीने पर अंग्रेजों की गोली खाकर अपने छात्र साथियों के साथ तिरंगा फहराने के लिए शहादत दे दी। 1942 में जगपति कुमार बीएन कालेज, पटना में प्रथम वर्ष के छात्र थे और कदमकुआं में रहते थे। उस घटना की स्मृति में पटना सचिवालय परिसर के पूर्वी प्रवेश-द्वार पर स्थापित सात शहीदों के तिरंगा आरोहण को प्रदर्शित करती समूह-मूर्ति स्वाधीनता संग्राम में सहर्ष बलिदान की अमरकीर्ति है। इस समूह-मूर्ति में जगपति कुमार चौथे स्थान पर हैं। एक छात्र को गोली लगती तो दूसरा आगे बढ़कर तिंरगा हाथ में थाम लेता था। इस प्रकार सात छात्रों ने शहादत दी थी। शहीद जगपति कुमार के परिवार में आजादी जज्बा ऐसा था कि जगपति कुमार की मां देवरानी कुंवर ने स्वाधीनता सेनानी पेंशन लेने से इनकार करते हुए कहा था कि मेरा बेटा देश के लिए शहीद हुआ, सुविधा पाने के लिए नहीं। आज बिडंबना देखिए कि औरंगाबाद जिला के इस एकलौता शहीद के नाम पर जिला, शहर, गांव की कोई गली, मुहल्ला, स्थान नहींहै। ओबरा प्रखंड के गांव खरांटी में पुनपुन नदी के किनारे परिजनों ने अपनी जमीन में ही उनकी छोटी प्रतिमा स्थापित कर रखी है। (जैसाकि उत्कर्ष संग्रह में लेखक उपेन्द्र कश्यप ने जिक्र किया है।)
डालमियानगर में किया था सीमेंट संयंत्र का उद्घाटन :
सुभाषचंद्र बोस का उनके जन्मभूमि प्रदेश उड़ीसा के पड़ोसी प्रदेश बिहार में तीन किलोमीटर चौड़ी पाट वाली नदी सोन के दोनों किनारों के इलाकों में आना-जाना था। उनका कोलकाता-दिल्ली कनेक्शन वाले उस समय के उंगली पर गिने जाने वाले देश के बड़े उद्योगपतियों में एक रामकृष्ण डालमिया से बेहतर संबंध था, जो मुस्लिम लीग के प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना के भी मित्र थे। रामकृष्ण डालमियान ने अंग्रेज प्रकाशक से दिल्ली-मुंबई स्थित टाइम्स आफ इंडिया समूह खरीदी थी। वह राष्ट्रवादी विचारधारा के थे और स्वाधीनता सेनानियों की खुलकर मदद करते थे। इसीलिए आजादी से पहले डालमियानगर (बिहार) स्वाधीनता सेनानियों, क्रांतिकारियों का भी एक तीर्थस्थल था। रामकृष्ण डालमिया ने छोटे भाई जयदयाल डालमिया के साथ सोन नदी के पश्चिम किनारे डालमियानगर बसाकर एशिया विख्यात रोहतास उद्योगसमूह की नींव 18 मार्च 1933 को रखी थी। इसी उद्योगसमूह के सीमेंट कारखाना की एक इकाई के डेनमार्क में निर्मित प्रतिदिन 500 टन सीमेंट उत्पादक संयंत्र का उद्घाटन 03 मार्च 1938 को सुभाषचंद्र बोस ने किया था। हालांकि ढाई सौ एकड़ का चिमनियों का चमन रहा रोहतास उद्योगसमूह का कारखाना परिसर 1984 में संपूर्ण बंदी के बाद श्मशान बन गया और 2019 में इसकी हजारों करोड़ की दुर्लभ मशीनें काटकर कबाड़ के भाव महज 94 करोड़ रुपये में बेच दी गई।
दिल्ली, काबुल होकर पहुंचे बर्लिन तो हिटलर ने किया स्वागत :
देशद्रोह के आरोप में कोलकाता के प्रेसीडेंसी जेल में कैद सुभाषचंद्र बोस ने 29 नवंबर 1940 से भूख हड़ताल कर दी। उनका स्वास्थ्य ज्यादा गिर गया तो 5 दिसंबर को बंगाल के गवर्नर जान हरबर्ट ने उन्हें उनके घर (38-2 एल्गिन रोड) भेज दिया, ताकि सरकार पर जेल में मौत का आरोप नहींलगे। घर आने पर सुभाषचंद्र बोस ने भारत से पलायन की गुप्त योजना बनाई और बिजिटिंग कार्ड छपाया- मोहम्मद जियाउद्दीन (बीए, एलएलबी), ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर आफ इंडिया इश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता : सिविल लाइंस, जबलपुर। उन्होंने 17-18 जनवरी 1941 की रात परिवार के साथ आखिरी बार भोजन किया और रात डेढ़ बजे कार चालक के रूप में भजीता शिशिर कुमार बोस के साथ वांडरर कार (बीएलए 7169) से गोमो (झारखंड) आकर दिल्ली के लिए कालका मेल ट्रेन पकड़ी थी। 19 जनवरी की सुबह पुरानी दिल्ली से फ्रंटियर मेल ट्रेन से पेशावर (पाकिस्तान) पहुंचने के बाद 20 जनवरी को जियाउद्दीन का चोला उतार दिया और गूंगा-बहरा पठान का भेष धारण किया। फारवर्ड ब्लाक के दो साथियों (भगतराम तलवार, मोहम्मद शाह) के साथ 26 जनवरी 1941 को ब्रिटिश भारत की सीमा पार की और अफगानिस्तान के कबाइली इलाका में पैदल यात्रा कर काबुल शहर पहुंचकर जर्मन दूतावास से संपर्क साधा। 18 मार्च 1941 को इटली के राजदूत की रूसी पत्नी की मदद से इटालियन राजनयिक ओरलांडो मजोटा के पासपोर्ट पर अपनी तस्वीर चिपका कर सुभाषचंद्र बोस जर्मन इंजीनियर वेंगर के साथ समरकंद और फिर वहां से ट्रेन से मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंच गए, जहां हिटलर ने अंग्रेजों के इस दुश्मन नंबर-एक (सुभाषचंद्र बोस) का हाथ मिलाकर स्वागत किया।
टैगोर की कहानी बदनाम में है पलायन का मार्मिक चित्रण :
इधर, कोलकाता में सुभाषचंद्र बोस के कमरे में खाना पहुंचाने का नाटक होता रहा, ताकि अंग्रेजी सरकार के जासूसों को पलायन की भनक नहींलगे। 27 जनवरी 1940 को अदालत में 27 जनवरी 1941 को बोस के खिलाफ मुकदमे में सुनवाई होनी थी। 26 जनवरी को सुभाष के दो भतीजों ने पुलिस को खबर दी कि सुभाषचंद्र बोस घर से गायब हैं। 27 जनवरी को उनके गायब होने की खबर कोलकाता के आनंदबाजार पत्रिका और हिंदुस्तान हेरल्ड में छपी। फिर समाचार एजेंसी रायटर के जरिये यह खबर पूरी दुनिया में फैल गई। भतीजा शिशिर कुमार बोस ने सुभाषचंद्र बोस से संबंधित संस्मरण में लिखा है कि उन्होंने और उनके पिता ने सुभाषचंद्र बोस के संन्यास ले लेने की अफवाह फैलाई। महात्मा गांधी को भी ठीक जवाब नहींदिया गया, मगर रवींद्रनाथ टैगोर से झूठ नहींबोला जा सका। महात्मा गांधी के टेलीग्राम पर सुभाषचंद्र बोस के भाई शरदचंद्र बोस ने तीन शब्द का जवाब दिया- सरकमस्टान्सेज इंडीकेट रिनुनसिएशन (हालात का इशारा संन्यास की तरफ)। जबकि रवींद्रनाथ टैगोर के तार का जवाब दिया- सुभाष जहां कहीं भी हों, उन्हें आपका आशीर्वाद मिलता रहे। इसीलिए मृत्यु (अगस्त 1941) से पहले लिखी गई रवींद्रनाथ टैगोर की अंतिम कहानी (बदनाम) में आजादी की तलाश में निकले अकेले पथिक की अफगानिस्तान के बीहड़ रास्तों से गुजरने का मार्मिक चित्रण है।
आजाद हिंद फौज में थे रोहतास जिला के दो सिपाही :
सुभाषचंद्र बोस ने जापान की सहायता से टोकियो में 1942 में रासबिहारी बोस द्वारा स्थापित की गई इंडियन नेशनल आर्मी (आजाद हिंद फौज) की कमान बतौर सुप्रीम कमांडर 4 जुलाई 1943 को संभाली और ब्रिटेन की ओर से लडऩे वाले भारतीय सैनिकों को आजाद हिंद फौज में शामिल किया। उन्होंने आजाद हिंद फौज को सुसंगठित करने के साथ आजाद हिंद सरकार और आजाद हिंद रेडियो की भी स्थापना की। उनके नेतृत्व में आजाद हिंद फौज सिंगापुर से दिल्ली के लिए पैदल ही मार्च कर अंडमान-निकोबार में तिरंगा फहराते हुए 1944 में भारत की मुख्यभूमि कोहिमा तक पहुंच गई थी। मगर अचानक द्वितीय विश्वयुद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी और जापान ने हार मान ली। सुभाषचंद्र बोस को टोकियो जाना पड़ा। आजाद हिन्द फौज के कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लो, मेजर शाहवाज खां आदि सैन्य अफसरों-सैनिकों को अंग्रेजी सेना ने बंदी बना लिया। बंदी बनाए गए फौजियों में दूसरे देश की भूमि पर लडऩे वालों में दो फौजी रोहतास जिला के सरदार रमीन्दर सिंह और कैमूर जिला के वशिष्ठ पांडेय भी थे।
ब्रिटिश सेना के सिपाही (संख्या एमई 46386) सरदार रमीन्दर सिंह पंजाब के गुजरान जिला के मल्लू गांव वासी सरदार गंगा सिंह के पुत्र थे, जिनकी पलटन को हराकर जर्मनी-इटली की सेना ने लिबिया में बंदी बनाया था। जब वह आजाद हिंद फौज में शामिल हुए, तब उनका सिपाही क्रमांक 1017 हो गया। रमीन्दर सिंह को अन्य सैनिकों के साथ भारत के बहादुरगढ़ शिविर जेल में लाया गया। 25 नवम्बर 1940 को इंडियन आर्मी मेडिकल कोर में भर्ती हुए कैमूर जिला के दुर्गावती प्रखंड के नुआंव गांव के रामप्रसाद पांडेय के पुत्र वशिष्ठ पांडेय 22 दिसम्बर 1941 को पानी के जहाज से मुम्बई से 07 जनवरी को सिंगापुर पहुंचे थे, जहां ब्रिटेन और जापान के सैनिकों के बीच युद्ध जारी था। जापान ने ब्रिटेन से सिंगापुर जीत लिया तो ये ब्रिटेन की ओर से लडऩे वाले सैनिकों के साथ युद्धबंदी बना लिए गए। फिर आजाद हिंद फौज में शामिल होकर ब्रिटिश सेना से लड़ाई लड़ी। ब्रिटिश सेना से हार जाने के बाद इन्हें अन्य सैनिकों के साथ बंदी बनाकर भारत में बंगाल के जिगरगच्छा शिविर जेल में लाया गया। कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लो, मेजर शाहवाज खां सहित आजाद हिंद फौज के कमांडरों-सिपाहियों को फांसी की सजा सुनाई गई।
महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भोलाभाई देसाई, तेजबहादुर सप्रू द्वारा कोर्ट में अपील की गई। इनकी फांसी की सजा माफ हुई। अन्य फौजियों के साथ ये दोनों भी 1946 में सेना से बर्खास्त किए गए। बर्खास्तगी के बाद सरदार रमींदर सिंह पंजाब जाने के बजाय सोन नद के किनारे स्थित डेहरी-आन-सोन में आकर बस गए।