रंगमंच दिवस विशेष : यशस्वी साहित्यकार मृदुला गर्ग से विशेष बातचीत/कृष्ण किसलय

अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार मृदुला गर्ग 26 मार्च को पटना (बिहार) में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से महीयसी महादेवी वर्मा की स्मृति में संयोजित शताब्दी सम्मान समारोह मेें विशेष अतिथि के रूप मेें आमंत्रित हैं। देश-विदेश के पाठकों में बहुपठित उपन्यासों (चित्त कोबरा, कठगुलाब) और बहुचर्चित नाटकों (एक और अजनबी, कितने कैदी) की लेखिका के रूप में सम्मानित हिन्दी साहित्य की शिखर हस्ताक्षर मृदुला गर्ग साहित्य अकादमी, सेठगोविंद दास सम्मान, व्यास सम्मान, स्पंदन कथा शिखर सम्मान पा चुकी हैं। उनकी रचनाएं भारतीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी, चेक, जर्मन में भी रूपांतरित हो चुकी हैं। 25 अक्टूबर 1938 को कोलकाता मेंं जन्मी दिल्ली वासी हिंदी की अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखिका मृदुला जी अपने यशस्वी जीवन के 80 वसंत पार कर चुकी हैं। देश के अति वरिष्ठ नागरिक के नाते उन्हें सोनमाटी परिवार की ओर से शतायु होने की शुभकामनाएं ! संपर्क (आवास) : मृदुला गर्ग, ई-421, ग्राउंड फ्लोर, ग्रेटर कैलाश-2, नई दिल्ली-110048  ई-मेल : मृदुलाडाटगर्ग7एटजीमेलडाटकाम फोन 9811766775 

नाटक : 55 वर्ष पूर्व अकालपीडि़तों के सहायतार्थ
(फेसबुक चैट पर आधारित यह बातचीत सोनमाटी प्रिंट एडीशन के गणतंत्र विशेषांक जनवरी 2019 में प्रकाशित हो चुका है, जो सोनमाटीडाटकाम में विश्व रंगमंच दिवस 27 मार्च पर प्रसारित है)

आज इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि 55 साल पहले मृदुला गर्ग ने बिहार के एशिया प्रसिद्ध रहे औद्योगिक उपनगर डालमियानगर में अकाल पीडि़तों की मदद के लिए नाटक किया था और उस नाटक का नाम था ‘पैसा बोलता हैÓ। तब वह जमाना था, जब महिलाओं के लिए घर से बाहर पैर रखना वर्जित था। सामाजिक वर्जना के कारण नाटक या सांस्कृतिक कार्यक्रम के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए छोटे क्या, बड़े शहरों में भी महिलाएं आम तौर पर तैयार नहीं होती थीं। 21वीं सदी में आज भले ही सड़कों पर पति-पत्नी खुलेआम हाथ में हाथ डाले या कंधे पर हाथ रखकर बेहिचक गुजर रही हों, मगर तब आज के जमाने के हिसाब से यह चौंकाने वाली बात थी। आधुनिकता के आगाज माने जाने वाले सिनेमाघर में भी फिल्म देखने के लिए तब पति-पत्नी को डेहरी-डालमियानगर में महिला-पुरुषों की अलग कतार या बाक्स में बैठना होता था। 20वीं सदी के उस बीते दौर में पिछड़े इलाके डालमियानगर (डेहरी-आन-सोन) में अपने अभिनय का सार्वजनिक प्रदर्शन मृदुला गर्ग के लिए सचमुच साहस भरा काम था।
मृदुला गर्ग ने 1960 में स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र) करने के बाद तीन वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया। शादी होने के बाद वह पति के साथ डालमियानगर आई और यहां पांच सालों (1963-67) तक रंगमंच पर सक्रिय रहींं। डालमियानगर में रंगकर्म की सक्रियता ने ही उनमें लेखन का बीजारोपण किया। जैसाकि मृदुला जी बताती हैं, ‘मैंने डालमियानगर में कई नाटक किए थे, जिनमें पैसा बोलता है, दर्पण एक था (लक्ष्मीनारायण लाल) जैसे नाटक और मैथिलीशरण गुप्त के नाट्यांश भी थे। तब मैं लिखती नहीं थीÓ।

कोई रंगमंडल नहीं, मित्रों के साथ करती थीं शौकिया नाटक
मृदुला गर्ग बताती हैं, हमारा कोई रंगमंडल नहीं था। मैं और कुछ मित्र मिलकर शौकिया नाटक करते थे, जिनमें रोहतास उद्योगसमूह में काम करने वाले, उनकी पत्नी या बेटे-बेटी शामिल होते थे। यह जानकर अचरज होगा कि उस समय 1964-66 में जब वहां (डालमियानगर, डेहरी-आन-सोन में) पति-पत्नी सिनेमा देखने जाते थे तो अलग-अलग मर्द-औरतों के साथ बैठते थे, तब के जमाने में मैंने स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर नाटक किए थे। एक माथुर परिवार था, जिनके घर की स्त्रियां बहुत बढि़य़ा अभिनय करती थीं, खुल कर। एक बंगाली दम्पति (केसी घोष, रेखा घोष) थे, जो नाटक का कलापक्ष देखते थे, क्या ख़ूब देखते थे। वे सचमुच कलाकार थे। पोशाक,लाइटिंग का जिम्मा उनका होता था। निर्देशन मैं व घोष साहब मिलकर करते थे।
एक बार एक सज्जन को बेटी के अभिनय करने पर कुछ एतराज हुआ था, पर हम लोगों का रिहर्सल देखने के बाद वे ख़ुद एक किरदार की भूमिका में उतर आए। मेरे पति के इन्डस्ट्रियल इन्जीनियरिंग विभाग के युवा अफसर भी अभिनय करते थे। हमने अकाल पीडि़तों की राहत के लिए नाटक किया था- पैसा बोलता है। उसे देखने कोलकाता से रंगकर्मी शंभु मित्र आए थे। अकाल राहत कोष के लिए हमने लाख रुपये जमा किए थे। जिस इलाके में अकाल का असर ज्यादा था,वहां हम अनाज, पौष्टिक भोजन लेकर जाते थे। एक डाक्टर भी हमारे साथ होते थे। आज की तरह प्रचार करने की बात किसी के दिमाग में आई ही नहीं।

डालमियानगर नहीं आती तो दिल्ली में अर्थशास्त्र ही पढ़ाती रहती
वहां (डालमियानगर) में नाटक देखने वाले परिवार थे, साहित्य पढऩे वाले भी। घोष दम्पत्ति अब नही रहे। माथुर परिवार पता नहीं कहां है? पिछले दिनों कानपुर गई थी। वहां मेरे समय में डालमियानगर रही एक मित्र ने एक नाटक की तस्वीर मुझे दी थी। सितम्बर 2015 में फेमिना (हिन्दी) ने मुझ (मृदुला गर्ग) पर जो फीचर प्रकाशित किया, उसमें अभिनय करते हुए मेरा चित्र छापा। पर, वह चित्र डालमियानगर का नहीं, कालेज के दिनों का है। डालमियानगर के चित्र कहीं तो पड़े ही होंगे, जमाना गुजर गया। आप (कृष्ण किसलय) की बात सही है, डालमियानगर में नहीं रही होती तो शायद दिल्ली में अर्थशास्त्र ही पढ़ाती रहती, लेखन शुरू नहीं करती। डालमियानगर के बाद मृदुला गर्ग कर्नाटक के बागलकोट में रही, जो डालमियानगर से भी छोटी जगह थी। उन्होंने बागलकोट में लिखना शुरू किया। इसके बाद वह 1970 में दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) चली गईं, जहां उनके लेखन का सर्वाधिक सक्रिय समय गुजरा। जैसाकि उनका कहना है, आरंभ में अपने बड़े बेटे को सुलाकर बेटे की पीठ पर कापी रख लिखना शुरू किया था। 1972 में उनकी पहली कहानी प्रतिष्ठित पत्रिका सारिका में छपी। उसी वक्त नटरंग (विशिष्ट रंग पत्रिका) में उनका नाटक ‘एक और अजनबीÓ प्रकाशित हुआ।
बातचीत : कृष्ण किसलय, समूह संपादक, सोनमाटी मीडिया ग्रुप
(गूगल से साभार तस्वीर संयोजन : निशान्त राज, प्रबंध संपादक, सोनमाटी मीडिया ग्रुप)

 

बातचीत : मृदुला गर्ग से कृष्ण किसलय की फेसबुक पर कुछ इस तरह हुई चैट

28.04.2018 (8.34 रात) कृष्ण किसलय : मैडम नमस्कार, क्याा आप 7वें दशक में डालमियानगर, बिहार में रह चुकी हैं? आदर के साथ।
30.04.2018 (07.48 बजे शाम) मृदुला गर्ग : जी हां, 1970-74 में।
30.04.2018 (09.47 बजे रात) कृष्ण किसलय : नमस्कार मैम, आश्चर्य है कि मुझे भी यह जानकरी हाल तक नहीं थी। दैनिक जागरण में आपके एक साक्षात्कार से जानकारी हुई थी। मगर संशय में था कि कहीं कोई और डालमियानगर दक्षिण भारत में नहीं हो, जहां डालमियानगर के मूल मालिक डालिमया परिवार ने अपने कारोबार-व्यापार का स्थापना-विस्तार किया हो। आश्चर्य कि मुझे भी जानकारी नहीं थी और न ही मुझसे पहले यहां के किसी पत्रकार-लेखक ने इस बात की चर्चा की। क्या आप उन दिनों की कुछ बातें अपने तरीके अपनी स्मृति के आधार पर यथासमय बताने की कृपा करेंगी?

लिखना डालमियानगर छोडऩे के बाद शुुुरू किया

02.05.2018 (03.52 बजे दोपहर बाद) मृदुला गर्ग : माफी चाहती हूंँ, मैंने वे वर्ष लिख दिये, जब बागलकोट में थी। डालमियानगर में मैं 1963-67 तक थी। मैंने वहांँ काफी नाटक किये थे। उनमें एक नाटक लक्षमीनारायण लाल का भी था- दर्पण। पर, तब मैं लिखती नहीं थी। मैंने लिखना डालमियानगर छोडऩे के बाद शुुुरू किया। दुर्गापुर में 1970 में। कहानियांँ 1972 में छपनी शुरू हुईं। नटरंग में नाटक भी तब ही छपा। एक और अजनबी। बाद में मैं बागलकोट में रही। वह सर्वाधिक सक्रिय लेखन का समय था

02.05.2018 (07.02 शाम) कृष्ण किसलय : मैडम नमस्कार। जानकर खुशी हुई कि आप रंगकर्मी भी रही हैं। आपके दौर में (डालमियानगर में नाटक करने के दौरान) तब कौन-कौन कलाकार हुआ करते थे? और, निर्देशक कौन थे? यह तो मुझे पता है कि 1942 में डालमियानगर के रंगमंच पर पहला हिन्दी नाटक 1942 में मंचित हुआ था और उसमें अंग्रेज व बंगलाभाषी रंगकर्मी ही प्रमुख थे। इसके 20 साल बाद के रंगमंच पर आपका अवतरण हुआ। बेशक, डालमियानगर में पांचवां-छठवां दशक स्थानीय रंगमंच का स्वर्ण काल था। आपने लिखना डालमियानगर छोडऩे के बाद शुरू किया, पर मैं समझता हूं कि लिखने की पूर्वपीठिका डालमियानगर में ही तैयार हुई होगी। मैंने भी अपनेे तरुण उम्र में 1975-77 के दौर में नाटकों में अभिनय किया, कई नाटक भी लिखे। उस समय तक लड़कियां नाटक में रोल करने के लिए तैयार नहीं होती थीं और अपने नाटक के स्त्री पात्र की भूमिका मुझे ही करनी पड़ी थी। तीन दशक से अधिक हो गए, डालमियानगर मर चुका है, चिमनियों का चमन भारतीय औद्योगिक संस्कृति का मोहनजोदड़ो-हड़प्पा बन चुका है। रोहतास इंडस्ट्रीज का विशाल कारखाना परिसर कबाड़ के भाव बिक गया। बहरहाल, डालमियानगर में आपके रहने और वहां रहकर जीवन की सृजनात्मक यात्रा शुरू करने के संदर्भ और जुड़ाव के कारण मैं सोनमाटी का एक अंक आपको समर्पित करना चाहता हूं। सोनमाटी यहां का लघु, मगर प्रतिनिधि-प्रतिष्ठित समाचार-विचार पत्र है। आदर के साथ।

तब डेहरी-आन-सोन में पति-पत्नी भी अलग-अलग बैठकर सिनेमा देखते थे
03.05.2018  (12.31 बजे दिन) मृदुला गर्ग : हमारा कोई रंगमंडल नहीं था। मैं और कुछ मित्र मिल कर शौकिया नाटक करते थे। रोहतास फैक्ट्री में काम करने वाले लोग, उनकी पत्नियाँ या बेटे-बेटियां, वही सब। शायद आपको अचरज हो, पर उस समय, 1964-66 में जब वहाँ पति-पत्नी सिनेमा देखने जाते थे तो अलग-अलग मर्द-औरतों के साथ बैठते थे। तब मैंने स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर नाटक किये और बहुत आराम तसल्ली और मौज मजे से किये। एक माथुर परिवार था। उनके यहाँ की स्त्रियाँ बहुत बढिय़ा अभिनय करती थीं, खुलकर। केसी घोष और रेखा घोष नाम के बंगाली दम्पति थे, जो नाटक का कला पक्ष देखते थे और क्या ख़ूब देखते थे। वे सचमुच कलाकार थे। पोशाक, लाइटिंग इन सबका जिम्मा उनका रहता था। निर्देशन मैं और घोष साहब मिल कर करते थे। एक बार एक सज्जन को अपनी बेटी के अभिनय करने पर कुछ एतराज हुआ ज़रूर था। पर, हम लोगों का रिहर्सल देखने के बाद वे ख़ुद एक किरदार की भूमिका में उतर आये थे। मेरे पति के इन्डस्ट्रियल इन्जीनियरिंग विभाग के युवा अफसर भी अभिनय करते थे। हमने अकाल पीडि़तों की राहत के लिए नाटक किया था- पैसा बोलता है। तब उसे कोलकाता से शंभु मित्र देखने आये थे। साहित्य पढऩे वाले वहाँ अनेक परिवार थे। नाटक देखने वाले भी। अकाल राहत कोष के लिए हमने लाख रुपया जमा कर लिया था। हमारे ही इलाके में अकाल था। लिहाज़ा उस पैसे में अपना अनाज मिला, हम वहाँ पौष्टिक भोजन ले कर जाते थे। एक डाक्टर भी साथ होते। पर, इसका प्रचार करने की बात हममें से किसी के दिमाग में आई ही नहीं। घोष दम्पत्ति अब नहीं रहे। माथुर परिवार पता नहीं कहाँ है? हां, पिछले दिनों कानपुर गई थी तो एक मित्र ने जो मेरे समय में डालमियानगर रही थीं, ने एक नाटक का चित्र मुझे दिया था। हमने लक्ष्मीनारायण लाल के दर्पण के अलावा मैथिलीशरण गुप्त के यशोधरा के कुछ अंश भी अभिनीत किये थे। और कुछ अन्य नाटक भी। सब कुछ शौकिया था। सितम्बर 2015 में फेमिना (हिन्दी) ने मेरे ऊपर एक फीचर निकाला था। उसमें अभिनय करते हुए मेरा एक चित्र था कालेज के दिनों का, पर डालमियानगर का नहीं। वहाँ के चित्र कहीं पड़े होंगे। जमाना गुजर गया। आपकी बात सही है, डालमियानगर न रही होती तो शायद अर्थशास्त्र ही पढ़ाती रहती, लेखन शुरू न करती।

03.05.2018  (09.03 बजे रात) कृष्ण किसलय : मैडम नमस्कार। वाकई, आपसे 55 साल पहले के डालमियानगर की जानकारी मिल रही है। उस समय तो डालमियानगर चमक रहा होगा। रात में सड़कों पर बिजली की व्यवस्था होगी। मैं नहीं जानता कि आप सीनियर आफिसर्स बंगलों की तरफ रहती थींया डी-टाइप में। तब डालमियानगर परिसर बेहद हरा-भरा था। हालांकि मैं रेलवे प्लेटफार्म अर्थात डालमियानगर के दक्षिण स्टेशन रोड के करीब (सोनमाटी-प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यूएरिया) का रहने वाला हूं, जिसका 80 फीसदी हिस्सा आपके रहने के वक्त खेत था। आप अपनी यादों को कुछ टटोले, जब भी फुुर्सत मिले, मौका मिले और कुछ बता सकेें उन दिनों की बात तो यह आपकी कृपा होगी। गुजरे जमाने को आपकी नजर से यहां के लोग जानना चाहेंगे। कानपुर वाले मित्र से मिली तस्वीर की एक डिजिटल कापी उपलब्ध करा सकेें तो बेहतर हो। धन्यवाद। आदर के साथ आपका, कृष्ण किसलय।

मृदुला गर्ग के डालमियानगर में रहने तक सोन नहरों में चलते थे स्टीमर
06.05.2018 (12.15 दोपहर बाद) कृष्ण किसलय : मैडम, नमस्कार। अकाल, राहत, नाटक पैसा बोलता है के बारे में कुछ बता सकें तो यह इस शहर, इस जिले, बिहार के सोन नद अंचल के इस इलाके के पाठकों के लिए अद्भुत होगी कि किस तरह खामोशी से आर्थिक मदद करने की प्रवृत्ति तब जीवंत थी। अब तो सब चीजें रैपरिंग-पैकेजिंग की तरह प्रस्तुत होती हैं। मैंने कई साहित्यिक मित्रों से चर्चा की है आपके डेहरी-आन-सोन में रहने के बारे में। जब आप डालमियानगर में थीं, तब वह स्वर्णकाल था। आपके डालमियानगर छोडऩे के एक दशक बाद कारखानों का क्षरण होना शुरू हो गया, लेबर कंफ्लिक्ट शुरू हुआ। वहां डेहरी-आन-सोन में एक जगह शहर के दक्षिणी छोर पर किनारे एनिकट (जहां से सोन नदी से निकली नहरें पटना और बक्सर जाकर गंगा में मिलती है) थी, जहां ऊंचाई पर खूबसूरत पार्क हुआ करता था। हालांकि उस वक्त तक विश्वविख्यात सोन नहरें दम तोडऩे लगी थीं, मगर एनिकट का वजूद बना हुआ था और शायद तब तक स्टीमरें भी चला करती थीं।
(मृदुला गर्ग जी की तरफ से फिर र्चैट नहीं)

(फेसबुक वाल से मृदुला जी के साथ बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की संपर्क सचिव कवयित्री लता प्रासर, पटना)

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