छठ: सूर्योपासना व अराधना का गैर वैदिक स्त्री-पर्व


कुमार बिन्दु
पाली, डालमियानगर, डेहरी ऑन सोन, रोहतास- 821305बिहार। मोबाइल- 09939388474

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सोन घाटी क्षेत्र का बहुचर्चित लोक-पर्व है छठ। सूर्योपासना व अराधना का यह लोकपर्व सूबे बिहार की सांस्कृतिक पहचान भी है। देश विभिन्न प्रदेशों व विदेशों में भी रहने वाले बिहारी परिवार इस पर्व को करने लगे हैं, इसलिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर इसकी चर्चा होने लगी है। छठ मूलत: स्त्री-पर्व है। हालांकि आजकल अनेक पुरूष भी छठ व्रत करने लगे हैं। लेकिन, मुख्यत: सुहागिनें और खासतौर से नव विवाहित स्त्रियां संतान सुख के लिए यह पर्व करती हैं। छठ पर्व के पारंपरिक गीतों में यही कामना व्यक्त की गई है।
सूर्योपासना व अराधना का यह एक गैर वैदिक अनुष्ठान है, क्योंकि इसमें पुरोहित व किसी वैदिक मंत्र की भूमिका नहीं है। व्रती को अरग यानी अर्घ्य देने के लिए शुभ मुहूर्त भी नहीं देखना होता है, क्योंकि सूर्योदय व सूर्यास्त की वेला में अरग दिया जाता है। बिहार के इस लोकपर्व छठ की जननी मगध प्रदेश है। प्रश्न उठता है कि मगध प्रदेश में यह लोक पर्व मनाने की परंपरा कब और क्यों विकसित हुई। इस संदर्भ में यह महत्वपूर्ण तथ्य हमें स्मरण करना होगा कि बिहार प्राचीन काल से मूलत: मातृ पूजक प्रदेश रहा है। इस प्रदेश के किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन गांव में जाते हैं, तो हमें काली माई का मंदिर जरूर मिलता है। यह काली माई मार्कण्डेय पुराण या दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवी काली नहीं हैं। गांवों में काली माई के मंदिर में सात पिंड होते हैं। एक पिंड उनके भाई का बना होता है। यह काली माई शीतला, फूलमती आदि सात बहनें हैं। इस लोकदेवी का जुड़ाव नीम के पेड़ और ओड़हुल के फूल से है। सोन घाटी यानी मगध प्रदेश में हर मांगलिक अनुष्ठान में स्त्रियां पहले देवी गीत गाती हैं। उसके बाद झूमर या अन्य लोकगीत गाए जाते हैं।
देवी पूजक प्रदेश होने के कारण ही लोक चेतना में रची बसी मातृ पूजन की परंरपरा सूर्योपासना के इस पर्व में भी छठी मइया के रूप में दृष्टिगत होती है, सूर्य प्रिया के रूप में। छठ पर्व में व्रती सुहागिनें कार्तिक के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को संध्या काल और सप्तमी तिथि को उषा काल में अरग देती हैं। उषा और संध्या का एक रूप होता है। हिंदू साहित्य में उषा को सूर्य की पत्नी बताया गया है। उसे सूर्या कहा गया है। उषा और संध्या को सहोदर और जुड़वा बहन भी माना गया है। संध्या के भी कई नाम हैं। विदित हो कि ऋग्वेद में सूर्य और उषा को लेकर एक ऋचा में कहा गया है कि उषा भाग रही है। कामुक सूर्य उसका पीछा कर रहा है। उषा भाग रही है और सूर्य उसका पीछा करता जा रहा है। अंतत: सूर्य अपनी बांहों में उषा को दबोच लेता है। ऋग्वेद की यह ऋचा सूर्य को कामुक बताती है। इस प्रसंग में यह भी स्मरणीय है कि पौराणिक कथा के मुताबिक यम और यमी को जन्म देने वाली सूर्य से उसकी पत्नी त्वाष्ट्री यानी संज्ञा भागकर अपने पिता के संग रहती है। जब सूर्य अपने ससुर के पास जाता है, तो उसकी पत्नी घोड़ी बनकर भाग खड़ी होती है। सूर्य भी घोड़ा बनकर पीछा करता है। अश्व रूप में दोनों के यौन समागम से अश्विनी कुमारों का जन्म होता है।
पौराणिक शास्त्रों के वर्णित है कि जब कृष्ण के वंशज जब सूर्य मंदिर का निर्माण कराते हैं, तो उसके पूजन की विधि जानने वाला कोई वैदिक पुरोहित नहीं मिलता है। तब शाक्य द्वीप से गैर वैदिक पुरोहित आहूत किए जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सूर्य पूजन की परंपरा गैर वैदिक है। शाक्य द्वीप से आए पुरोहितों के वंशज आज शकद्वीपी या सकलदीपी ब्राह्मण कहे जाते हैं। यह गौर तलब है कि सूर्य मंदिर मगध प्रदेश में ही बने हैं। इतिहास के अध्येता दिवंगत कृष्ण किसलय के मुताबिक सोन के पश्चिम में रोहतास जिला के देव मार्कण्डेय तथा सोन के पूर्व में औरंगाबाद के देव में बने मंदिर में सूर्य की प्रतिमा यूनानी शासक के वेश- भूषा वाली है। इतिहासकार डा. भागवत शरण उपाध्याय ने लिखा है कि ज्योतिष की प्रथम पुस्तक होड़ाचक्रम है। होड़ा या होरा वैदिक संस्कृत का शब्द नहीं है। यह यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ होता है सूर्य। यूनानी सूर्य पूजक थे। यूनान की एक राजकुमारी हेलेना की शादी मगध प्रदेश के शासक चंद्रगुप्त से हुई थी। यानी देवी पूजक मगध प्रदेश में सूर्य पूजन की यह पंरपरा यूनान और असुर सभ्यता से जुड़ी हुई भी है, क्योंकि शकद्वीपी ब्राह्मणों का भारत में निवास मगध प्रदेश में ही रहा है।
महाभारत में सूर्य और कुंती के संसर्ग की कथा भी है। कुमारी अवस्था में सूर्य का आह्वान करने से कुंती गर्भवती हो जाती है। इस कथा में कुंती का संसर्ग से संकोच और सूर्य के तर्क दिलचस्प हैं। संभवत: इसी कारण कुमारी व विधवा स्त्रियों के लिए सूर्य पूजन का यह छठ पर्व निषेध कर दिया गया है। नव विवाहित एवं सुहागिन स्त्रियां ही संतान सुख के लिए छठ पर्व करती हैं।


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