(प्रसंगवश/कृष्ण किसलय) : ‘समय-सापेक्ष सरोकार ही कविता की सामाजिक प्रासंगिकता है’

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‘समय-सापेक्ष सरोकार ही कविता की सामाजिक प्रासंगिकता है’
-कृष्ण किसलय (संपादक : सोनमाटी)

विश्व हिन्दी दिवस पर भारतीय युवा साहित्य परिषद, पटना (संचालक, संयोजक : सिद्धेश्वर) की ओर से मासिक फेसबुक लाइव संयोजन में बतौर मुख्य अतिथि आनलाइन वीडियो कालिंग से जुड़कर दिया गया वक्तव्य।

मेरी जिंदगी
बनकर मोमबत्ती
जल रही है,
तिल-तिल गल रही है
पर, देखने वाले कहते हैं कि
वह रोशनी में बदल रही है।

चालीस साल से अधिक समय गुजर चुका। मेरे लेखन का आरंभ इन्हीं पंक्तियों से, इन्हीं शब्दों की कविता से, इसी भाव के कवित्व से हुआ था। कविता मनुष्य के हृदय की पीड़ा है, संवेदना है, वियोग है, छटपटाहट है। पीड़ा व्यक्ति के, रचनाकार के भीतर से निकल कर बाहर किसी दूसरे के लिए ग्राह्य हो जाए तो वह कविता बन जाती है। ग्राह्यता, स्वीकार्यता ही कविता की सामाजिक प्रासंगिकता है।

किसे सुनाऊं पीड़ा अपनी
किसको क्यों मैं दुखी बनाऊं
नहीं चाहता कि
लोग-बाग आकर समझाएं
और सांत्वना-आशा के
कुछ शब्द सुनाएं,
मैं अपनी वेदना सांस-सी
नख से शिख तक
जो व्यापी जो तन में
अंतस का चीत्कार
सुनाना क्यों चाहूंगा?

साहित्य का सत्य संवेदना है और कविता की संवेदना तो जमी हुई बर्फ की तरह नहीं, पिघलती हुई, छलछलाती हुई नदी की तरह होती है। कविता जमी हुई संवेदना, विचार के हिमनद की तरह नहीं होतीहै। इसीलिए दुष्यंत कुमार ने लिखा है– हो गई पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए। बिना संवेदना, बिना कवित्व कोई रचना, कोई सर्जना संभव हो ही नहींसकती। चाहे वह संगीत का प्रवाह हो या सत्य के तथ्य वाली आधुनिक साहित्य-रूप पत्रकारिता हो।
संपूर्ण भारतीय वाग्मय वाणभट्ट से पहले हजारों-हजार सालों से कविता-मय ही रहा है। वाल्मीकि रामायण दुनिया की सबसे पहली लंबी कविता है, महाकाव्य है। महाभारत तो भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे लंबी कविता है, जिसमें एक लाख से अधिक श्लोक और 18 लाख से अधिक शब्द हैं। 2800 साल पहले भारत भूमि से अलग रचा गया होमर का इलियड तो महाभारत से भी 10 गुनी लंबी कविता है। जैसे-जैसे देश-काल परिस्थिति बदलती गई, कविता का आकार-प्रकार, चरित्र बदलता गया। छोटे स्पेस में, छोटे कैनवास में कविता का अंकन ज्यादा कठिन, चिंतनप्रद और बौद्धिक होता गया। कवित्व की यही साधना कविता की नई ताकत बन गई, जिसमें कविता की गेयता, प्रवाह, प्रभाव, कथा-तत्व, संवेदना अधिक सघन होती गई।
जब लिखने की महागाथा, महाकाव्य की पंरपरा नहींशुरू हुई थी, तब श्रुति परंपरा थी। तब एक मंत्र में अपनी भावना गुंफित कर देने की नई कविता की शुरूआत हुई, नई सृष्टि हुई गायत्री के रूप में। 24 अक्षरों वाली ऋचा गायत्री प्रथम छंद रचना है, गेय है, गाने लायक है। वह जन सामान्य की जुबान पर ऐसी चढ़ी कि चार-पांच हजार सालों से अब तक चढ़ी हुई है। इससे पहले रचे गए यजुष मंत्र भी मूलत: गद्य में थे, व्याकरण विहीन थे, छंद विहीन थे। छंदबद्ध तो बहुत बाद में किया गया।
अनुभूत पीड़ा को दूसरों पर बिना लादे, कहने की कला कविता है और उसमें निहित संवेदना का संदेश उसका सामाजिक सरोकार है, उसकी सामाजिक प्रासंगिकता है। कविता की रचना कथा-तत्व के बिना संभव नहीं और कथा-तत्व है तो उसकी सामाजिक प्रासंगिकता स्वत: सिद्ध है। बीती सदी में अभिव्यक्ति का माध्यम बदला तो कविता मंचमुक्त हुई, छंदमुक्त भी। किसी काव्य-सृजन को सामाजिक सरोकार और समय-सापेक्ष प्रासंगिकता ही कविता बनाती है।
बहरहाल, मेरी कविता तो रूठ गई,बहुत पीछे छूट गई-
रागिनी रूठ गई मेरी
बजते नहींवीणा के तार !
उंगलियां सधती नहीं हुईं
याचनाएं तार-तार !!

संपर्क : सोनमाटी-प्रेस गली, जोड़ा मंदिर, न्यू एरिया, डालमियानगर-821305, जिला रोहतास (बिहार) फोन 9523154607, 9708778136

आनलाइन संगोष्ठी: ‘कविता की सामाजिक प्रासंगिकता’

पटना (सोनमाटी समाचार नेटवर्क)। भारतीय युवा साहित्यकार परिषद, पटना के तत्वावधान में विश्व हिन्दी दिवस पर फेसबुक पेज ‘अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका’ के लिए ‘कविता की सामाजिक प्रासंगिकता’ विषय पर आनलाइन अंतरराज्यीय विचारगोष्ठी का संयोजन किया गया। इस संगोष्ठी से पटना, डालमियानगर (डेहरी-आन-सोन), हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, बेतिया, लखनऊ (उत्तर प्रदेश), मध्य प्रदेश के वरिष्ठ कवियों के साथ युवा कवियों ने आमंत्रण पर सीधे आनलाइन जुड़कर वीडियो-आडियो के जरिये निर्धारित विषय पर विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ लेखक-कवि और सोनमाटी के संपादक-प्रकाशक कृष्ण किसलय ने कहा कि किसी सृजन का सामाजिक सरोकार और उसकी सामाजिक प्रासंगिकता ही उसे कविता बनाती है। अपनी अनुभूत पीड़ा को दूसरों पर बिना लादे कहने की कला ही कविता है और उसमें निहित संवेदना का संदेश उस कविता का सामाजिक सरोकार है, उसकी सामाजिक प्रासंगिकता है। संगोष्ठी के अध्यक्षीय संबोधन में वरिष्ठ कवि डा. गोरख प्रसाद मस्ताना ने कहा कि आज की कविता भक्ति काल के किसी अगम अगोचर वायवीय गुणगान और व्यक्ति विशेष के बखानके गुण-धर्म के साथ छायावाद काल की रहस्यमयी गूढ़ता को भी बहुत पीछे छोड़कर आगे निकल गई है और कबीर की तरह सत्ता के सामने तन कर भी खड़ी हुई है। कविता वही है जो जमाने की चुनौतियों से जूझते हुए समय सापेक्ष पथ पर आगे आए। कविता अपने समाज और हालात की वस्तुस्थिति की धरातलीय चिंता से लैस होती है। आज की कविता में राज-परिवार नहीं, आम आदमी की आकांक्षा, आशा-निराशा के स्वर हैं।
विशिष्ट अतिथि आकाशवाणी के पूर्व निदेशक, वरिष्ठ कवि, रंगकर्मी डा. किशोर सिन्हा ने वीडियो के जरिये संगोष्ठी से जुड़कर कई शीर्ष कवियों की काव्य पंक्तियों से उद्धरण पेश करते हुए हिन्दी कविता की ऊंचाई और सामाजिक प्रासंगिकता को सटीक तरीके से रेखांकित किया। उन्होंंने कहा कि कविता ऐसी विधा है, जो कम शब्द, कम स्थान, कम समय में प्रभावकारी मारक क्षमता के साथ समाज की जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करने में सक्षम है। आनलाइन संगोष्ठी में योगेन्द्रनाथ शुक्ल, प्रियंका श्रीवास्तव शुभ्र, सुरेश शर्मा (बैंक अधिकारी), अपूर्व कुमार, ऋचा वर्मा, राज प्रिया रानी, सुरेश वर्मा, अनुज अनु, प्रणय सिन्हा, विजयानंद विजय, पुष्पा जमुआर आदि कवियों-लेखकों ने भी आडियो प्रस्तुति के जरिये अपने-अपने विचारों को रखा। आरंभ में विषय प्रवर्तन करते हुए और अंत में धन्यवाद-ज्ञापन करते हुए संयोजक-संचालक सिद्धेश्वर ने कहा कि बेहतर व्यक्ति और समाज के निर्माण की दिशा में शुचितापूर्ण भूमिका का निर्वाह ही कविता की सार्थकता और उसकी सामाजिक प्रासंगिकता है। कविता अभिव्यक्ति की सहज मगर साधना का उपक्रम है। यह समाज, समय का आईना और जीवन का पथ प्रदर्शक भी है।

कविता तो मनुष्य के जीवन में जन्म से मरण तक उपस्थित रहती है : डा.शांति जैन

पद्मश्री डा. शांति जैन (प्रतिष्ठित गीतकार) ने लाइव आडियो के जरिये जुड़कर संगोष्ठी की मुख्य वक्ता कहा कि कविता तो मनुष्य के जीवन में जन्म से मरण तक विभिन्न रूपों मौजूद होती है। यह राजनीति की निष्ठुर धूप में भी शीतल छांव की तरह होती है। उन्होंने कविता लेखन के नाम पर इस मौजूदा रवायत पर चिंता जताई कि कविता के नाम पर आजकल सपाटबयान वाली रचना अधिसंख्य लिखी जा रही हैं। कविता का रूप और चरित्र खेमाबंदी की भी शिकार हो चुका है। कविता का मंच अब तो बाजार का हिस्सा भी गया है। अगर कविता में शक्ति है तो उसकी और कवि की पहचान के लिए किसी अन्य कलाबाजी की जरूरत ही नहीं है। काव्यात्मक अभिव्यक्ति तो स्वत:स्फूर्त जन हिस्सा बन जाती है। कविता व्यक्तिगत यश के लिए तो है ही, मगर यह दूसरों को जीने का सलीका सीखाती है। डा. शांति जैन मानती है कि पहले की कविताओं के मुकाबले आज की कविता गद्यात्मक अधिक हो गई है, मगर उसकी संगीतात्मक लय, ध्वनि बरकरार है, तभी तो वह कविता है।

बीज है तो पेड़ बनने से नहीं रोका जा सकता : कृष्ण किसलय

43 साल पहले 1977 में भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की स्थापना कृष्ण किसलय ने की थी और इसके मुखपत्र त्रैमासिक ‘नयी आवाजÓ का प्रकाशन किया था, जिसके कविता, कथा अंकों का साहित्य जगत में स्वागत हुआ था। बिहार की राजधानी पटना में भी सिद्धेश्वर ने परिषद की शाखा बनाई, जिसकी गतिविधियां आज भी जारी हैं। शीर्षक उपलब्धता की तकनीकी वजह से 07 अंक निकलने के बाद ‘नयी आवाजÓ का प्रकाशन बंद हो गया। इसके बाद 1979 में कृष्ण किसलय ने साप्ताहिक ‘सोनमाटी’ का प्रकाशन आरंभ किया। इन स्मृतियों की चर्चा फेसबुक पेज कार्यक्रम में संयोजक-संचालक सिद्धेश्वर द्वारा कृष्ण किसलय से कविता लेखन और पत्रकारिता शुरू करने के समय से संबंधित सवाल-जवाब के परिचर्चा-क्रम में हुई। सिद्धेश्वर ने यह सवाल खड़ा किया कि आजकल अधिसंख्य संपादक उसे भी कविता के रूप में प्रकाशन करते हैं, जिसे कवितामानने में आम सहमति नहींहो सकती। कृष्ण किसलय ने कहा कि संपादकीय विवेक को चुनौती नहीं दी जा सकती। ज्ञान पुराने जमाने से नए जमाने की ओर और आगे की ही यात्रा करता है। अगर रचना अच्छी है, बीज अच्छा है तो उससे कभी-न-कभी पेड़ बनेगा ही, उसे रोका नहींजा सकता। नए कवियों की उपेक्षा के प्रश्न पर चर्चा में माना गया कि यह हर रचनाकार के आरंभिक लेखन से जुड़ा मसला है, हर युग की समस्या है और पुरातन-नूतन का द्वंद्व है। हर नए को सिद्ध करना ही होता है। नए रचनाकारों के लिए संदेश-कथन पर कृष्ण किसलय ने कहा कि रचना प्रक्रिया ग्रहण करने, पचाने-मथने और बौद्धिक उत्सर्जन की तरह होती है। नए को अपने अनुभव क्षेत्र के विस्तार और रचना में नवीनता के लिए साहित्य, कला के साथ ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न विषयों का भी अध्ययन करना चाहिए।

रिपोर्ट, तस्वीर : निशान्त राज (प्रबंध संपादक, सोनमाटी) और ऋचा वर्मा (सचिव, भारतीय युवा साहित्यकार परिषद, पटना)

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